sachchaee ka upahaar - munshee premachand kee kahaanee
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चौथे दिन प्रातःकाल तीनों अपराधी बैठे सोच रहे थे कि आज किधर चलना चाहिए। इतने में बाजबहादुर आता दिखाई दिया। इन लोगों को आश्चर्य तो हुआ परंतु उसे अपने द्वार पर आते देखकर कुछ आशा बंध गई। यह लोग अभी बोलने भी न पाए थे कि बाजबहादुर ने कहा- ‘क्यों मित्रों, तुम लोग मदरसे क्यों नहीं आते? तीन दिन से गैरहाजिरी हो रही है।’

जगत- ‘मदरसे क्या जाएं, जान भारी पड़ी है? मुंशीजी जी एक हड्डी भी न छोड़ेंगे।’

बाजबहादुर- ‘क्यों वलीमुहम्मद, दुर्गा, सभी तो आते हैं, मुंशी जी ने किसी से भी कुछ नहीं कहा?’

जयराम- ‘तुमने उन लोगों को छोड़ दिया होगा, लेकिन हमें भला तुम क्यों छोड़ने लगे। तुमने एक-एक की तीन जड़ी होगी।’

बाजबहादुर- ‘आज मदरसे चलकर इसकी परीक्षा ही कर लो।’

जगत- ‘यह झांसे रहने दीजिए। हमें पिटवाने की चाल है।’

बाजबहादुर- ‘तो मैं कहीं भागा तो नहीं जाता? उस दिन सच्चाई की सजा दी थी, आज झूठ का इनाम दे देना।’

जयराम- ‘सच कहते हो, तुमने शिकायत नहीं की?’

बाजबहादुर- ‘शिकायत की कौन बात थी। तुमने मुझे मारा, मैंने तुम्हें मारा। अगर तुम्हारा घूंसा न पड़ता तो मैं तुम लोगों को रण-क्षेत्र से भगाकर दम लेता। आपस में झगड़ों की शिकायत करने की मेरी आदत नहीं है।’

जगत- ‘चलूं तो यार लेकिन विश्वास नहीं आता! तुम हमें झांसे दे रहे हो, वहां कचूमर निकलवा लोगे।’

बाजबहादुर- ‘तुम जानते हो, झूठ बोलने की मेरी बान नहीं है।’

यह शब्द बाजबहादुर ने ऐसे विश्वासोत्पादक रीति से कहे कि उन लोगों का भ्रम दूर हो गया! बाजबहादुर के चले आने के पश्चात तीनों देर तक उसकी बातों की विवेचना करते रहे! अंत में यही निश्चय हुआ कि आज चलना चाहिए!

ठीक दस बजे तीनों मित्र मदरसे पहुंच गए, किन्तु चित्त में आशंकित थे! चेहरे का रंग उड़ा हुआ था।

मुंशीजी कमरे में आये। लड़कों ने खड़े होकर उनका स्वागत किया, उन्होंने तीनों मित्रों की ओर तीव्र दृष्टि से देखकर केवल इतना कहा- ‘तुम लोग तीन दिन से गैरहाजिर हो। देखो, दरजे में जो इम्तहानी सवाल हुए हैं उन्हें नकल कर लो।’

फिर पढ़ाने में मग्न हो गये!

जब पानी पीने के लिए लड़कों को आधे घंटे का अवकाश मिला तो तीनों मित्र और सहयोगी जमा होकर बातें करने लगे।

जयराम- ‘हम तो जान पर खेलकर मदरसे आते थे, मगर बाजबहादुर है बात का धनी।’

वलीमुहम्मद- ‘मुझे तो ऐसा मालूम होता है वह आदमी नहीं देवता है। यह आंखों देखी बात न होती तो मुझे कभी इस पर विश्वास न आता।’

जगत- ‘भलमनसी इसी को कहते हैं। हमसे बड़ी भूल हुई कि उसके साथ ऐसा अन्याय किया।’

दुर्गा- ‘चलो उससे क्षमा मांगे।’

जयराम- ‘हां, यह तुम्हें खूब सूझी। आज ही।’

जब मदरसा बंद हुआ तो दरजे के साथ सब लड़के मिलकर बाजबहादुर के पास गये। जगतसिंह उनका नेता बनकर बोला, ‘भाई साहेब! हम सब के सब तुम्हारे अपराधी हैं। तुम्हारे साथ हम लोगों ने जो अत्याचार किया है उस पर हम हृदय से लज्जित हैं। हमारा अपराध क्षमा करो। तुम सज्जनता की मूर्ति हो, हम लोग उजड्ड, गंवार और मूर्ख हैं; हमें अब क्षमा प्रदान करो।

बाजबहादुर की आंखों में आंसू भर आये बोला, ‘मैं पहले भी तुम लोगों को अपना भाई समझता था और अब भी वही समझता हूं। भाइयों के झगड़े में क्षमा कैसी?’

सब-के-सब उससे गले मिले। इसकी चर्चा सारे मदरसे में फैल गयी। सारा मदरसा बाजबहादुर की पूजा करने लगा। वह अपने मदरसे का मुखिया, नेता और शिरमौर बन गया।

पहले उसे सच्चाई का दंड मिला, अबकी सच्चाई का उपहार मिला।