yah kaisa nata
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

बुलाने की तो बहुत कोशिश की लाडो ने, मगर वह ना जाने क्यों एक मील का पत्थर बनकर अपने धुंधला पड़ते ही पुनः अपने अटल रूप में उसके ऐन सामने आकर उसे चिढ़ाने लगती। उसके साथ भी नहीं रहा जा रहा था, क्योंकि उसमें लाडो का कोई दोष नहीं था, वह सवयं ही लाडो से 10 फीट की दूरी बनाए रखती। और उसके बिना भी एक अजीब-सी बेचैनी छाई रहती क्योंकि वह खुद ही उसका पीछा नहीं छोड़ना चाहती थी। एक अजीब-सी स्थिति में ला खड़ा किया था उसने लाडो को। समय गुजरता गया और उसकी यादें धुंधली होने के बजाय और अधिक गहराती गई, अंदर ही अंदर। कभी-कभी तो उसकी यादें कुछ पलों के लिए उसके सीने पर इस कदर लग जाती जैसे कोई पुल पर से गुजरती ट्रेन अपने साथ एक घड़घड़ाहट लेकर आती है और सारी आवाजें पुल पर उड़ेल कर चुपचाप पीछे एक सन्नाटा छोड़ कर चली जाती है। पर सन्नाटा अधिक देर तक नहीं रह पाता। ट्रेन पुनः आती और यादे भी। तब सन्नाटा टूटा, हर बार, बार-बार।

उस समय ऐसा भी नहीं था कि लाडो को उससे बहुत प्रेम था और वह उसके बिना जी नहीं सकती थी। यहां तक कि अगर मैं यह कहूँ कि वह उसके बिना कुछ अधिक सहज और खुश रहती तो गलत ना होगा। शुरू-शुरू में सुनी सुनाई बातों के अनुसार लाडो के लिए वह एक ड्रामेबाज, मक्कार, तंग सोच सिर्फ खुद के लिए जीने वाली औरत थी। अधिकतर लोग तो दआएं करते कि वह कभी गलती से भी उसके सामने ना पड जाए। ना जाने बूढ़ी कौन-सा मंत्र फूंक दे और फिर हो गई छुट्टी। लाडो ने स्वयं कई बार उससे बचने की कोशिश की। उसकी कोठरी से कुछ कदम आगे पढ़ने वाले अपने रास्ते जाते और आते वक्त उसकी कोठरी के सामने से गुजरते हुए अपने छोटे-छोटे कदमों को इतना संभल कर रखती कि उसे खुद अपने कदमों की आवाज सुनाई नहीं देती परंतु वह ना जाने कहां से प्रेत की तरह बोलती और प्रकट हो जाती, पर दस फीट की दूरी से ही कहती ‘लाडो आ गई तू? जरा ठहर ले, तेरी छोटी-छोटी टांगे थक न गई होंगी…।

और फिर वह अपने सफेद आंचल से कुछ निकाल कर थोड़ी दूरी पर पड़े हुए पत्थर के ऊपर रखते हुए कहती-‘इसे उठा ले खा लेना’…. अब भला यह भी कोई प्यार करने का तरीका हुआ। लाडो को लगता कि मेरे छुआ जाने से उसका इतना ही धर्म भ्रष्ट होता है तो रहे दूर, यूं दूरी बनाकर खाने को देने और लाडो कहकर पकारने का क्या मतलब। उसकी बाल बद्धि में तो बस इतना ही अंकित था कि वह एक नेमी ब्राह्मणी है और हम निरे अछूत जात से। बड़ी आई पवित्र ब्राह्मणी, खुद तो अपने गिरेबान में झांकती नहीं। चाहे कितनी भी जात की पवित्र हो पर समझते तो सब उसे डायन ही थे। इस मायने में वह भी तो अछूत ही हुई ना, जो लाल कपड़े पहने और लाल पाउडर लगाए बच्चों का तो खड़े-खड़े खून चूस ले। लाडो के घर वालों ने उसे खूब समझा-बुझाकर चेताया था कि उसकी आंखों में आंखें डाल कर बतियाने का नहीं। सामने पड़ जाए तो नजरें झुका कर या फिर फेर कर उसकी पूछी बातों का गलत उत्तर देना। ऐसा करते हुए कई बार लाडो को अपने शरीर पर चींटियों के रेंगने का एहसास हुआ पर गलती से भी घर से हटाए पहाड़े से चूक ना पाई। दूसरी सबसे जरूरी बात यह कि उसके हाथ की चीज को भूल से भी नहीं खाने का। इसलिए जब भी वह कुछ खाने को देती तो उसके सामने तो वह रखी चीज उठा लेती कि कहीं गुस्से से उसे वह मुर्गी, बकरी ना बना दे लेकिन उसके लाख कहने पर भी खाती ना। रास्ते में नजर बचाकर किसी झाड-झाखड में फेंक कर घर की ओर सरपट भाग जाती, गलती से भी पीछे मुड़कर ना ताकती। कभी-कभी तो उसकी दी चीजें खाने का बड़ा मन होता पर नियम तो नियम होता है इसलिए बहुत खुशबू लेने के बाद भी उसे खा ना पाई कभी भी। सब कुछ तो एकदम सही चल रहा था। समय कितनी जल्दी भाग रहा था। एक-दो महीने नहीं कई साल। सच ही है कि सुख के साल बीतते पता नहीं चलता और दुख की एक एक घड़ी पहाड़ बन जाती है। उसके लिए तो पता नहीं कब से ही जिंदगी पहाड़ बनी हुई थी। शायद लाडो की सोच से भी परे। पर लाडो के लिए वह समय तब आया जब उसके अल्हड़ पल में ही उसकी मां को और मां दादी एक महीने के अंतराल पर ही चल बसीं। उनकी चिंता के साथ ही जल गया लाडो का बचपन, यौवन और समय से पहले ही आ गया उस पर अनदेखा बुढ़ापा।

अब उन दोनों में कोई फर्क नहीं रह गया था। लाडो वह थी, वह लाडो। लाडो को उसकी जरूरत थी, उसे लाडो की। अब उन दोनों के बीच दस फीट की दूरी होने पर भी ऐसा लगता था कि छुए बिना ही एक-दूसरे से कसकर गले मिल लिए हैं। उसके जो शब्द लाडो को पहले मात्र दिखावे भरा छलावा लगते अब प्रेम भरा एहसास बन चुके थे। और उसकी संदर्भहीन कहानियों में कभी-कभी संदर्भ जुड़ जाते और लाडो का मन कुछ पलों के लिए ही सही, प्रफुल्लित हो उठता। जिस दिन लाडो को वह ना मिलती तो मन पर मानो बोझ लद जाता और उस पर गुस्सा तो पूछिए मत, तब मिलने पर वे दोनों कुछ देर के लिए अजनबी बन जातीं, नानी भूली भटकी राही बन जाती और लाडो उसका पथ प्रदर्शक बन उसे राह दिखाने के बहाने धीरे-धीरे उसके गले ही पड़ने लगती। वे देखते ही कहती- कैसी है लाडो?…. लाडो काम में व्यस्त होने का नाटक करते हुए बोलती-

‘अरे तुम कैसे राह भटक आई नानी, यह तो ठहरी छोटी जात वालों की गली, तुझे तो शोभा नहीं देता यहां आना।’ …नानी भी कम ना थी एकदम बोल पड़ती।

“भला मैं क्यों आने लगी इस गली। अब यहीं गली तो पड़ती है अपने वहां जाने को। अब अगर तू यह गली अलग करवा दे तो तुझे अपना मुंह भी ना दिखाऊं और अपना धर्म बचे सो अलग।”

‘आ-हा…बड़ी आई धर्म-कर्म वाली, मुझसे बतियाने में धर्म नहीं जाता तेरा? ज्यादा बड़बोली ना बन नानी। इतने दिन कहां रही?’

‘देख धर्म को बीच में मत ला लाडो।’ इस बीच नानी मुस्कुराती रहती फिर गंभीर होते हुए कहती-

‘क्या बताऊँ, तुझे तो मालूम ही है कि पुश्तैनी गांव की जमीन उज्जड़ पड़ी रहती है। दोनों बेटों में से कोई उसे जोतना संवारना नहीं चाहता। अब यहां से मीलों दूर जो ठहरा। पर क्या करूँ जब तक मैं हूँ, इतनी ताकत तो नहीं रही कि कुछ कर सकूँ, बस हर साल जाकर गांव के हरखू को आध ने पर दे आती हूं। साथ ही पक्के बांस और दरख्तो के पत्ते बेच आती हूं। खर्चा पानी भी बन आता है और अपने खेत भी मौसमी बने रहते हैं।’

तभी लाडो को याद आया कि नानी का हर बार खेतों को मौसमी कहना उसे असमंजस में डालता था। एक बार उसने उससे पूछ ही डाला था कि नानी खेत तो उर्वर होते हैं या तो बंजर फिर खेत तो आम के पेड़ होते नहीं है जो मौसमी होंगे फिर खेतों का मौसमी होने से क्या लेना-देना? तब नानी ने खेतों को आम कहने वाली बात पर एक-दो मिनट हंसने के बाद लाडो को समझाया था-‘देख लाडो खेत कभी बंजर नहीं होते. उन्हें बंजर बनाता है हमारे हृदय में बैठा बंजर मन। इंसान चाहे तो उसमें से सोना उगा ले और ना चाहे तो पत्थर। वैसे खेतों में पड़े पत्थर भी महल बना सकते हैं। खेतों में पड़ी कोई भी चीज बेकार नहीं होती। बस अपनी जमीन के साथ जुनूनियत और प्रेम का रिश्ता होना चाहिए। और लाडो खेत सदाबहार भी नहीं होते। बहारों के संग कभी मकई, बाजरा, धान तो कभी गेहूं, जो, सरसों बन झूमने लगते हैं। जिसे देख किसी भी पथिक का मन गाने को आतुर हो उठे और वह घंटो गाता हुआ अपनी सारी थकान भूल उठे और नानी कुछ गुनगुनाने लगती मानो कुछ पलों के लिए वही पथिक बन गई हो। ऐसे में लाडो का मन भी उस एहसास से अछूता नहीं रह पाता। खेतों के प्रति ऐसा अनुराग उसने आज तक किसी और में नहीं देखा था। उस एहसास में डुबकी लगाने के बाद उसने नानी से कहा था कि- फिर तो खेत मौसमी होते हुए भी सदाबहार हुए ना। नानी ने चमकती आंखों से कहा था- ‘यह तो है’ और उसकी उस चमक के आगे लाडो को अपने मीठे आम के बगान के सारे आम फीके से लगने लगे थे।

खैर यह तो थी नानी के खेतों की मौसमी कहानी पर उन दोनों की कहानी में एक दिन ऐसा मोड़ आ जाएगा उसकी कल्पना ना कभी लाडो ने की थी और मुझे लगता है ना ही नानी ने की होगी। लाडो के लिए सब कुछ बहुत अच्छा ना होने के बावजूद नानी के कारण अच्छा था। दिन कैसे गुजरते गए कुछ पता ही नहीं चला। नानी में ना जाने क्या आकर्षण था कि लाडो उसकी ओर खिंची चली आती और वे दोनों घंटो बतियाते रहतीं। कभी-कभी मतलब की तो अधिकतर बेमतलब की बातें। नानी उसका फायदा भी कम नहीं उठाती थी। वह लाडो को ऊंचे लंबे दरख्तों पर चढ़ा देती क्योंकि उसके द्वारा लगाई गई बेलों की लोकियां, कंडोलियां और करेले जो उन दरख्तों की पातों पर जा लटकते थे। लाडो ना नुकुर करती तो वे अपना झुर्रियों वाला बड़ा मुंह लोकियों और कंडोलियों की तरह लटका ली थी। तब लाडो पेड़ के ऊपर लटकी उन सब्जियों और नीचे लटके नानी के चेहरे को देखती तो पेड़ों की पांतों से उन्हें तोड़ लाने का भय कुछ कम हो जाता। लाडो के पेड़ पर चढ़ने के हाव-भाव को समझते ही नानी लकड़ी के एक लूंठ को जो लगभग उसके कंधे के बराबर होता जल्दी से पेड़ के तने के साथ लगा देती ताकि लाडो को पेड़ पर चढ़ने में सुविधा हो सके। अर्थात जहर से जहर को काटने का प्रयास। तब लाडो उसे छेड़ने के लिए कहती नानी तेरे कंधे पर पांव रखकर ना चढ़ जाऊं? क्यों इतने भारी ढूंठ से उलझती हो? तब नानी बनावटी गुस्सा दिखा कर कहती-

‘तू मेरे साथ मसकिरयां न कर, पेड़ पर पांव अटकाने पर ध्यान दें, फिर फिसल जाए तो ना कहना मैंने बातों में लगा रखा था।’

‘पाप लगेगा तुझे नानी। जिन डालों से तू मुझे दो-चार रुपये की लोकियां और यह कंडोलिए लाने को कहती है ना, यह स्वर्ग से आग चुराने से कम न है नानी। एकदम पर्थयु की तरह, क्योंकि उस समय उसे उन्हीं दिनों अपनी कक्षा में पढ़ाई गई पर्थयु गाथा ही याद आई। अब नानी तो पर्थयु को ना जानती होगी इसलिए उसकी जिज्ञासा बोलने से पहले ही लाडो ने एक-दो सांस में पेड़ की दालों पर कदम जम्पते हुए उसे पर्थयु की मूल कथा सुना डाली। तब नानी उसकी तारीफों के पुल बांधने लगी और लाडो पतली डालिएँ पर धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए स्वयं को पर्थयु समझ आग चुराने लगती। जब लाडो उससे कहती कि ‘अगर तेरी यह आग चुराते हुए मेरे प्राण पखेरू उड़ गये और मैं सच में स्वर्ग पहुंच गई तो तुझे भी ना छोडूंगी, भूत बनकर साथ ले उडुंगी। तब नानी पूरे आत्मविश्वास के साथ कहती तब तो तू ना मरेगी लाडो। क्योंकि मैं इतनी जल्दी मरने वाली नहीं। लाडो हैरान होकर पूछती-

‘तुझे कैसे पता कि तू जल्दी ना मरेगी।’ वह कुछ सोचते हुए कहती

‘क्योंकि अभी यहीं पर बहुत नरक देखना बाकी है और मैं यह भी भली-भांति जानती हूं कि मेरी बहुएँ सती सावित्री तो है नहीं, मक्कार हैं एक नंबर की झूठी है। और मैं जो इतनी पूजा करती हूँ अपने भगवान की वो भी शास्त्रानुसार, वह नहीं सुनेगा उनकी।’ तब लाडो को कई बार उसकी दोनों बहुओं के मुख से सुनी हुई यह बात याद आ जाती कि यह बुढ़िया तो हम सब को खा जाने के बाद ही मरेगी। लाडो ने नानी से कहा-

‘तू अपने पोतों से क्यों नहीं कहती यह सब करने को। तू चालाक है बड़ी। उनको बचाना चाहती है और मेरे हाथ-पांव टूटने का तुझे गम ना होगा।’

‘ऐसा ना बोल लाडो। तेरा मन ना माने तो ना आया कर मेरे बुलाने पर। पोते मेरे होते तो गम ही क्या था। जब बेटे और बहुएँ अपनी ना हुई तो पोतों की क्या उम्मीद। वे सिर्फ बेटे हैं अपने मां-बाप के। मैं बुढ़िया डायन हूँ उनके लिए।’ नानी को रुआंसा हो आया देख लाडो ने बात बदलते हुए कहा-

‘तेरे बुलाने पर ना आती हूँ मैं! मैं तो यह देखने आती हूँ कि तू मुझसे कितनी दूरी पर रहती है। वैसे नानी अगर मैं कभी तेरे गले पड़ जाऊँ तब तू कुछ भी ना कर पाएगी।

‘तेरी हड्डियां ना तोड़ दूंगी?’

“पर इसके लिए तो तुझे मेरे पास आना पड़ेगा। और शास्त्रों में तो लिखा है ना कि तू मुझे छू नहीं सकती।’ नानी तपाक से एक लंबा डंडा दिखाते हुए बोली-

‘यह किस दिन काम आएगा?’

‘तो फिर तेरे सिवा इन ऊंट जैसे दरख्तों पर कौन चढ़ेगा?’ वह पूरे आत्मविश्वास के साथ कहती-

‘इनके बिना भी रह लूंगी मैं।’

‘इसका मतलब तो यह हुआ नानी कि तू खाने के बिना रह सकती है पर मुझे छूना तुझे गवारा नहीं।’ तब नानी का तपाक उत्तर होता-

‘खाने के बिना रहे मेरे दुश्मन।’

‘अच्छा नानी एक बात तो बता, वह सब्जियाँ जो मैं तुझे तोड़ कर दे रही हूँ, यह भी तो मुझसे छू गई है। फिर इससे तेरा धर्म भ्रष्ट ना होगा। मतलब भूख से समझौता ना करोगी तुम धर्म के लिए।’ ‘तू धर्म को बीच में ना ला। चुपचाप इन्हें तोड़। चुपचाप इन्हें तोड़ कर दूर से ही मेरी झोली में फेंक दें।’ और नानी की फेल आई पुरानी-सी झोली और उसमें दूर से ही थोड़ी फेंकी हुई सब्जियाँ फेंकते हुए लाडो को लगने लगता, अब वह अछूत है और मैं शास्त्रों का पालन करने वाली ब्राह्मणी।

जब से लाडो ने होश संभाला था नानी हमेशा उसके घर के नल से ही पानी भरा करती थी। अपनी बहुओं के नल का पानी उसके लिए हराम था। वे जीते जी उनका कोई एहसान ना लेना चाहती थी। वह कहती कि जब बहुओं की बातें सुनकर अपने पेट से जने बेटा ने ही अपना मन पत्थर कर लिए और तरह-तरह के लांछन लगाना शुरू कर दिया तो उसे उनकी किसी भी चीज से कोई लेना-देना नहीं। अब भी पानी आते ही लाडो सबसे पहले भागकर नानी को बता आती पर उससे पहले ही नानी आदतवश नल को देखने के ना जाने कितने चक्कर काट चकी होती। लाडो के बार-बार मना करने पर भी कि मैं पानी आते ही बता दूंगी, वह चक्कर काटना बंद ना करती। पानी आते ही एक बार में ही पांच-छ: बर्तन ले आती। फिर लाडो अपने बर्तनों को एक तरफ कर उसके लिए नियमानुसार स्थान खाली कर देती। तब वह बडे जतन से नल को दब घास से मलमल कर धोती और फिर एक-एक कर बर्तनों को धोने लगती। लाडो उसकी यह सारी क्रिया कुछ दूरी पर बैठकर देखती रहती। एक तो पानी आता ही कम था, ऊपर से नानी की इस पूरी प्रक्रिया में घड़ों पानी बह जाता। फिर लाडो ही उसे याद दिलाते हुए कहती भर भी लो नानी कब तक यूं ही टोटके करती रहोगी। पानी चला गया तो फिर ना कहना कि मेरे तो सारे बर्तन खाली ही रह गए। क्योंकि ऐसा उनके साथ कई बार हो चुका था। जब वह पानी भर लेती तो आक या ब्रैकड़ की हरी डालियाँ तोड़कर बर्तनों को ढक देती और थोड़ा-थोड़ा कर दिन भर ढोती रहती। लाडो ने कई बार उसे समझाने की कोशिश की-

‘मेरी हाथ की तोड़ी सब्जियाँ तू खा लेती है, आटा खत्म हो जाने पर आटा भी मांग ले जाती है, दूध भी ले जाती है मेरे हाथ से चुने आम, अमरूद कामा, आडू और जामुन भी। फिर अगर तेरा यह पानी तेरे घर पहुंचा आऊं तो हर्ज ही क्या है। मैं दस फीट की दूरी पर रख दूंगी तू उठा लेना। पर वह पानी पर तो लाडो की परछाई भी ना पड़ने देती। ना जाने पानी के मामले में उसके शास्त्रों का कौन-सा नियम आड़े आ रहा था। कभी ना मानी वह। एक दिन अचानक जब नानी पानी भरकर उसे पत्तों से ढक कर चली गई तो कुछ समय तक वापस नहीं लौटी। लाडो ने क्या देखा कि एक कौवा उसकी मटकी पर आ बैठा और अपनी चोंच से पत्तों को हटाने लगा। लाडो के गांव में पानी की इतनी किल्लत थी कि पानी की थोड़ी-सी बर्बादी देखकर खून खौल उठता था। उसने दौड़कर कौवे को तो उड़ा दिया पर अब मटके को नंगा देखकर उससे रहा नहीं गया। साथ ही उसने सोचा कि नानी तो देख नहीं रही है अगर मैं पानी को फिर से ढंक दूं तो उसे क्या पता चलेगा वैसे भी अभी कौवा उस पानी को झूठा नहीं कर पाया था। नानी के मन में कोई बहम ना आए इसलिए उसने ऐसा करने का निर्णय ले लिए। पर वह यह भूल गई थी कि नानी ने चाहे कोई शिक्षा ग्रहण ना की हो पर आहट पाने में पीएच.डी. कर रखी थी। उसे तो आज तक समझ में नहीं आया कि नानी ने उसे अपने घड़े को छूते हुए कैसे देख लिए था क्योंकि उसने तो अपनी ओर से पूरी सावधानी बरती थी। ना जाने उसने लाडो को कब देखा और दूर से ही आग बबूला हुए गालिरों की बौछार करते हुए आ दमकी थी। लाडो के तो पांव से कुछ पल के लिए जैसे जमीन ही खिसक गई। ऐसा लगने लगा जैसे उसने कोई बहुत बड़ा अपराध किया हो, किसी की हत्या से भी बड़ा नानी ने ऐसा किस आवेश में आकर किया वह नहीं जानती पर उसने नानी के ऐसे रूप की कभी सपने में भी आशा ना की थी। वह समय ही ऐसा क्रूर था कि ना जाने गुस्से में लाडो ने भी उसे क्या-क्या कह दिया। यहां तक कि यह भी कह दिया कि-

अगर तू इतनी साध्वी ब्राह्मणी है तो आइंदा ना आना मेरे घर, ना ही मेरे नल पर। और उन दोनों ने एक-दूसरे से मुंह मोड़ लिया।

वक्त भी कितना बलवान होता है ना। अभी कुछ पल पहले उनमें उम्र, जाति के मीलों फासले होने के बावजूद भी एक थी। उनकी पीड़ा, हंसी खुशी को सब एक है और अब एक ही पल में उन में मीलों की दूरियों ने अपना रंग दिखा दिया और भी स्पष्ट हो गई पक्की सड़कों के समान। नानी नहीं आई, एक-दो दिन नहीं कई दिन बीत गए। लाडो की तो पूरी दिनचर्या ही जैसे असंतुलित हो गई थी। दिन का जितना समय नानी के संग बीतता था अब काटे ना कटता था। जैसे नानी उसके जीवन का एक हिस्सा बन गई थी। अब ऊपर से कठोर बने रहने के बावजद राह में आते-जाते वह नानी की टोह लेने लगी। उसका दिल उससे ही आंख मिचोली करने लगा। ऊपर-ऊपर से सोचती मुझे क्या जरूरत है इस बुढ़िया की। रूठती है तो रुठती रहे। खुद ही तो उसने मुझे नाता तोड़ा और वैसे भी मेरा उससे नाता ही क्या था और मुझे जो उसने अपमानित किया उसका क्या। क्या वह सब मैं कभी भूल जाऊंगी? कभी नहीं। और कल को जब वह ना होगी तो क्या मैं जिंदा ना रहूंगी। परंतु फिर दिल उससे ही सवाल करने लगता क्या गलती सिर्फ उसकी थी, तेरी ना थी? क्या तू उनके नियम शास्त्रों के कड़ेपन को ना जानती थी? जिन नियमों का पालन करना उसके खून में समा चुका है उसे वह पल में भूल जाती? या तू क्या यह भूल गई कि जब तेरी अपनी जात वाले भी तेरे बुरे वक्त में तुझे अछूतों की तरह पराया समझते थे, कभी तेरे साथ एक मीठा बोल न बोल पाए तो वही थी जो तझे देख कर खिल उठती थी। तझे लाडो-लाडो कहकर पुकारते हए उसके चेहरे पर आंतरिक घृणा का कभी एक चिन्ह तक ना देखने को मिला। तेरे जीवन की तपती दोपहरी में वर्षा की बूंदे बन कर तुझे बार-बार कौन शीतल करती रही? नानी या वे लोग जो कहने के लिए तो तेरे अपने सगे संबंधी और तेरी जात के हैं। अरे तू खुद ही तो सोचती है कि जहां प्रेम होता है वहां जाति, धर्म की बातों में नहीं उलझना चाहिए। प्रेम घृणा से बहुत बड़ा होता है। यदि प्रेम है तो घृणा के कारणों और साधनों को हमेशा के लिए भूल जाना चाहिए। यदि वह तुझे नहीं छूना चाहती तो क्या हुआ। इसमें इतना क्रोध दिखाने की कौन-सी बात है? यही ना कि क्या मैं इंसान नहीं हूँ? पर इंसानियत का रिश्ता तो आत्मिक होता है शारीरिक नहीं और दुनिया में केवल एक इंसानियत का ही तो रिश्ता होता है जो निस्वार्थ होता है। और वैसे भी अपराधी तो तू भी है, क्या तेरे मन में चोर ना था? क्या तू नानी के नियमों को तोड़ कर यह ना देख लेना चाहती थी कि ऐसा करने से क्या होता है? और तुम एक क्रूर संतुष्टि पा लेना चाहती थी।

अपनी गलती का अहसास होते ही लाडो के मन का अहंकार छुमंतर हो गया। कई दिनों से नानी के प्रति एक विमुखता से भरी थी, पर अब ना जाने क्यों उसी पल नानी से मिलने को मन मचल उठा। याद आया कि कितने दिन से तो नानी पानी भरने नल पर भी नहीं आई। इतने दिनों कहां से लाती होगी पानी। गुस्से में मुझसे कितना बड़ा अपराध हो गया। उसने सालों से मुझे ममता देकर सींचा और उसे ही मैंने निगोड़े पानी तक के लिए तरसा दिया। नानी मुझे कभी क्षमा नहीं करेगी। उसी वक्त लाडो के कदम नानी की कोठरी की ओर बढ़ गए। यह सोचे बिना की परिणाम क्या होगा। कोठरी के पास पहुंच कर उसने नियमानुसार कुछ दूर से ही चारों ओर का मुआयना कर लिए पर नानी कहीं ना दिखी। फिर मन में तरह-तरह के ख्याल आने लगे कि नानी कहीं हमेशा के लिए अपने पुश्तैनी गांव तो नहीं चली गई? जहां बेचारी की सुध लेने वाला अभी था कौन? पर कोठरी के दरवाजे पर नजर टिकते ही एक सुकून मिला, ताला नहीं जड़ा था। अब पूरा विश्वास हो गया कि नानी यहीं कहीं है। क्योंकि वह अकसर नहर पर कपड़े धोने जाया करती थी। तो लाडो ने जल्दी से नहर जाने का सामान्य रास्ता ना पकड़कर नानी द्वारा बनाई गप्त पगडंडी को चुना। जिस पर चलकर नहर पहुंचना कोई कम चुनौती नहीं थी। कभी उबड़ तो कभी खाबड़ और जनाब बीच-बीच में आने वाली गुलकनियों को पार करना तो साड़ी के लिए लगाई गई फाही से बच निकलने के हुनर से कम ना था। और राह में ककोए के सूलीदार कांटे, पुछिए मत। सूलिरों को मात देने वाले पैतरेबाज से भी उनसे सही-सलामत बच कर नहीं निकल सकते थे। लाडो की समझ में पहले यह कभी नहीं आया था कि नानी ने सीधा साधा रास्ता छोड़कर यह कांटों वाला रास्ता क्यों बनाया। खैर जो भी हो उस रोज लाडो को उस रास्ते पर चलने से नानी ने ही बचा लिए।। अभी उसने उस पगडंडी पर चलना आरंभ ही किया था कि दायिनी और नानी द्वारा बनाए छोटे-से बाग में कुछ हलचल हुई। पगडंडी को वहीं छोड़ उसने नानी के बाग के अंदर झाका तो देखा नानी एक लंबे से डंडे के साथ इमलिणं झाड़ने के भरसक प्रयास में लगी है। लाडो के कदम ठिठक गए। वह नानी को पहली की तरह पुकारना चाहती थी पर शब्द चुक गए, जुबान पर आने से पहले ही हलक में जब्त हो गए। वहां होकर भी ना होने की निरर्थकता घेरे थी। घर से जिस जोश के साथ वह निकली थी, नानी के सामने पढ़ते ही छूमंतर हो गया। सफेद वस्त्रों में नानी आज सच में उसे एक साध्वी-सी जान पड़ी। लाडो को अपने अपराध पर क्रोध आने लगा। बड़ी हिम्मत करके उसने अपने गले में खांसी पैदा की और फिर अपनी ही आवाज से घबराकर जीभ काटते हुए सांस रोक ली। नानी की जैसे तपस्या भंग हुई हो। मुड़कर उसकी ओर देखते हुए मुस्कुरा कर बोली।

लाडो तू है? वहां क्यों खड़ी है अंदर लांघ आ।’ नानी की ऐसी पुलकित ध्वनि सुनकर लाडो को तो जैसे मुंह मांगा वरदान मिल गया हो। नानी के बनाए बाग के उस छोटे से बांस को लांघना जहां लाडो के लिए पहाड़ हो आया था उसे नानी ने पल भर में ही धराशाई कर दिया। मानो नानी के लिए तो कुछ हुआ ही ना था। नानी भरी दुपहरी में इमलियाँ झाड़ते-झाड़ते पसीने से तर हो आई थी। लाडो ने एक पल की भी देरी किए बिना अंदर लपकते हुए कहा-

‘तू छोड़ ना नानी मैं अभी ऊपर चढ़कर देख कैसी ताजी-ताजी इमलिणं तोड़ लाती हूं।’ नानी के कुछ कहने से पहले ही लाडो पेड़ के तने का मुआयना करने लगी और नानी एकदम लकड़ी का वही पुराना ठूठ लिए प्रकट हुई। आज पहली बार वे लकड़ी का ठूठ भी लाडो को नानी का कंधा ही लगा और नानी कघीं-कंघी बंधनों के बावजूद सभी रिश्तों से परे अपनी-सी लगी। आज लाडो को इमलियां तोड़कर नानी की झोली में फेंकते हुए किसी क्रुर सुख की अनुभूति जैसा नहीं बल्कि प्रWयु की भांति सच में स्वर्ग से आग चुराने जैसा लगा।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’