भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
बजरंगी जब त्रिलोचन के ऑफिस पहुँचा, उस समय शाम के छह बज रहे थे। सभी अफसर–बाबू और चपरासी जा चुके थे। एक छोटा अफसर, एक बाबू और एक चपरासी मौजूद थे। कल दिल्ली से कोई बड़े साहब निरीक्षण के लिए आने वाले थे। अनुकूल रिपोर्ट पाने के लिए जो आँकड़ेबाजी की जा सकती थी, वह की जा रही थी।
अब क्या हो? कहाँ जाये बजरंगी? त्रिलोचन ने अपना किराये वाला कमरा बदल दिया था। पड़ोसियों को भी त्रिलोचन ने अपना पता नहीं बताया था। कल सबेरे दस बजे ‘इस्टैबलिशमेंट सेक्शन’ से उसका पता मालूम किया जा सकता था, बशर्ते उसने नया पता लिखवाया हो। सरकारी नियम के अनसार उन्हें एक-दसरे के पते जानने की कोई अनिवार्यता न थी। ऑफिस कल्चर भी यही कहता है कि वहाँ कार्यरत प्राणियों को अपने साथियों के पते तभी ज्ञात होते हैं जब उनके घर कोई फंक्शन हो, शादी-ब्याह, बर्थडे, मुंडन या फिर घर से किसी की अंतिम यात्रा निकले।
बजरंगी और त्रिलोचन एक ही गाँव के हैं। दोनों ने इण्टर तक साथ-साथ पढ़ाई की। प्राइमरी से इंटर तक। दोनों में गाढ़ी मित्रता थी, लेकिन जब त्रिलोचन की नौकरी लग गयी, तो बजरगी में जैसे हीन भावना घर कर गयी। कभी-कभी त्रिलोचन से उसे ईर्ष्या होने लगती। कायदे से तो यह नौकरी बजरंगी को मिलनी चाहिए थी। उसने इण्टर सेकेंड डिवीजन से किया था, जबकि त्रिलोचन ने हमेशा की तरह ‘रायल’ डिवीजन में। बजरंगी ने प्राइवेट बी.ए. भी कर लिया था। दूसरे, बजरंगी भूमिहीन मजदूर का बेटा था, जबकि त्रिलोचन के पिता के पास करीब दो एकड़ जमीन थी।
बजरंगी को उसके माँ-बाप ने शरीर निचोड़-निचोड़ पढ़ाया था। माँ-बाप को भूखे-प्यासे काम करता देख उसका मन होता कि वह पढाई वढाई छोड दे और उनका हाथ बँटाये उन्हें आराम करने दे और कमा कर खिलाये। उसकी भावनाओं को समझ पिता कहते- “अरे बेटा! साल-दो-साल की तो बात है, तुम पढ़-लिख कहीं नौकर हो जाओ, फिर हम लोग जिन्दगी भर आराम करेंगे।”
लेकिन उसके आराम करने के संयोग से पूर्व ही ऊपर वाले ने उसे को श्वास की बीमारी का उपहार दे दिया। नियमित इलाज और परहेज न होने के कारण दो-तीन साल में ही वह जीवन की शोषण-चक्की से मुक्त हो गया। विधवा माँ रोते-रोते अंधी हो गयी। उसकी आँखें तो पहले ही बनवाने वाली थीं, बुढ़ऊ की मौत अन्धे होने का बहाना बन गयी।
तीन-तीन बेटियों के बाप त्रिलोचन के ससुर उसी दफ्तर में सरकारी ड्राइवर हैं, जहाँ त्रिलोचन चपरासी है। एक बेटे के लालच में जब उनकी तीसरी संतान भी लड़की हुई तो उन्होंने पत्नी से छुपाकर अपनी नसबंदी करा ली और बेटियों को ‘बेटा’ कहना शुरू कर दिया। पहली बिटिया की शादी उन्होंने बड़ी धूम-धाम से अपने साहब के डॉक्टर दोस्त के ड्राइवर के लडके से कर दी जो डॉक्टर साहब की प्राइवेट गाडी चलाता था और उम्मीद थी कि वह शीघ्र ही कहीं-न-कहीं सरकारी ड्राइवर हो जायेगा। यह दामाद ‘कमाऊ’ की श्रेणी में आता था, तथापि दहेज की कोई माँग न थी। इसके बावजूद उन्होंने अपनी हैसियत के मुताबिक खूब दान-दहेज दिया था। दूसरी बिटिया के लिए जब वे कोई कामकाजी लड़का पसंद करते, तो दो-ढाई लाख का दहेज आड़े आ जाता। तब उन्होंने ऐसा लडका देखना शुरू किया, जो सस्ते में छूट जाए और इस लायक भी हो कि उसे किसी काम-धंधे में लगवाया जा सके।
त्रिलोचन ऐसा ही लड़का था। विवाह के दो साल भीतर ही उसके ससुर ने अपने साहब के पाँव पड़-पड़ या कहिए कि उनकी नाक में दम कर अपने दामाद को चतुर्थ श्रेणी वाला ‘सरकारी दामाद’ बनवा ही लिया।
बजरंगी खाली घूम रहा था। उसने बहुत जोर लगाया कि कहीं कलम चलानेवाला काम मिल जाए, लेकिन असफल रहा। खेतों में मजदूरी करना उसे बहुत खलता था। एक तो, उससे मेहनत का कार्य सधता नहीं था; दूसरे, दिन भर खटने के बाद मुश्किल से खाने भर का अनाज या पैसे मिलते। कभी-कभी तो वह भी उधार रह जाता। ऐसे में वह क्या खाए–पहने और क्या माँ की देखभाल में खर्च करे? मनरेगा में जब काम मिल जाता तो पैसे तो ठीक मिल जाते लेकिन हाड़तोड़ मेहनत के चलते दो-तीन दिनों में वह बुखार में पड़ जाता। किसी तरह गांव के बड़े घरो के लड़को को ट्यूशन पढ़ाने का जुगाड़ बिठाया- चार लड़के और तीन लड़कियाँ थी। हर एक से तीन सौ महीना! कुछ राहत मिली।
शहर में वह किसी नौकरी (चपरासी की भी) की ओर ललचा रहा था। इस सिलसिले में वह त्रिलोचन से दो-तीन महीने में एक बार अवश्य मिलता। वह सीधे उस कमरे पर चला जाता जहाँ त्रिलोचन और उसकी पत्नी रहा करते थे।…
आज जब वह वहाँ पहुँचा तो कमरे पर ताला पड़ा था। पड़ोस में पूछने पर पता चला कि उन्होंने कमरा खाली कर दिया है। कहीं कालोनी में गये हैं, लेकिन पता नहीं दे गये। वह वहाँ से सीधा ऑफिस पहुंचा था, पर तब तक त्रिलोचन जा चुका था।
बजरंगी रेलवे स्टेशन वापस आ गया। रात नौ बजे की ट्रेन थी। गाँव के पास वाले स्टेशन तक दस बजाती! गाँव तक पहुँचते-पहुँचते ग्यारह साढ़े ग्यारह! तब तक तो गाँव एक नींद सो चुका होगा | गाँव लौटने का उसका मन नहीं हुआ। त्रिलोचन से मिले बिना वापस लौटने का मतलब सौ रुपयों का खून!.. और क्या पता उसने कोई नौकरी तलाश कर ली हो।
गर्मियों के दिन थे। स्टेशन पर ही उसने रात बिता दी । सबेरे आठ बजे वह त्रिलोचन के ऑफिस पहुँच गया। ऑफिस खुलने में अभी दो घंटे बाकी थे। चपरासी लाख जल्दी आयेंगे, मगर कितनी जल्दी? अधिक-से-अधिक आधा घंटा!, उसे कम-से-कम डेढ़ घंटा समय तो काटना ही पड़ेगा।
दफ्तर के पास चाय की एक गुमटी पर उसने दो चाय पीकर एक घंटा अखबार चाटा-आधा घंटा आज का, आधा घंटा कल का। फिर भी आधा घंटा काटे नहीं कट रहा था।..त्रिलोचन के साथ बिताये दिनों में वह खोने लगा। पलक झपकते वह अतीत की धारा में बहने लगा।….दोनों इंटर की पढ़ाई कर रहे हैं। शाम को राधेश्याम सर के यहाँ कोचिंग के लिए कस्बे में किराये के कमरे में दोनों साथ-साथ रह रहे हैं। साथ-साथ पढ़ना, घूमना-खेलना, चोरी से अमरूद, आँवले या करौंदे तोड़ना, पिक्चर देखना और बहानेबाजी में एक-दूसरे की वकालत करना।… मकान मालिक की लड़की को भी साथ-साथ टहलाना और…! अपनी पत्नी को उसने वह सब बता तो नहीं दिया? उस घामड का क्या ठिकाना?….क्या सोचती होगी वह हम लोगों के बारे में।
मन-ही-मन वह त्रिलोचन से कहता है, यार! जल्दी नौकरी लगवा दे, वरना मैं तो कुँआरा ही मर जाऊँगा। अट्ठाइस का तो हो चला हूँ। मेरी उमर वाले के तो दस साल का लड़का है। हर महीने कोई-न-कोई रिश्ता लेकर आता है लेकिन सबको मना कर देता हूँ कि पहले नौकरी फिर छोकरी!. अम्मा तो इतनी नाराज है कि मझसे ठीक से बात भी नहीं करतीं। ठीक ही तो करती हैं। एक तो अन्धी हो गयीं, ऊपर से अभी भी गृहस्थी का काम! मैं लाख हाथ बँटाऊँ, मगर ज्यादातर काम तो उन्हीं को करना पड़ता है। जब देखो, हाथ-पाँव में चोट लग जाती है।
बजरंगी आफिस के गेट के बाहर खड़ा पिछली ज़िन्दगी की किताब में खोया हुआ था कि एक ‘अम्बेसडर’ के हॉर्न ने उसे चौंका दिया। गाड़ी गेट में ‘इन’ हो गयी। वह सोचने लगा, ‘ये अफसर बिना गाड़ी के नहीं चल सकते क्या? उनके जाने-आने पर जितना खर्च होता होगा, उतने में तो चार आदमियों की दिहाड़ी निकल आये । और यह सरकार कर क्या रही है? जब इतनी बेरोजगारी और गरीबी है तो अय्याशी का सामान किसलिए?’ वह व्यवस्था के जाल में उलझने लगा, ‘अगर ये शेयर्ड टैक्सी में चलें, तो चार कारों के बदले एक कार से काम चल जाएगा! यानी, तीन-चौथाई खर्च बचाया जा सकता है।’ वह थोड़ा और अर्थशास्त्री हो जाता, यदि उसी समय ‘खिर–खिर’ करती किसी पुरानी मोपेड ने उसका ध्यान भंग न किया होता- ‘अरे! यह तो त्रिलोचन है!’
- मुबारक हो!
- अरे! इत्ते सबेरे, सब ठीक तो है? त्रिलोचन ने ‘गाड़ी’ रोक ली।
- अमा यार! कल शाम से इंतजार कर रहा हूँ। मकान बदल दिया, बताया भी नहीं! अच्छा, यह कब ली?
मोपेड की हेडलाइट पर वह प्यार से ऐसे हाथ फेरने लगा, जैसे वह, त्रिलोचन की बेटी का सिर हो।
- पिछले हफ्ते! …. लेकिन तू कल से यहाँ कर क्या रहा है?
- अरे यार! पहली गाड़ी छूट गयी, दूसरी से आया। आते-आते पाँच बज गया। कमरे पर गया, तो पता चला कि तुमने उसे छोड़ दिया है और नया पता किसी को नहीं बताया।
- अरे! तो रात भर कहाँ रहे?
- स्टेशन पर, और कहाँ?
- अच्छा, तू यही रुक! मैं अभी गया और अभी आया।
त्रिलोचन ने उस दिन कैजुअल लीव चाही, लेकिन नहीं मिली। साहब से परमीशन लेकर वह वापस गेट पर आया। बजरंगी को नाश्ता करवाया और उसे सिनेमा वगैरह देखकर टाइम पास करने का सुझाव दिया।
बजरंगी को चाय-पानी कराकर जब त्रिलोचन लौटा, दफ्तर सजने लगा था। अफसरों, बाबुओं और बबुआइनों की क्रमश: उपस्थिति से दफ्तर का मन कमल खिलने लगा। चपरासी वृन्द पहले ही आ चुके थे। जैसा कि पूर्व निर्धारित था, दफ्तर के चैनोआराम को आज निरीक्षण का ग्रहण लगा हुआ था। आज दफ्तर सारा दिन अभिनय को समर्पित था- एक-दूसरे की सीटों पर बैठकर चाय भरी दुआ सलामों को तरसते लोगों को आपस में बात करने की फुर्सत न थी। आज का दिन अधिकारियों तथा कर्मचारियों के मध्य पारस्परिक सहयोग एवं सौहार्द की भावना का दिन था। हर जगह साफ-सफाई | मध्यम स्वर में बात-चीत । लंच भी समय पर शुरू हुआ और समय पर ही समाप्त । अन्य दिनों की तरह, न आधे घंटा पहले शुरू हुआ और न आधे घंटे बाद तक चला। बबुआइनों ने भी पूरी तरह कोऑपरेट किया । आज उनके बच्चों तथा हस्बैंडों को अपने-अपने ढंग से अपने-अपने घरों ही में व्यवस्थित होना पड़ा।
बजरंगी ने नून शो पिक्चर देखी- ‘मदर इंडिया’ । पिक्चर देखने के बाद भी वह उसी में खोया हुआ था, क्या ऐक्टिंग थी नर्गिस की, वाह! पर, सुनील दत्त ज्यादा ही ऐग्रेसिव था। लेकिन कुछ हद तक ठीक ही था । हाड-तोड़ मेहनत के बाद भी जब खाने-पहनने के लाले होंगे, तो कोई कब तक तुम्हारी व्यवस्था को ढोयेगा? कभी-न-कभी प्रतिक्रियावादी हो ही जायेगा!… और सरऊ राजेन्द्र कुमार! जैसे, रामजी गइया! अम्मा के पल्लू से बंधे हुए हैं। देख नहीं रहे कि ससुरा कन्हैयालाल कितनी अति कर रहा है? उधर सारा गाँव है कि उसी के पीछे दुम हिला रहा है।… झूठी शान की ख़ातिर मार दिया अपने बेटे को हो गयीं आप मदर इंडिया! हुँह, मदर इंडिया!
‘यही शांति, क्षमा और अहिंसा-बलिदान का पाठ पढ़ा-पढ़ाकर हमें उल्लू बनाया जा रहा है। यह आखिर कौन-सी व्यवस्था है कि अमीर का बेटा पैदा होते ही अमीर और गरीब का बेटा, गरीब! दादा भूमिहीन तो बेटा भी भूमिहीन, बेटा भूमिहीन तो पोता भी भूमिहीन! वाह! क्या लोकतंत्र है? भूमिहीन पैदा होकर भूमिहीन मरने का अधिकार! कितने साल हो गये हमें आजाद हुए, लेकिन रोजी-रोटी के मामले में अभी वहीं हैं, जहाँ दो सौ साल पहले थे। बल्कि पहले अधिक ठीक थे। माना कि तब पैदावार कम थी, लेकिन आबादी भी तो कम थी।… और अब पैदावार बढ़ी दो गुना, पर आबादी चार गुना! कहाँ से पूरा पड़े? ऊपर से बन्दरबाँट के लिए घर-घर एजेन्सी खोल दी–डिसेंट्रलाइजेशन आफ पावर–सत्ता का विकेन्द्रीकरण! हाथों की लम्बाई बढ़ाकर अपनी ही पीठ ठोंक रहे हैं सत्ता के ठेकेदार, चूतिया कहीं के!’
चाय की दुकान पर बैठा बजरंगी अपने आप से बातें कर रहा था। चाय पीने के बाद वह पैदल ही त्रिलोचन के दफ्तर चल पड़ा । पाँच बजे से पहले त्रिलोचन का निकलना संभव नहीं था। अभी चार बज रहे थे।
रास्ते में हैंडलूम की प्रदर्शनी लगी थी। वह उसमें घुस गया । एक-से-एक सुन्दर हैंडलूम के वस्त्र तथा सजावटी सामान बिक्री हेतु प्रदर्शित थे। प्रदर्शनी देख वह फिर सोच में डूबने लगा… ‘यह सामान यहाँ महँगे दामों में बिक रहा है और जिसने बनाया होगा, उसे क्या मिला होगा? मुश्किल से मजदूरी या, बहुत-से-बहुत दस-पंद्रह प्रतिशत लाभ! लेकिन इन बिचौलियों को देखो– बाँस का लैम्प चार सौ का बेच रहे हैं, और खरीदनेवाले खरीद भी रहे हैं। डेढ़ सौ की लुंगी तीन सौ में खरीद रहे हैं!… इन खरीदारों से कहोजरा, गाँव में आओ, खरीदने के ही बहाने- थोड़ा सैर-सपाटा हो जायेगा और यह लैम्प केवल डेढ़ सौ में मिल जायेगा। लेकिन आयेंगे थोड़े ही, इन्हें बिचौलियों को जो पालना है।’
पाँच बजे बजरंगी, त्रिलोचन के दफ्तर के सामने था। कोई आधे घंटे बाद त्रिलोचन दफ्तर से निकल पाया।
जब वे घर पहुँचे तो मिसेज त्रिलोचन अपनी नयी पड़ोसन से उसके दरवाजे पर बातचीत में मशगूल थीं। ऐसा नहीं कि वे त्रिलोचन का आना नहीं जान पायीं, लेकिन वे तुरंत इसलिए नहीं चल पड़ी कि पड़ोसन की नजर में कहीं दब्बू न साबित हो जाय! वे भी आख़िर पढ़ी-लिखी थीं। अगर पापा जल्दी मैरिज न कर देते, तो वे बी. ए. जरूर कर लेती! उनकी बी. ए. करने की साध मन में ही रह गयी। उनकी बड़ी तमन्ना थी कि वे पहले बी. ए. करें फिर बच्चे पैदा करें, जैसा कि आम शहरी लड़कियाँ करती हैं, परन्तु पिता की जल्दबाजी के कारण वे उच्च शिक्षा से वंचित रह गयीं।
बजरंगी को देखते ही त्रिलोचन की पत्नी, शीला ने कहा, ‘अरे भाई साहब, आप! आइए–आइए, अबकी बहुत दिनों बाद आना हुआ? मगर, आज तो आपका हुलिया बड़ा अस्त-व्यस्त है! क्या बात है?’
-क्या बताएँ भाभी! हम कल के आये हुए हैं। आप लोगों ने घर बदला, हमको पता ही नहीं चला। पड़ोसियों को भी शायद आपने नहीं बताया?
-हाँ, वहाँ के लोगों से हम सम्बन्ध नहीं रखना चाहते थे। बड़े प्रपंची थे, अब जाकर पीछा छूटा।
शीला ने चाय का पानी चढ़ा दिया।
त्रिलोचन ने शीला से कहा- कुछ खाना-वाना बना दो, बजरंगी को अभी ट्रेन पकड़नी है। शीला ने आलू उबलने के लिए चढ़ा दिए।
चाय पीते हुए शीला ने कहा, “भाई साहब! अब आप शादी कर लीजिए। माताजी को कब तक खटाते रहेंगे?”
“यही तो मैं भी इससे कह रहा हूँ, लेकिन यह मुझे कुँआरा ही मार देना चाहता है! अच्छा छोड़ो, मैं जब शादी करूँगा, तब करूँगा, तुम लोग मुझे चाचा बनाने में क्यों देरी कर रहे हो?” बजरंगी ने चुटकी ली।
शीला शरमाकर किचन में चली गयी।
नौकरी के मामले में त्रिलोचन, बजरंगी को बताता है कि अब वह उसकी मदद नहीं कर सकता, क्योंकि जिस जगह के लिए उसने साहब से बात की थी, वह मंत्री जी के किसी आदमी के लिए रिज़र्व है। साहब का कहना था कि मंत्री कम-से-कम दो लाख चपरासी जैसे पद के लिए ले लिये होंगे। त्रिलोचन बताता है कि उसके साहब सीधे और ईमानदार आदमी हैं, लेकिन वे मंत्री को तो मना नहीं कर सकते।.. हर जगह यही माहौल है। बड़े अफसरों के घरेलू नौकरों या उनके लड़के-बच्चों को ही फोर्थ क्लास की नौकरी मिलती है। वह अपना उदाहरण देता है- यदि उसे उसके पापा (श्वसुर) न रखवाते तो वह भी तो ऐसे ही घूम रहा होता ।
बजरंगी को लगा कि वास्तव में हम जिसे ‘भ्रष्टाचार’ कहते हैं, वह कभी-कभी भ्रष्टाचार नहीं होता, सामाजिक न्याय की प्रक्रिया होती है बशर्ते वह किसी जरूरतमंद के लिए हो। उसे या उस जैसे किसी व्यक्ति को यदि गलत तरीके से भी एक नौकरी भी मिल जाए, तो कौन-सा पहाड़ टूट पडेगा? त्रिलोचन को मिली इसी ढंग से नौकरी को वह भ्रष्टाचार की संज्ञा नहीं देता। इसलिए नहीं, कि वह उसका दोस्त है, बल्कि इसलिए कि ज़रूरतमन्दों के लिए अब तक कोई और साफ-सुथरी व्यवस्था नहीं बनी।
चाय पीने के दौरान त्रिलोचन ने कहा, वह चपरासी की पोस्ट के लिए क्यों परेशान है? वह तो ग्रेजुएट है। क्लर्की के लिए कम्पीटीशन में क्यों नहीं बैठता?”
उसकी बात सुन बजरंगी जैसे झल्ला उठता है, “क्या तुम्हें मालूम नहीं कि कितने कम्पटीशनों में बैठ चुका हूँ, कइयों में तो दोनों साथ-साथ बैठ चुके हैं। अरे, कम्पीटीशन में तो वही पास होते हैं जो तैयारी करते हैं। और तैयारी क्या मुफ्त में होती है? वहाँ गाँव में कौन-से साधन हैं? तैयारी करने का मतलब शहर में रहो, कोचिंग ज्वाइन करो, कम-से-कम पाँच-छह हजार महीने का खर्च! कहाँ से होगा यह सब? यहाँ तो दिन भर मजदूरी करते-करते कमर टेढ़ी हो जाती है, शाम को दो-तीन घंटे बच्चों को ट्यूशन। अब कोई बताए कि कब तैयारी करे!’
त्रिलोचन चप रह जाता है। वह मित्र की मनोदशा समझता है, पर क्या करे? उसके हाथ में है ही क्या? लेकिन बजरंगी है कि उससे बहुत आस लगाये हुए है।
बजरंगी जैसे भड़ास निकालते हुए कहता है- “यार! ये कम्पीटीशन वम्पीटीशन, सब दिखाने की बातें हैं। जब तक सभी स्कूलों में एक जैसी पढ़ाई नहीं होती, तब तक कम्पीटीशन का क्या मतलब है? यह तो वही बात हो गयी कि एक आदमी को रास्ते के एक छोर पर खड़ा करो और दूसरे को आधे रास्ते में। फिर दौड़ शुरू कराओ। ऐसे में आधे रास्ते वाला तो जीत ही जायेगा। इसलिए कम्पीटीशन कराना है तो कस्बाई स्कूल वालों का कम्पीटीशन कस्बाई स्कूल वालों से करवाओ और कॉन्वेंटियों का कॉन्वेंटियों से। तब पता चले- कौन कितने पानी में है? लेकिन नहीं, कम्पीटीशन तो सभी के लिए एक है! प्रत्येक नागरिक को समानता का अधिकार जो है! भारत में कहीं भी बसने और रोजगार प्राप्त करने का अधिकार है।
“वाह! क्या अधिकार है? किसी परिवार में चार चार लोग नौकरी कर रहे हैं- मियाँ–बीबी और माँ-बाप भी, और किसी परिवार में एक भी नहीं। अरे, कम-से-कम इतना तो करो कि परिवार में एक को नौकरी दो। और तो और, उस परिवार में जहाँ चार-चार लोग नौकरी कर रहे हैं, उनके पास दसियों एकड़ खेती भी है। खेतों में मजदूरी करें हम जैसे लोग और उपज रखें वे अपने घर में। सरकारी नौकरी ऊपर से। पैदा होते ही वे जमीन के मालिक बन गये और हम मजदूर! पैदाइशी जमीनदार और पैदाइशी मजदूर! यहाँ साला संविधान चुप है! होना तो यह चाहिए कि जन्म से किसी के पास कुछ न हो। सभी समान, न कोई छोटा, न कोई बड़ा, न कोई ऊँचा न कोई नीचा, न कोई सवर्ण, न कोई दलित! सभी को समान सुविधाएँ दीजिए, खाने-पहनने तथा पढ़ाई-लिखाई की। फिर कराओं कम्पटीशन | जो आगे निकले उसे कुछ अधिक सुविधाएं, मान-सम्मान दो। तब तो कुछ मानवीय दृष्टिकोण दिखे, परन्तु यहाँ तो सब लूटने के लिए जूझ रहे हैं।”
त्रिलोचन ने बजरंगी से बैंक से कर्ज लेकर गाँव में ही कुछ काम-धन्धा करने का सुझाव दिया। बजरंगी ने प्रत्यक्ष प्रतिवाद नहीं किया, पर उसके मन में सवाल उठा कि अगर वह ‘प्रधानमंत्री रोजगार योजना के तहत लोन ले ले और कुछ काम-धन्धा शुरू करे, लेकिन मान लो, वह नहीं चला तो वह कर्ज़ कैसे अदा करेगा? उसे तो जेल ही जाना पड़ेगा! फिर अम्मा का क्या होगा? नहीं नहीं, वह लोन वोन के चक्कर में नहीं पड़ेगा ।
- क्या हुआ श्रीमान जी! किस सोच में पड़ गये? आजकल आप सोचते बहुत जयादा हैं। – त्रिलोचन ने कहा ।
- कुछ नहीं, यही सोच रहा था कि कर्ज लेकर अगर न लौटा पाया तो?
- तो क्या, जैसे सारे विकासशील देशों की हालत है, वैसे ही तेरी रहेगी! कर्ज लेकर घी पीना कोई नयी बात तो नहीं! हमारी सरकार भी तो यही कर रही है। वैसे भी मैंने कहीं पढ़ा था कि घाटे के बजट से ही उन्नति होती है। उधार लिये बिना पूँजी नहीं बनती। बिना पूँजी के लाभ नहीं। इसलिए कर्ज तो विकास की रीढ़ है।
- यार, मैं सोचता हूँ कि कर्ज उन्हीं को फलता है जिनके पास पूँजी होती है। बैंक भी उन्हीं को ऋण देती है जो पहले से ही मजबूत हैं। अपने पास तो कुछ है नहीं। अगर घाटा हुआ, तो मुझे तो जेल की हवा ही खानी पड़ेगी। नहीं यार! तू नौकरी के लिए ही कुछ जुगाड़ करवा दे। अच्छा तू अपने साहब से एक बार मुझे मिलवा दे।
- क्यों ?
- बस यूँ ही। पता नहीं क्यों मुझे उनसे कुछ आशा है।
- अच्छा, अगली बार आना, तो मिलवा दूंगा।
चलते समय बजरंगी सोचता है कि अगर नौकरी न मिली, तो वह शहर में पान-सिगरेट का खोखा ही लगा लेगा। गाँव की मजदूरी से तो अच्छा ही रहेगा, लेकिन माँ शहर में कैसे रहेगी? वह तो गाँव में ही रहकर वहाँ की मिट्टी में ही मिलना चाहती है। गाँव की माटी और वह– दोनों एक दूसरे में रचे बसे हैं! कैसे अलग हो सकते हैं ये दोनों? माँ की कही बात उसे याद आ जाती है- ‘बजरंगी के बापू भी तो यहीं, इसी मिट्टी में मिले हुए हैं। क्या मुँह दिखायेगी उन्हें परदेसिन होकर!’
बजरंगी को अच्छी तरह से याद है कि आठ-दस दिन पहले जब उसने माँ के सामने शहर में रहने का प्रस्ताव किया था, तब माँ गुस्सा हो गयी थी और दिन भर खटिया पर गुम–सुम पड़ी रही थी। शाम को जब बजरंगी ने फिर अपनी बात दुहरायी तो उसकी माँ ने दो टूक कहा था- “देख बेटवा! तू तो पढ़ा-लिखा है। तू ही बता, अपना घर-द्वार छोड़कर बाहर किसका मन लगा है आज तक? बेटा! जहाँ तुम पैदा हुए हो, वहाँ की समस्या से जूझो। यही जिन्दगी का मकसद है, वरना किसी भगोड़े और तुममें क्या फर्क रह जायेगा?
“बेटा! जिन्दगी कोई मौज-मस्ती की चीज थोड़े ही है, यह तो हमें तपस्या करने के लिए मिली है। तपस्या माने कर्म करते रहने की तपस्या । बेटा! यह भी तो सोच कि नौकरी आखिर कितने लोगों को मिलेगी? सरकार किस-किसको नौकरी दे देगी? सभी तो नौकरी चाहते हैं- क्या इतनी नौकरियां हैं उसके पास? इसलिए बेटा! यहीं गाँव में ही अपनी तपस्या का रूप खोज! अरे बेटा! दुनिया में कोई ऐसी जगह नहीं कि जहाँ सूरज हमेशा उगा रहता हो। वह उगता है, डूबता है और फिर उगता है।”
माँ की बातें सुनकर बजरंगी हतप्रभ रह गया था। अपनी माँ को वह अनपढ़-गँवार ही समझता था वह, लेकिन उस दिन उसकी फिलॉसिफ़ी का वह कायल हो गया था।
गाँव पहुँचते-पहुँचते रात के बारह बज गये। गाँव के बाहर बाग में उसे कुछ आदमियों की आहट मिली। टोह लेने के लिए बजरंगी जैसे ही उधर बढ़ा, वह टार्च की तेज रोशनी से नहा गया। वह इतना ही समझ सका कि बाग में पाँच-छ: आदमी इकट्ठे हैं, लेकिन अब वह क्या कर सकता था? उसने गाँव की तरफ एक तेज गुहार लगायी, पर आवाजें बाग से ही आयीं, “अबे! कौन है स्साले?…पुलिस का नया मुखबिर लगता है! मारो स्साले को!!….हाथ में बैग है- हथगोला हो सकता है। अबे! जल्दी निशाना लगा।”
— ठाय !
वह गिर पड़ा। कट्टे से फायर किया गया था। गोली उसके कन्धे में लगी थी। थोड़ी ही देर में वह बेहोश हो गया। लेकिन बदमाशों ने बाग छोड़ दिया।
गाँव में हलचल हुई, लगता है, डाकू आ गये! चलो चलो, जल्दी अन्दर चलो! ज्यादातर लोग घरों में दुबक गये। जो घरविहीन थे, वही बहादुरी से डटे रहे।
अलसुबह दिशा-मैदान करने आयी औरतों ने सबसे पहले घायल बजरंगी को देखा।
पुलिस-थाना-सरकारी अस्पताल! महीने भर की तीमारदारी और गाँव भर के लोगों की एकजुटता से बजरंगी को जीवन-दान मिला। अंधी माँ बेटे को देखना चाहती है, पर कैसे? वह मन की आँखों से देखती है- प्यारा बजरंगी- रामजी ने बड़ी मनौतियों पर उसको दिया था। आज उसी के रूप में बजरंगबली भगवान ने गाँव की रक्षा की। वह उसे घर से बाहर नहीं निकलने देना चाहती, मन की कोठरी में बन्द कर लेना चाहती है।
बजरंगी बहुत दिनों से शहर नहीं गया। पता नहीं क्यों, अब उसे शहर की चकाचौंध आकर्षित नहीं करती। गाँवमें उसका मन रमने लगा है। त्रिलोचन की याद ज़रूर आती है, पर शहर में बसने की इच्छा जैसे समाप्त हो गयी है।
बरसों बाद गाँव में चकबन्दी हुई है। चकबन्दी समिति ने गाँव के सभी भूमिहीन परिवारों को थोड़ी-थोड़ी जमीन दी है, साग-भाजी उगाने के लिए। परती में एक स्कूल भी पास हो गया है। स्कूल का टीचर-प्रिंसिपल, सब कुछ बजरंगी ही होगा! आखिर उससे ज्यादा पढ़ा-लिखा और है कौन गाँव में?
देखते-देखते तीन वर्ष बीत गये। जिन्दगी में कोई बड़ा अघट न घटे, तो समय बीतते देर नहीं लगती। बजरंगी आज एक पक्की कोठरी और बरामदे का मालिक है। कहीं आने-जाने के लिए पुरानी मोटरसाइकिल है। खाने-पीने और पहनने-ओढ़ने की भी कमी नहीं। अंधी माँ को डॉक्टर को दिखाया गया है, पर डॉक्टर ने जवाब दे दिया है। हाँ, किसी की आँखें दान में मिल जाएं, तो काम बन सकता है। लेकिन गाँव में अभी भी कोई आंखें दान नहीं करता! बजरंगी जुगाड़ में है, कहीं से एक ही आँख मिल जाए!
बजरंगी की माँ मगन हो उठती है- ‘देख रहे हैं बजरंगी के बापू! अपना बेटवा गाँव का मास्टर हो गया है। उसने बी.ए. कर लिया है। तुम कहते थे न! कि हम बजरंगी को एम.ए., बी.ए. करायेंगे।… और अपनी बहू भी तो मास्टरनी है। वह देखो, दोनों स्कूल से पढ़ाकर साथ-साथ लौट रहे हैं!’
बुढ़िया अपने पोते-पोतियों से खेलने का स्वप्न देख रही है। इसे साकार होने में अभी देर है। हो देर, पर अभी वह मरने वाली नहीं!
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
