काका कालेलकर अपने मित्रें के साथ बैठे किसी विषय पर चर्चा कर रहे थे कि उनका छोटा पुत्र उनके पास आया और कहने लगा, “पिताजी, ये मुसलमान रोज ही हिन्दुओं को मार डालते हैं। क्यों ने हम लोग भी एकजुट होकर इन मुसलमानों को मार डालें?”
उस अबोध की जिज्ञासा को शांत करते हुए काका कालेलकर बोले, “अच्छा, तुम्हीं बताओ यह कार्य हम कहाँ से शुरू करें। चलो, पहले इमाम साहब को ही मारते हैं।” यह सुनकर वह बच्चा बोला, “ऐसा हरगिज न करना पिताजी, वह तो हमारे बुजुर्ग हैं।”
तब काका ने कहा, “अच्छा तो फातिमा को मार दें?” “नहीं, वह मेरी दीदी जैसी है। उन्हें भी नहीं मारा जा सकता।” बच्चा बोला।
“ऐसा करें कि अपने पड़ोसी इकबाल को मार डालें।” काका फिर बोले।
“वह तो मेरा खास दोस्त है। उसे भी नहीं मारा जा सकता।” वह बोला।
तब काका कालेलकर ने उस मासूम को गोद में बैठाया और समझाते हुए बोले, “बेटा, मुसलमान हो या हिन्दू, सभी भाई-भाई हैं। मारना तो उनको चाहिए जो गुंडे हैं और जिनका कोई धर्म-ईमान नहीं होता, हिंसा करने में ही जिनकी दिलचस्पी होती है। हमें सभी धर्मों का समानता से सम्मान करना चाहिए।”
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