shehzadi seeratunnisa
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

इसी जमीन के एक टुकड़े पर एक बादशाह इन्सानी उसूलों की बुनियाद पर हकुमत करता था। बादशाह अपनी अवाम (जनता) से ऐसा ही प्यार करता था, जैसे माली अपने बागो-चमन से प्यार करता है। अपनी अवाम के मआशी (आजीविका संबंधी), इकतसादी (आर्थिक), सियासी (राजनैतिक), सामाजी (सामाजिक) हालात के लिए हर वक्त फिक्रमंद रहता। अवाम भी अपने बादशाह के लिए शमा पर परवानों की तरह जाँ-निसार (न्योछावर) थी। लेकिन बादशाह को एक खास फिक्र ये थी कि बादशाह की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए कोई औलाद नहीं थी। उम्र का आधा हिस्सा गुजर चुका था। फिर भी बादशाह मुतमईन (संतुष्ट) था कि जनता की दुआएँ हमारे जरूर काम आएँगी और मेरा महल भी एक दिन खुशियों से जरूर भर जाएगा।

एक दिन बादशाह के यहाँ हमसाया मुल्क (पड़ोसी देश) का सफीर (दूत) एक पैगाम लेकर आया कि या तो आप हमारी बादशाहत तसलीम कर लो या जंग के लिए तैयार हो जाओ। आपके सोचने-समझने के लिए एक हफ्ते का वक्त है।

जब ये बात जनता के दरबार में फैली तो सारी जनता बेचैन हो उठी और बादशाह के शाना-बशाना-बरसरे पैकार (कंधे से कंधा मिलाकर युद्ध) होने के लिए तैयार हो उठी, बादशाह को फिक्र लाहक थी कि मेरी रियाया (प्रजा) का खून बहेगा। लेकिन एतमाद से पुर (विश्वास से भरा) भी था कि हमारा जनता से रिश्ता सिर्फ अख़्लाक (नैतिकता) की बुनियाद पर है। खालिक (सृष्टिकर्ता) का फरमान है तुम जमीन वालों पर रहम करो, ऊपरवाला तुम पर रहम करेगा।

सारा मुल्क फौजी छावनी में तब्दील हो चुका था। महल जोशीले नारों से गँज रहा था। सात दिन बाद सफीर भी बादशाह के महल में वापस आ गया जहाँ महल का सारा ईवान (परिषद) अंदर और बाहर खचा-खच भरा हुआ था। जनता के जज्बे को देखकर सफीर भी पसोपेश (असमंजस) में था।

इसी असना (दरमियान) में मलका महारानी की तबीअत बिगड़ गई। महल में शोर मच गया कि मलका महारानी की तबीअत ज्यादा खराब है। लोग अंदाजा लगाने लगे कि औरत नर्म नाजुक मिजाज होती है। शायद सदमा लाहक हो गया होगा। एक तरफ तो महारानी के लिए हकीम व तबीब (वैद्य) बुलाए गए, दूसरी तरफ बादशाह को एक अहम फैसला लेना था। जनता मुंतजिर थी कि बादशाह क्या फैसला लेते हैं? इस पसो-पेश में बादशाह ने फैसले का तहरीरनामा कासिद (पत्र-वाहक) को सौंप दिया और अपनी जनता को मुतमईन कर दिया कि आपके ही हक में फैसला लिखा है। बस आप अपने मालिक से दुआ करते रहें।

कासिद फैसलानामा लेकर अपने बादशाह के दरबार में पहुँचा और बादशाह को वह खत दिया जो बादशाह ने लिखा था। खत इंसाननवाजी (मानवीयता) का मुँह बोलता चिराग था। बादशाह खत को पढ़ते ही नीम की मानिंद (समान) ठंडा हो गया और खुश होकर जवाबन खत लिखने लगा और खत कासिद के हवाले कर दिया कि यह खत बादशाह की खिदमत में ले जाओ। कासिद रवाना होकर बादशाह के महल में पहुँचा, जहाँ पहले से ही सफीर की वापसी का इंतजार हो रहा था। बादशाह के दरबार में हाजिर होकर अदब से खत दिया। बादशाह ने खत पढ़कर जनता को सुनाया जिसका उनवान (विषय) कुछ इस तरह था–

“मेरे हम-मनसब दोस्त, आपको खुशियाँ इसी तरह इनायत हों, जिस तरह तुमने मेरे लिए खुशियों की तमन्ना की है। आपके कलम के टँके हुए मोतियों का दुनिया में किसी चीज से भी मवाजना (तुलना) नहीं किया जा सकता। तुम्हारी कलम ने मुझे हुकूमत करने का सलीका सिखा दिया। कलम की नोंक से निकले हुऐ अल्फाजों ने मेरा दिल जीत लिया। आप अपना मुल्क मेरे हवाले कर रहे हो। इस शर्त पर कि हमारी जनता का ख्याल हमारी ही तरह से रखना। हम तो अपनी ही जनता के हक तलफ (अधिकार हनन करने वाले) निकले। आज तुमने हमारी आँखें खोल दीं। आपका मुल्क आपको मुबारक हो, सलामत हो। मैं अपने गलत ख्याल पर नादिम (ग्लानि से भरा) हूँ, और शर्मिंदा हूँ। बस, अब आप अपने इस हम-मनसब भाई की दोस्ती कुबूल फरमाएँ।”

जनता इस पैगाम को सुनकर नारे बुलंद करने लगी और जोश में खुशी की ताब ना लाकर खुदा से दुआ करने लगी, “ऐ मालिक! ऐसे बादशाह को हमारे ऊपर हमेशा कायम रख।”

उधर मलका-ए-आलिया (पटरानी) की सेहत सुधारने की तजवीज-व-तश्खीस (जाँच-पड़ताल) में हकीम व तबीब लगे हुए थे, जो महल के लिए फिक्र का बाइस (कारण) बनी हुई थी। हकीम व तबीब जल्द ही अपनी तजवीज-व-तश्खीस को पहुँच गए। हकीम व तबीबों ने खुशखबरी सुनाई–‘मलका-ए-आलिया की तरफ से घबराने की जरूरत नहीं है। इन्हें बहुत जल्द आराम हो जाएगा। जिस्मानी हालात की तब्दीली इनकी सेहत पर असर अन्दाज हुई है। इनके शिकम (कोख) में तखलीके कायनात (सृष्टिकर्ता) का वजूद मुसल्लम (पूर्ण) है।’

बादशाह हकीमों के ये अल्फाज सुनते ही खुशी से उछल पड़ा। बादशाह को अपनी खुशी पर यकीन नहीं हो रहा था। वह मालिक का शुक्र अदा करने लगा और उस दिन का इंतजार करने लगा जब बच्चे की किलकारियों से महल गूंज उठेगा।

वह दिन भी आ गया। बादशाह के यहाँ एक बच्चे की आमद हुई। बस क्या था, महल में खुशियों का सैलाब उमड़ आया। महल में मुबारक व सलामत के नगमे गूंजने लगे। तरानों की गूंज, मुस्कराते हुए फूलों, भौरों और तितलियों की भिनभिनाहट, बुलबुलों की मोसीकी (संगीत) फिरदौसे बरी (स्वर्ग) का नजारा बिखेर रही थीं। बच्ची इतनी खूबसूरत थी जो भी देखता यह महसूस करता की ये तो कोई जन्नत की हूर है। बादशाह ने बच्ची का नाम ‘सीरतुन्निसा’ रखा। बच्ची की पैदाइश और खूबसूरती की चर्चा दूर-दूर तक फैल गई। बच्ची ज्यों-ज्यों बड़ी होती गई, उस पर शबाब (यौवन) आता गया। बच्ची जितनी खूबसूरत थी, उतनी ही जहीन और समझदार भी थी। बादशाह उसकी जहानत (बुद्धिमत्ता) को देखकर दंग रह जाता। शहजादी ज्यादातर बाप की सोहबत (संगति) में रहती और ऐसे-ऐसे सवाल करती, जिन्हें सुलझाने के लिए बादशाह को मशवरा करना पड़ता। वह अपने सवाल के जवाब से तब तक मुतमईन नहीं होती, जब तक जवाब का फलसफा (दर्शन) समझ में न आ जाए। इस तरह तहकीक (शोध) और फलसफा उसकी जहन की खुराक बन चुका था। खाम-खयाली (अंधविश्वास) और तकलीद (अनुकरण) जैसी चीज को तो उसने कभी कुबूल ही नहीं किया था। शाही दरबार के पेचीदा मसाइल (समस्याओं) में दिलचस्पी लेती और उन्हें हल करने की कोशिश करती। इस कोशिश ने शहजादी को इतना पुर-एतमाद कर दिया कि पेचीदा से पेचीदा मसाइल भी चुटकियों में हल कर देती। वह अपने बाप से कहती, “कोई भी मसला नामुमकिन नहीं होता, बस जरूरत है, उस मसले की खातिर अपने आपको तनाव से दूर रखने की। किसी भी पेचीदा मसले को अपना मत समझो। दूसरों का समझकर हल करोगे तो मसले का हल आसानी से समझ आ जाएगा। हर मसले का हल इंसान के पास मौजूद है। लेकिन इंसान अपने आपको पहचानता नहीं।”

शहजादी की ये जहानत बाप की विरासत (संस्कार) के, या मालिक की करम का तोहफा, या शायद उसके नाम का असर था। कुदरत ने तो शहजादी के अंदर सीरत (चारित्रिक विशेषता) को कूट-कूटकर भर दिया था। इस सरत और सीरत के चर्चों ने दर-दर तक राजा-महाराजाओं के यहाँ हलचल पैदा कर दी और हर जगह से शहजादी के रिश्तों की आमद का सिलसिला शुरू होने लगा।

शहजादी जहाँ खूबसूरत थी, वहीं फनकार भी थी। शहजादी ने एक जिंदा इंसान के हमशक्ल छः बुत तराशे, जिनके चेहरे की बनावट, जज्बाती तसव्वुरात (भाव-भंगिमाएँ) यह ख्याल ही पैदा नहीं होने देते। ये तराशे हुए बत हैं या जिंदा इंसान। इन बतों को शहजादी ने एक खास किस्म के फ्रेम में फिट किया और जिसकी शक्ल का बुत बनाया था, उसको भी उसी तरह के फ्रेम में फिट कर दिया। इस तरह उन सात मुजस्समों (प्रतिमाओं) की एक प्रदर्शनी महल में लगा दी और बादशाह से कहा कि मैं आज आपके दरबार का इम्तिहान लेना चाहती हूँ। यह सात मुजस्समें हैं, जिनमें एक असली जिंदा मुजस्समा है। बताइए इनमें असली कौन-सा है?

दरबारे-महल मुजस्समों के इर्द-गिर्द जमा हो गए और शहजादी की फनकारी पर हैरतजदा (आश्चर्यचकित) होकर रह गए और कोई भी दरबारी असल मुजस्समों को नहीं पहचान सका। बादशाह को भी बहुत हैरत हुई। बादशाह ने इसी को लाया-ए-अमल बनाते हुए यह ऐलान कर दिया कि बादशाह के यहाँ सात मुजस्समें हैं, जिनमें एक असली है। जो भी मुजस्समें को पहचान लेगा उसी से अपनी बेटी की शादी करूँगा। बात की शोहरत दूर-दूर तक फैल गई।

शहजादों के आने का ताँता लग गया, लेकिन एक भी शहजादा असल मुजस्समे को न पहचान सका। दोस्त के महल में भी ये बात पहुँची, तो वहाँ से भी शहजादा इस अजूबे को पढ़ने आ गया। और जब मुजस्समों के रूबरू हुआ और मुजस्समों का बारीकी से मुआयना करने लगा तो मुजस्समों की कैफियत ने शहजादे को हैरत में मुबतला कर दिया। मकसद तक न पहुंचने की इजतराबी (व्याकुलता) और फिक्रे हुसूल (परिणाम की चिंता) में जंग होने लगी। इस कैफियत में शहजादे ने जेब से सिगरेट निकाली और मुँह से लगाकर सिगरेट जलाने लगा। मुजस्समों की कैफियत में गुम सिगरेट जलाते हुए शहजादे ने अपने चेहरे की भौंह जला ली। चेहरा आग से छूते ही जहन को एहसास ने घेर लिया। फौरन ख्याल पैदा हो गया ‘ओ! हो! एहसास ही जिंदा होने की निशानी है।’

अब शहजादे ने इत्मीनान से सिगरेट सुलगाई और सिगरेट पीता हुआ मुजस्समों के पास से गुजरता गया और कश का धुआँ मुजस्समों पर छोड़ता गया। जिस मुजस्समें ने भी सिगरेट के धुएँ का एहसास किया, बस उसी मुजस्समे पर हाथ रख दिया कि ये देखो ये असली मुजस्समा है। फिर क्या था? शहजादा बाजी जीत चुका था। बादशाह ने शहजादे की होशियारी पर मुबारकबाद दी और शहजादे को तोहफों से नवाजते हुए शादी की तारीख मुकर्रर कर शहजादे को रुखसत कर दिया। जब शहजादा अपने महल में पहुँचा और अपनी जीत की खुशखबरी सुनायी तो महल में खुशियाँ अंगड़ाई लेने लगीं। बादशाह और मलका-ए-आलिया बेपनाह खुश थीं।

प्यारे बच्चों, दुनिया की फितरत (स्वभाव) भी अजीब-अजीब खेल-तमाशों पर टिकी हुई है। एक बात किसी को बेपनाह खुशियाँ दे जाती है, तो किसी को नफरत की आग। इन तमाशों को अगर समझा है तो सिर्फ फूलों ने, जिन्हें काँटों में भी मुस्कराने से कोई नहीं रोक सकता।

शहजादा दो माँ और एक बाप की हसरतों और उम्मीदों का चिराग था, लेकिन सौतेला साथ कभी-न-कभी करवट ले ही लेता है। असल माँ की खुशी सौतेली माँ कुबूल न कर सकी। नफरत की आग ने जहन पर ताले डाल दिये और यह अज्म (दृढ़ निश्चय) कर बैठी- ‘मैं इस जोड़े को कामयाब नहीं होने दूंगी।’

शादी की तैयारियाँ मुकम्मल होकर शहजादी दुल्हन बनकर शहजादे के हमराह महल की जीनत (शोभा) बन गई। महल में हर तरफ खुशियाँ तआम-व-अकसाम (विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजनों) के दौर चलने लगे। महल को इस अंदाज से सजाया गया था, जैसे फलक पर जड़े चाँद-सितारे जमीन पर उतर आए हों। मलका-ए-आलिया दुल्हन को देखकर इस हद तक खुश थी, जैसे शहजादा किसी दूसरे आलम (दुनिया) की हूर जीत लाया हो।

लेकिन सौतेली माँ ने शहजादे को अपने फरेब में लेना शुरू कर दिया। शहजादे से कहने लगी, ‘यह तुमने जीत के चक्कर में महल में क्या बदनुमा दाग लाकर बिठा दिया। देखने लायक भी तो नहीं है। आज का दिन तुम्हारी किस्मत का सबसे बुरा दिन है। बस तुम मेरा कहना मानो तो दुल्हन की सूरत मत देखना। मुझे डर है कि कहीं तुम दुल्हन की सूरत देखकर किसी कैफियत में न मुबतला हो जाओ और अपना नुकसान कर बैठो।’ माँ की ममता भरी नसीहत और शहजादे की खाम-खयाली (अंधविश्वास) ने फैसला लेने की कुव्वत छीन ली। शहजादा शबे विसाल (मिलन की रात) अपने खिलवत-खाने (मिलन-कक्ष) में पहुँचा. रोशनी बंद की और अपने बिस्तर पर सो गया। सुबह हुई खिलवत-खाने से बाहर आया और अपने रोज-मर्रा के कामों में मशगूल हो गया। यह रोजाना का सिलसिला दराज (लंबा) होता गया। रोज शहजादा खिलवत-खाने में आता, रोशनी बंद करके सो जाता। दिन निकलते ही बाहर हो जाता। मलका-ए-आलिया शहजादी दुल्हन का हर तरह का ख्याल रखतीं, लेकिन दोनों दूल्हा-दुल्हन अपने-अपने राजो-नियाज (रहस्य) को अपने ही सीने में महफूज किए हुए थे।

वो दिन भी आ गया जब मुल्क में घुड़सवारी की रेस का मेला लगता था। बड़े रईसजादे, शहजादे रेस में हिस्सा लेते थे। शहजादी ने मलका-ए-आलिया से कहा, “अम्मी एक खास किस्म का घोड़ा हमें भी चाहिए।” मलका-ए-आलिया ने शहजादे की मर्जी का घोड़ा फराहम (उपलब्ध) कर दिया। शहजादी मर्दाना वेश बदलकर घुड़-रेस के मैदान में पहुँच गई। घुड़सवारी के वह जौहर दिखाये कि देखनेवाले दंग रह गए। इस अजनबी शहजादे ने दस साला रिकार्ड तोड़ दिया और रेस की बाजी अपने नाम कर ली। पूरा मुल्क इस जीत की खुशी में नाचने लगा। हारनेवाला शहजादा अपनी हार बरदाश्त न कर सका और धमकी भरे लहजे में इशारा दे गया कि यह जीत तुम्हें ज्यादा दिन खुशी नहीं देगी। अजनबी शहजादे पर तोहफे बरसने लगे। मुल्क के शहजादे ने तो आगे बढ़कर दोस्ती का हाथ मिला लिया। अब दोनों दोस्तों की रातों की तन्हाई के राज, राज ही रहे, अल-बत्ता दिनों की मुलाकात की दोस्ती उरूज (उत्कर्ष) पकड़ने लगी।

एक दिन दोनों दोस्त शिकार खेलते-खेलते थक गए, पर कोई खास शिकार हाथ नहीं आया। आखिर में अजनबी दोस्त ने एक हरियल पर इस अन्दाज पर निशाना लगाया कि हल्की-सी चोट में वह नीचे आ गया। जब शिकार को हलाल करने की बारी आई तो दोनों बजिद हो गए कि आप कीजिये। अजनबी दोस्त ने शहजादे को हलाल करने के लिए राजी कर लिया। शहजादा शिकार को हलाल करने लगा, तभी अजनबी दोस्त ने अपना अँगूठा छुरी की जद में कर दिया और अजनबी का अंगूठा घायल हो गया। अजनबी दोस्त ने चीख मारी, ‘हाय मेरा अँगूठा काट दिया…!’ अँगूठा खून में लहुलुहान हो रहा था। शहजादा दोस्त के अँगूठे से बहता हुआ खून देखकर तड़प उठा। फौरन अपने दामन से पट्टी फाड़कर अंगूठे पर कस दी। अफसोस और निदामत (ग्लानि) की हालत में दोनों दोस्त अपनी-अपनी राहों से अपने घर पहँच गए। शहजादे को बहत अफसोस हो रहा था कि मेरा दोस्त. मेरे हाथ से घायल हो गया। दिन तमाम हुआ, रात को दोनों दोस्त खिलवत-खाने में अपने-अपने बिस्तर पर आराम फरमा रहे हैं। खिलवत-खाने की रोशनी गुल है। सोते में दुल्हन के होठों से निकली हुई कराहटों ने शहजादे की नींद को उचक लिया। कराहने में एक अजीब-सी अपनाइयत का दर्द महसूस हो रहा था। शहजादे ने रोशनी की तो क्या देखता है कि दुल्हन के अँगूठे में पट्टी बँधी हुई है, जो शहजादे ने अपने ही दामन से फाड़कर बाँधी थी। शहजादा इस कैफियत से अपने आप को निदामत के समंदर में डूबता हुआ महसूस करने लगा। रोशनी को गुल किया, बिस्तर पर हजारों ख्यालों ने शहजादे को घेर लिया कि क्या ऐसे मुजरिम की भी तलाफी (क्षमा) हो सकती है, जो किसी बेगुनाह को लगातार सजा देने पर लगा हुआ हो और बेगुनाह के लबों पर शिकवा तक न हो।

शहजादा बेचैनी से सुबह होने का इंतजार करने लगा। ढलती हुई रात आखिर रात ही तो थी। निकलते हुए सूरज से खैरबाद कहकर रुखसत हो गई। मुरगों की बाँगें, परिंदों के नगमें, चिड़ियों की आपस की गुफ्तगू से ऐसा महसूस हो रहा था कि वे शहजादे का ही जिक्र कर रहे हैं। ये शहजादा कितना खाम-ख्याल (अंधविश्वासी) इंसान है कि अपनी ही दुनिया उजाड़ने पर लगा हुआ है। सुबह होते ही शहजादा मलका-ए-आलिया माँ के पास पहुँच गया और लिपटकर रोने लगा, “माँ, मैने अपनी जीती हुई दुनिया उजाड़ ली है। मैं बहुत बुरा इंसान हूँ। माँ मेरा गुनाह माफी के काबिल नहीं है, मैं क्या करूँ?”

माँ का जोश उबलने लगा, “बेटा, बताओ कि क्या बात है?”

शहजादे ने दिल थामकर अपना सारा अफसाना बयान कर दिया। माँ ने तसल्ली दी, “बेटा घबराओ नहीं, सुबहा का भूला शाम को घर वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते। सही वक्त पर तुम्हें अक्ल आ गई है। हमारी दुल्हन इतनी जहीन और अक्लमंद है। वह तुम्हें कभी भी कोई सजा नहीं देगी। आज हम सब नाश्ता एक साथ ही करेंगे।”

खादिमाओं (दासियों) ने नाश्ता तैयार करके दस्तरख्वान पर सजा दिया। मलका महारानी ने दुल्हन को आवाज दी, “बेटी सीरतुन्निसा, आ जाओ नाश्ता कर लो।”

“जी अम्मी,” दुल्हन आवाज सुनते ही नाश्ते के दस्तरख्वान पर जलवा-अफरोज (शोभायमान) हो गई, जहाँ पहले से ही मलका-ए-आलिया और शहजादा तशरीफ फरमा थे।

गुफ्तगू अँगूठे की पट्टी से शुरू होकर अफसाने के इखत्तताम (समापन) तक जा पहँची। गुफ्तगू के अंदाज में जबान की शीरी (मिठास) अपनी महक बिखेर रही थी।

“बेटी सीरतुन्निसा, तुम सीरतुन्निसा नहीं बल्कि सीरते-इंसाँ हो, लेकिन यह बताओ कि तुम्हें इस सीरत का दर्स (शिक्षा) कहाँ से मिला है?”

सीरतुन्निसा बोली, “अम्मी यह हमारे आबा-व-अजदाद (पूर्वजों) की तहजीब का सकाफती विरसा (सच्ची संपत्ति) है। हमें बचपन से ही दो खिलौने खेलने के लिए दिये गए थे। एक अखलाक व दूसरा कलम। हम इन्हीं दो खिलौनों से खेलकर बड़े हुए हैं। इन दो खिलौनों का तहकीकी फलसफा यह है कि हर दुनिया के मसले का हल खुद उसी इंसान के अंदर छुपा हुआ है। लेकिन इंसान अपने आपको पहचानता नहीं। यही दो खिलौनों का फलसफा इंसान को अपनी पहचान कराता है, जिसकी तारीख गवाह है।”

मलका-ए-आलिया- बेटी सीरतुन्निसा, शहजादा अपनी गुस्ताखाना हरकतों पर नादिम है। क्या तुम शहजादे को माफ कर दोगी?

सीरतुन्निसा- अम्मी मैं आपकी पैरों की खाक हूँ। शर्मिंदा न कीजिए। इंसान गुस्ताखी किसी और की नहीं करता, अपनी जात की ही गुस्ताखी करता है। तो माफी भी खुद से माँगनी चाहिए। यहाँ तक कि उसकी जात उसे माफ कर दे, यही तो अखलाक है। कलम को अपनी जिंदगी का हथियार बना लो, इसकी नोंक में वह ताकत है कि खाम-खयाली, अंधी तकलीद को आपके पास तक नहीं आने देगी। तारीख गवाह है, जिस कौम ने भी कलम और अखलाक को जिंदगी का हथियार बनाया है, उस कौम ने तमाम कौमों पर राज किया है, और जिस कौम ने भी कलम और अखलाक को छोड़कर किसी दूसरे हथियार का सहारा लिया है, वे कौमें जिल्लत और रुसवाई (अपमान और उपेक्षा) का शिकार होकर बरबादी के दहाने (कगार) पर आ गई
हैं।”

“अम्मी नाश्ता ठंडा हो गया है। आप कब तक जबानी मिठास बाँटती रहेंगी?” दुल्हन ने मिठाई का टुकड़ा उठाया और दोनों का मुँह मीठा कर दिया। अखलाकी तहजीब का ये कुनबा नाश्ते का लुत्फ लेने में मशगूल हो गया।

प्यारे बच्चों, ये थी एक शहजादी की कहानी जो आप मासूमों से पूछ रही है कि प्यारे बच्चों, क्या मैं तुम्हें कुछ दे पायी हूँ?

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’