आंबेर के राजा जयसिंह की छोटी रानी कोटा की राजकुमारी थी। उसकी यह विशेषता थी कि उसे सादगीपूर्ण रहन-सहन प्रिय था, जबकि जयसिंह उसे साज-सज्जा तथा आभूषणों से लदी देखना पसंद करता था।
एक दिन जयसिंह ने बातचीत के दौरान छोटी रानी से कहा, “तुम्हारे वस्त्रें और आभूषणों से तो नगर की साधारण स्त्रियाँ भी अच्छे वस्त्रदि पहनती हैं। तुम तो उनसे भी हीन मालूम पड़ती हो।” किन्तु रानी मौन ही रही। उसने उसे अनसुना कर दिया। इससे राजा को गुस्सा आ गया और उसने एक काँच का टुकड़ा उठाकर रानी के वस्त्र फाड़ने के लिए हाथ बढ़ाया। यह देख रानी का स्वाभिमान जाग उठा। उसने फौरन राजा के म्यान की तलवार निकालकर आवेशपूर्ण शब्दों में कहा, “स्वामी, मैंने जिस वंश में जन्म लिया है, वह इस प्रकार के उपहास को कदापि सहन नहीं कर सकता। यदि आपने पुनः कभी मेरा अपमान करने की चेष्टा की, तो उसका परिणाम अच्छा न होगा। आपको मालूम हो जायेगा कि आंबेर के राजकुमार काँच का टुकड़ा चलाने में उतने प्रवीण नहीं होते जितनी प्रवीण कोटा की राजकुमारियाँ तलवार चलाने में होती हैं।’ राजा जयसिंह की भयभीत मुद्रा देखकर वह आगे बोली, “कोटावंश की किसी कन्या का भविष्य में कभी भी अपमान न हो इसीलिए मुझे ऐसा मजबूरन करना पड़ा है।”
जयसिंह भयभीत तो हो ही चुका था। उसने रानी से क्षमा माँगी और प्रतिज्ञा की कि वह भविष्य में उसका अपमान न करेगा और उसने इस वचन को भलीभाँति निभाया।
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