भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
मैलारलिंग प्रदेश का राजा वीरभद्र बडा ही सुंदर, पराक्रमी और रसिक व्यक्ति था। अपने शौर्य और प्रशासन की कुशलता से चारों ओर के राज्यों पर आक्रमण करके खुद के राज्य का विस्तार किया हुआ था। जो भी राजागण युद्ध में हार जाते, हारे हुए राज्य और राज्य संपत्ति के साथ-साथ अपनी राजकुमारी को भी राजा वीरभद्र से ब्याह कर देते थे। बड़े ही शान और वैभव से राजा वीरभद्र अपनी राज्य का बागडोर संभालते हुए रनिवासों में अनेक रानियों का अधिपति बना हुआ था। इसी बीच वह अपने सैन्य दलबल के साथ पास के राज्य देवगिरी पर चढ़ाई करता है और विजयी भी होता है। देवगिरी की राज्य संपत्ति के साथ-साथ राजकुमारी गिरिजा को भी ब्याह कर अपनी राज्यसीमा में प्रवेश करता है।
रानी गिरिजा अत्यंत ही सुंदर, सुशील, चाणाक्ष, अभिमानी स्त्री रहती है। राजा उसके व्यक्तित्व से पूरी तरह मोहित होकर उसकी हर बात को मानते हुए उसके व्यवहार को पूरी स्वतंत्रता दिया रहता है। रानी गिरिजा भी अपने व्यवहार और वाक्-कौशलता से राजा वीरभद्र की चहेती रानी बनी रहती है। राजा वीरभद्र और उसकी प्रिय रानी गिरिजा के इस अन्योन्यता और स्नेह प्यार को देखकर अन्य दूसरी रानियाँ जलभुन जाती थी। वे किसी न किसी मौके की तलाश में रहती ताकि वे छोटी रानी गिरिजा की गलती को पकड़े और राजा के सम्मुख उसकी निंदा करे और उसके चरित्र पर बट्टा लगाये। अपने इस प्रयत्न में वे हर बार हार जातीं और मन मसोसकर रह जाती थी। राजा वीरभद्र की चहेती रानी गिरिजा थी ही इतनी सुंदर और सुशील और होशियार कि हर कोई उसकी राय का कायल होता और राजा उस पर फिदा! लेकिन होनी को कौन टाल सकता है? रानी गिरिजा के भाग में भी दुख और बदनामी के दिन विधाता ने पहले ही लिख दिए थे। भाग की मारी रानी को भी अथाह दुख और समस्याओं का सामना करना पड़ा। जब भाग ही बुरा हो तो गिरिजा रानी की होशियारी और वाक्पटुता, कुशाग्र बुद्धि की एक ना चली। उसे राजमहल से बाहर निकल जाना ही पड़ा। अर्थात बात यह हुई कि राजा वीरभद्र ने दूसरी रानियों की बात मानकर अपनी चहेती पत्नी की परीक्षा लेने की ठान ली।
रानी गिरिजा बडे लाड-दुलार से पली-बढी थी। देवगिरी राजा की इकलौती कन्या होने के नाते माता-पिता ने उसे अत्यंत ही लाड़-दुलार से पाला-पोसा था। बचपन में एक बात भी उसकी टाली नहीं जाती थी उसकी हर इच्छा को बिना नागा पिता पूरा करते जाते। लड़कपन से ही उसे गुड्डा-गुड्डियों के साथ खेलने का बड़ा शौक था। वह अपनी सखियों के संग नाना प्रकार के गुड्डा और गुड्डियों के खिलौनों को लेकर ब्याह के खेल तीज-त्योहारों के खेल उत्सवादियों के खेल रचकर खेलती और आनंद से फूली ना समाती। सुंदर खिलौनों के साथ खेलने का उसका यह मोह वय के साथ-साथ कम नहीं हुआ था। वह राजा वीरभद्र से ब्याहकर आने के पश्चात् भी सुंदर रंगीन गुड्डे-गुड्डियों को इकट्ठा करने और उन्हें देखकर आनंद का अनुभव करने के स्वभाव को छोड़ नहीं पाई थी। जहाँ कहीं भी उसे गुडियों की दुकान का सजने का पता चल जाता तो वह आव देखती न ताव उन्हें खरीदने अपनी दासियों के संग निकल ही पड़ती। उसके इस स्वभाव का गुडियों के साथ के मोह की बात का पता पटरानी को लग जाता है। मौके की ही ताक में बैठी अन्य रानियाँ भी अपनी सौत रानी गिरिजा को राजा वीरभद्र के सम्मुख नीचा दिखाने का षड्यंत्र रचने लगती हैं। अन्य रानियों के द्वारा रचे जा रहे इस षडयंत्र से बेखबर रानी गिरिजा अपने ही धुन में मस्त गुड्डा-गुड्डियों को सजाने में अनेक प्रकार के खिलौनों को इकट्ठा करने में मगन रहती है। राजा वीरभद्र भी उसके इस चाहत से मुग्ध होकर अनेक प्रकार के खिलौनों को अलग-अलग राज्यों से मंगवाकर भी देते रहते हैं। लेकिन आगे घटना यह घटती है।
कार्तिक माह के पूनम की रोज मल्हारलिंगेश्वर की जत्रा सजती है। मल्हारलिंगेश्वर की पूजा अर्चना के लिए राजमहल से रानियों की डोलियाँ निकल पडती हैं साथ में महाराजा वीरभद्र गाज-बाजे के साथ मल्हार पर्वत की ओर निकल पडता है। पूनम की शाम पूजा और अर्चना के पश्चात् रानी गिरिजा अपनी इच्छा के अनुसार जत्रे में सजे बाजार देखने और रंगबिरंगी दुकानों से सुंदर आल्हादमय लकड़ी के बने रंगीन वस्त्रों से अलंकृत गुड़ियों को खरीदने, राजा से अनुमति लेकर निकल पड़ती है अपनी दासियों के संग। विविध प्रकार कि वस्तुओं और वस्त्रों से सजे दुकानों को देखते-देखते रानी की नजर सुंदर मनमोहक खिलौनों से सजे अत्यंत ही रमणीय एक विशाल दुकान पर पडती है। रानी गिरिजा खुशी से फूल जाती है। पूर्णिमा की रात में मिट्टी के दिये की उजियारी में दुकान पर सजी गुडियों का रूप देखकर रानी की आँखें विस्फारित हो जाती हैं और आश्चर्य की मुद्रा में वह खड़ी की खड़ी रह जाती है। तभी दुकान का मालिक अपने खिलौने की बिक्री के लिए आवाज देने लगता है और सामने खडी रानी से अपने यहाँ उपलब्ध हर गुड्डे-गुडियों की विशेषता बताते हुए चालाक व्यापारी के अंदाज में उनका मोलभाव करना शुरू करता है।
देखिये यह है सिंह देवगिरी का, जो चिंघाडता है तो दस-दस हाथियों को पछाड़ देता है। यह देखिये भालू, सियार और खरगोश, जरा इन्हें देखिये, यह है साजा-बाजा ब्याह का दूल्हा-दुल्हन के साथ, यह है बारात, पालकी में सजी है रानी और आसन डोलाती दासियाँ। लेकिन दुकानदार देखता है कि रानी गिरिजा की नजर तो उन जोडी गुड्डा और गुड्डियों में ही अटकी हुई है जो राजा वीरभद्र और स्वयं रानी गिरिजादेवी के प्रतिरूप बनकर सजे खडे हैं। उन्हें ही रानी एकटक नजरों से देखे जा रही है। चालाक व्यापारी झट उन गुड्डों को हाथ में लेकर रानी के नजरों के पास ले आकर कहता है- “ये हैं गुड्डे अपने राजा-रानी के, यह है राजा वीरभद्र और रानी गिरिजादेवी “पनम की चाँदनी की रोशनी में दिपदिपाते. राजा-रानी के राजपोषाक में सजे उन गुडियों को रानी देखते ही रह गयी। रानी का भाव ताड़कर दासियाँ व्यापारी से मोलतोल में जुट गई। लेकिन व्यापारी है कि दासियों के सवालों का जवाब तक देने को तैयार नहीं। बस कह दिया कि मैं सिर्फ आपकी रानी से इनकी कीमत लूँगा। रानी गिरिजा ने दुकानदार के समीप पहुँचकर इशारे से पूछा तो व्यापारी ने रानी के नजदीक सरक कर यह कहा- “महारानी इन गुडियों का कीमत नकद पैसा नहीं बोसा है, तीन बोसा दोगी तो मैं इन्हें अभी आपके हवाले कर दूंगा” यह सुनकर रानी का चेहरा फक् पड गया। भय से अगल-बगल झांकने लगी, कहीं दासियों ने दुकानदार के प्रस्ताव को ताड़ तो नहीं लिया। चाहती तो रानी अभी सैनिकों को आज्ञा देकर उसे बंदी बनवा सकती थी। लेकिन पता नहीं कौन-सा आकर्षण उन गुड्डों का उसे यह करने से रोके रक्खा। देखते ही देखते रानी ने अपने घूघट की आड में झट-झट-झट तीन बोसे उस व्यापारी के गाल पर दे दी और तुरंत उन गुड्डों को अपनी साड़ी के पल्लू में छुपाकर वहाँ से निकल ही पड़ी।
सुंद सुशील, बुद्धिमान, चहेती रानी गिरिजा का पोल खुल गया। दुकान के परदे की आड़ में छिपी बैठी रानियाँ व्यापारी के भेस में सजे राजा वीरभद्र के सम्मुख नैन मटकाती आकर खडी हो गयीं। राजा है कि खिन्न-सा मुँह लिए अपने गाल पर रानी के बोसों के बेस्वादपन को अपनी ही उँगलियों से कुरेदता रह गया।
रनिवास में चल रहे इस षडयंत्र से बेखबर रानी गिरिजा मैलारलिंगेश्वर के जत्रे से तीन बोसे के बदले में लाई गुड्डा-गुड्डि को अपने कक्ष में सजाकर उन्हें देख-देख कर खुश हुए जा रही थी। गुडियों की अत्यधिक चाहत और उनके सौन्दर्य से मोहित रानी को बोसे की बात मायने नहीं लगी। वह राजा वीरभद्र के आने के ही इंतजार में थी, ताकि वह उन सुंदर गुड्डों को उन्हें दिखाये और आनंद से फूले ना समाये। राजा वीरभद्र ने प्रवेश तो किया रानी गिरिजा के कमरे में लेकिन उसके मन में कुछ और ही बात पक रही थी। आते ही उन्होंने रानी से यह कह कर संबोधित किया “मेले में तीन बोसा देकर गडिया खरीदने वाली रानी” सनकर रानी गिरिजा हकबका गई। बार-बार राजा इन्हीं संबोधन के व्यंग्य बाणों से उसे घायल करता चला गया। रनिवास में अन्य रानियाँ उसे देख-देखकर हंसती और राजा के मन में उसके प्रति जगे अप्रिय भाव को और हवा देती। लेकिन रानी गिरिजा साध गरण स्त्री नहीं थी। उसने अपने मन में कोई भी मलाल या कलेश नहीं पाला था। वह हार मानने वालों में से भी नहीं थी। उसने भी ठाना कि वह राजा को सही पाठ पढ़ायेगी। वह उसी क्षण राजा को सही पाठ पढ़ाने के उद्धेश्य से राजमहल से निकल पडी। राजा का मन भी रानी गिरिजा से रूठा-रूठा था। वह रानी के व्यवहार के बदले उसके प्रति बार-बार हास्य और व्यंग्य से रानी गिरिजा के तीन बोसे देकर गुड़िया खरीदने के किस्से को ही दुहराता। आखिरकार रानी गिरिजा ने भी ठान लिया और रनिवास से निकल पड़ी।
मैलारलिंग राज्य की बाहरी सीमा में कोई कौमुदी नाम की नर्तकी के आकर बसने की खबर राजधानी भर में फैल जाती है। नर्तकी के हाव-भाव का, उसके सौन्दर्य का और उसके मोहक व्यक्तित्व की चर्चा राजा वीरभद्र के कानों तक भी पहुँचती है। नर्तकी के नाच को देखने के लिए वह उतावला होता है और नर्तकी के पास अपने गुप्तचरों को भेजकर अपने आने की और उसके नृत्य को देखने के प्रस्ताव को रखता है। राजा के गुप्तचर जब उसकी इच्छा को नर्तकी के सम्मुख रखते हैं तब वह नर्तकी यह कहलवा भेजती है कि “वह राजा वीरभद्र का सहर्ष स्वागत करेगी और अपना नृत्य भी पेश करेगी। लेकिन इसके लिए उन्हें मेरी एक शर्त माननी पडेगी। मेरे नृत्यमहल में आने के पश्चात् ही राजा के सामने उस शर्त की बात रखूगी!” नर्तकी कौमुदी का सौन्दर्य और नैपुण्यता की चर्चा सुनकर व्यामोहित राजा वीरभद्र उसकी हर शर्त को मान जाता है और अगले ही दिन नर्तकी के बिडार में प्रवेश कर जाता है।
नर्तकी कौमुदी राजा के आते ही बड़े ही शान-शौकत से उसका स्वागत करती है। यूँघट में अपने चाँद से चेहरे को ढ़की कौमुदी को देखकर राजा वीरभद्र एकटक देखते हुए उसकी ओर खिंचा चला जाता है और उसके अद्भुत नृत्य को देखने की अभिलाषा प्रगट करता है। लेकिन नर्तकी राजा से अपनी शर्त की याद दिलाते हुए कहती है- “हे राजा… मैंने आपसे एक शर्त का प्रस्ताव भेजा था। अगर आप उस शर्त की पूर्ति करेंगे तभी मैं आपके सम्मुख नाचूँगी अन्यथा नहीं।” राजा कौमुदी की मधुर वाणी, आकर्षक रूपलावण्य से मोहित हो जाता है और तपाक् से कह डालता है- “हे नर्तकी कौमुदी हमें आपके एक नहीं सारी शर्त मंजूर है। बस तुम अपना चेहरा और नृत्य हमें दिखा दें … हम बेकाबू हैं तुम्हारे नृत्य को देखने के लिए।” नर्तकी कौमुदी इसी ताक में रहती है कि कब राजा अपनी शर्त मानने के लिए तैयार हो और वह अपने मन की मुराद पूरी कर ले। राजा से वह फिर कहती है- “हे राजा! मै आपके सामने नाचने के लिए बस एक ही शर्त पर तैयार हूँ, आपको आज मेरे यहाँ मछली की खीर खानी होगी। अगर आप मछली की खीर खाने के लिए तैयार हो जायेंगे तो मैं भी आपके मन की अभिलाषा पूरा करने के लिए राजी हूँ!! तब राजा पशोपेश में पड़ जाता है।
अगर मछली की खीर खाऊँगा तो बदनामी होगी। लेकिन अगर मना कर दूं तो नर्तकी के नाच देखने से वंचित रह जाऊँगा। कुछ देर विचार कर नर्तकी से कहता है- “ठीक है नर्तकी कौमुदी, मैं तुम्हारे नाच का आनंद उठाने के लिए मछली की खीर खाने के लिए राजी हूँ। लेकिन मेरी भी एक शर्त है। तुम्हें इस बात को राज ही रखना होगा। मेरे और तुम्हारे सिवा दूसरे किसी को भी इस बात की भनक तक ना लगे। तभी मैं राजी हूँ मछली की खीर खाने के लिए।” राजा की हामी सुनने की ही देरी थी। कौमुदी चांदी के गिलास में मछली की खीर ले आयी और बडे ही अदा से गिलास राजा के हाथ में थमाते हुए पीने के लिए आग्रह करने लगी। अनमने मन से राजा गिलास मुँह के पास ले जाता है, लेकिन आश्चर्य! गिलास दूध के खीर से लबाबल भरा हआ रहता है और उसमें मछली के बजाय मछली के आकार के सेवई के टुकड़े तैरते रहते हैं। राजा वीरभद्र आनंदित होकर उस पूरी खीर को पी जाता है और रातभर मदहोशी भरे भाव से नर्तकी का नृत्य देखकर वहीं सो जाता है। उसे पता ही नहीं चलता कि कब नर्तकी कौमुदी उस डेरे से बाहर निकलकर जा चुकी है।
दूसरे दिन राजा के गुप्तचर उन्हें राजमहल पहुँचा जाते हैं। वहाँ राजा वीरभद्र क्या देखता है? उसके आश्चर्य की कोई सीमा ही नहीं रहती। रानी गिरिजा अपने रनिवास में बैठी हुई है, मुखपर मंदहास बिखेरे अपने गुड्डों से खेल रही है। राजा के कक्ष में आते ही तपाक से उठ खडी होती है और ठठाकर हँसते हुए उसकी दोनों हथेलियों को अपने हाथों में लेते हुए कहती है- “पधारिये राजा वीरभद्र… क्यों राजा… पी आये मछली की खीर… स्वाद भला कैसा था मछलियों का?” रानी गिरिजा के मुख से इन बातों को सुनने की ही देरी थी, राजा वीरभद्र सारा वृत्तांत समझ जाता है। रानी गिरिजा के चाँद से मुखडे को अपने हथेलियों में भरकर कहता है- “हे गिरिजे मैं मान गया तुम्हारी होशियारी को, बोसों का बदला मछली की खीर से चुकाया, मुझे माफ कर दो गिरिजे, आइंदा मुझसे ऐसी गलती कभी नहीं होगी” बस और क्या था, रानी गिरिजा अपने पति राजा वीरभद्र के साथ आनंद और उल्लास से राजमहल में वास करने लगती है। रानी गिरिजा से जैसा पाठ राजा वीरभद्र ने पाया वैसी ही सीख हम सबको भी मिले! (‘बोसे’- चुम्बन)
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
