उस दिन मुझे कुछ अच्छा न लगता था। मैं चुप रहा।
तुरीय ने फिर कहा – कैदी, क्या सो गया?
मैंने बड़े ही मलिन स्वर में कहा – नहीं, आज सोकर क्या करूं, कल सोऊंगा कि फिर जागना न पड़े।
तुरीय ने प्रश्न किया – क्यों, क्या सरकार रुपया न भेजेगी?
मैंने उत्तर दिया – भेजेगी तो लेकिन कल तो मैं मार डाला जाऊंगा मेरे मरने के बाद रुपया आया तो मेरे किस काम का?
तुरीय ने सांत्वना पूर्ण स्वर में कहा – अच्छा, तुम गाओ, मैं कल तुम्हें मरने न दूंगी। मैंने गाना शुरू किया। जाते समय तुरीय ने पूछा – कैदी, तुम कटघरे में रहना पसंद करते हो।
मैंने सहर्ष उत्तर दिया – हां, किसी तरह इस नरक से छुटकारा मिले।
तुरीय ने कहा – अच्छा, कल मैं अब्बा से कहूंगी।
दूसरे ही दिन मुझे अंधकूप से बाहर निकाला गया। मेरे दोनों पैर दो मोटे शहतीरों के छेदों में बंद कर दिए गए। और वह काठ की ही कीलों से प्राकृतिक गढ्ढों में कस दिए गए। सरदार ने मेरे पास आकर कहा – कैदी, पन्द्रह दिन की अवधि और दी जाती है, इसके बाद तुम्हारी गर्दन धड़ से अलग कर दी जायेगी। आज दूसरा खत अपने घर लिखो। अगर ईद तक रुपया न आया, तो तुमको हलाल कर दिया जायेगा।
मैंने दूसरा पत्र लिखकर दे दिया।
सरदार के जाने के बाद तुरीय आयी। यह वही रमणी थी, जो अभी गई है। यही उस सरदार की लड़की थी। वही मेरा गाना सुनती थी और इसी ने सिफारिश करके मेरी जान बचाई थी।
तुरीय आकर मुझे देखने लगी। मैं भी उसकी ओर देखने लगा।
तुरीय ने पूछा – कैदी, घर में कौन-कौन है?
मैंने बड़े ही कातर स्वर में कहा – दो छोटे-छोटे बालक और कोई नहीं।
मुझे मालूम था कि अफ्रीदी बच्चों को बहुत प्यार करते हैं।
तुरीय ने पूछा – उनकी मां नहीं है?
मैंने केवल दया उपजाने के लिए कहा – नहीं, उनकी मां मर गई है। वे अकेले हैं। मालूम नहीं, जीते हैं या मर गए क्योंकि मेरे सिवाय उनकी देख-रेख करने वाला कोई न था। कहते-कहते मेरी आंखों में आंसू भर आए। तुरीय की भी आंखें सूखी न रही। तुरीय ने अपना आवेग संभालते हुए कहा – तो तुम्हारे कोई नहीं है? बच्चे अकेले हैं? वे बहुत रोते होंगे।
मैंने मन-ही-मन प्रसन्न होते हुए कहा – हां, रोते जरूर होंगे। कौन जानता हूं शायद मर भी गए हों?
तुरीय ने बात काटकर कहा – नहीं, अभी मरे न होंगे। तुम रहते कहां हो? मैं जाकर पता लगा आऊंगी।
मैंने अपने घर का पता बता दिया। उसने कहा – उस जगह तो मैं कई बार हो आयी हूं। बाजार से सौदा लेने मैं अक्सर जाती हूं। अब जाऊंगी तो तुम्हारे बच्चों की भी खबर ले आऊंगी।
मैंने शंकित हृदय से पूछा – कब जाओगी?
उसने कुछ सोचकर कहा – इस जुमेरात को जाऊंगी। अच्छा, तुम वही गीत गाओ। मैंने आज बड़ी उमंग और उत्साह से गाना शुरू किया। मैंने आज देखा कि उसका असर तुरीय पर कैसा पड़ता है। उसका शरीर कांपने लगा, आंखें डबडबा आयी, गाल पीले पड़ गए और वह कांपती हुई बैठ गई। उसकी दशा देखकर मैंने दूने उत्साह से गाना शुरू किया और अंत में कहा – तुरीय, अगर मैं मारा जाऊं तो मेरे बच्चों को मेरे मरने की खबर देना। मेरी बात का पूरा असर पड़ा। तुरीय ने भर्राए हुए स्वर में कहा – कैदी, तुम मरोगे नहीं। मैं तुम्हारे बच्चों के लिए तुम्हें छेड़ दूंगी।
मैंने निराश होकर कहा – तुरीय, तुम्हारे छोड़ देने से भी मैं बच नहीं सकता। इस जंगल में मैं भटक-भटककर मर जाऊंगा, और फिर तुम पर भी मुसीबत आ सकती है। अपनी जान के लिए तुमको मुसीबत में न डालूंगा।
तुरीय ने कहा – मेरे लिए तुम चिंता न करो। मेरे ऊपर कोई शक न करेगा। मैं सरदार की लड़की हूं, जो कहूंगी वही सब मान लेंगे, लेकिन क्या तुम जाकर रुपया भेज दोगे? मैंने प्रसन्न होकर कहा – हाँ तुरीय, मैं रुपया भेज दूंगा।
तुरीय ने जाते हुए कहा – तो मैं भी तुम्हें छूटकारा दिला दूंगी।
इस घटना के बाद तुरीय सदैव मेरे बच्चों के संबंध में बातें करती। असदखां, सचमुच इन अफ्रीदियों को बच्चे बहुत प्यारे होते हैं। विधाता ने यदि उन्हें बर्बर हिंसक पशु बनाया है, तो मनुष्योचित प्रकृति से वंचित भी नहीं रखा है। आखिर जुमेरात आयी और अभी तक सरदार वापस न आया। न कोई उस गिरोह का आदमी ही वापस आया। उस दिन संध्या समय तुरीय ने आकर कहा – कैदी अब मैं नहीं जा सकती, क्योंकि मेरा पिता अभी तक नहीं आया। यदि कल भी नहीं आया, तो मैं तुम्हें रात को छोड़ दूंगी। तुम अपने बच्चों के पास जाना लेकिन देखो, रुपया भेजना न भूलना। मैं तुम पर विश्वास करती हूं।
मैंने उस दिन बड़े उत्साह से गाना गाया। आधी रात तक तुरीय सुनती रही, फिर सोने चली गई। मैं भी ईश्वर से मनाता रहा कि कल और न सरदार आये। काठ में बंधे-बंधे मेरा पैर बिलकुल निकम्मा हो गया था। तमाम शरीर दुख रहा था। इससे तो मैं काल-कोठी में अच्छा था, क्योंकि वहां हाथ-पैर तो हिला-डुला सकता था।
दूसरे दिन भी गिरोह वापस न आया। उस दिन तुरीय बहुत चिंतित थी। शाम को आकर तुरीय ने मेरे पैर खोलकर कहा – कैदी, अब तुम जाओ। चलो। मैं थोड़ी दूर पहुंचा दूं। थोड़ी देर तक मैं अवश लेटा रहा। धीरे-धीरे मेरे पैर ठीक हुए और ईश्वर को धन्यवाद देता हुआ मैं तुरीय के साथ चल दिया। तुरीय को प्रसन्न करने के लिए मैं रास्ते-भर गीत गाता आया। तुरीय बार-बार सुनती और बार-बार रोती। आधी रात के करीब में तालाब के पास पहुंचा। वहां पहुंचकर तुरीय ने कहा – सीधे जाओ, तुम पेशावर पहुंच जाओगे। देखो होशियारी से जाना नहीं तो कोई तुम्हें अपनी गोली का शिकार बना डालेगा। यह लो, तुम्हारे कपड़े हैं लेकिन रुपया जरूर भेज देना। तुम्हारी जमानत मैं लूंगी। अगर रुपया न आया, तो मेरे प्राण जायेंगे, और तुम्हारे भी। अगर रुपया आ जायेगा, तो कोई अफ्रीदी तुम पर हाथ न उठाएगा, चाहे तुम किसी को मार भी डालो। जाओ, ईश्वर तुम्हारी रक्षा करे और तुमको अपने बच्चों से मिलाए।
तुरीय फिर ठहरी नहीं। गुनगुनाती हुई लौट पड़ी। रात दो पहर बीत चुकी थी। चारों ओर भयानक निस्तब्धता छायी हुई थी, केवल वायु सांय-सांय करती हुई बह रही थी। तालाब के तट पर रुकना सुरक्षित न था। मैं धीरे-धीरे दक्षिण की ओर बढ़ा। बार-बार चारों ओर देखता जाता था। ईश्वर की कृपा से प्रातःकाल होते-होते मैं पेशावर की सरहद पर पहुंच गया। सरहद पर सिपाहियों का पहरा था। मुझे देखते ही तमाम फौज भर में हलचल मच गई। सभी लोग मुझे मरा समझे हुए थे। जीता-जागता लौटा हुआ देखकर सभी प्रसन्न हो गए। कर्नल हैमिल्टन साहब भी समाचार पाकर उसी समय मिलने के लिए आये और सब हाल पूछकर कहा – मेजर साहब, मैं आपको मरा हुआ समझता था। मेरे पास तुम्हारे दो पत्र आये थे लेकिन मुझे स्वप्न में भी विश्वास न हुआ था कि ये तुम्हारे लिखे हुए हैं। मैं तो उन्हें जाली समझता था। ईश्वर का धन्यवाद है कि तुम जीते बचकर आ गए।
मैंने कर्नल साहब को धन्यवाद दिया और मन-ही-मन कहा, काले आदमी का लिखा हुआ जो था और कहीं अगर गोरा आदमी लिखता, तो दो की कौन कहे, चार हजार रुपए पहुंच जाता। कितने ही गांव जला दिये जाते, और न जाने क्या होता।
मैं चुपचाप अपने घर आया। बाल-बच्चों को पाकर आत्मा संतुष्ट हुई। उसी दिन एक विश्वासी अनुचर के द्वारा दो हजार रुपया तुरीय के पास भेज दिया।
सरदार ने एक ठंडी सांस लेकर कहा – असदखां, अभी मेरी कहानी समाप्त नहीं हुई। अभी तो दुःखांत भाग अवशेष ही है। यहां आकर मैं धीरे-धीरे अपनी सब मुसीबतें भूल गया लेकिन तुरीय को न भूल सका। तुरीय की कृपा से ही मैं अपनी स्त्री और बच्चों से मिल गया था, यही नहीं, जीवन भी पाया था फिर भला मैं उसे कैसे भूल जाता।
महीनों और सालों बीत गए। मैंने न तुरया को और न उसके बाप को ही देखा। तुरीय ने आने के लिए कहा भी लेकिन वह आयी नहीं। वहां से आकर मैंने अपनी स्त्री को उसके मायके भेज दिया था क्योंकि ख्याल था कि शायद तुरीय आये, तो फिर मैं झूठा बनूंगा। लेकिन जब तीन साल बीत गए और तुरीय न आयी, तो मैं निश्चित हो गया और स्त्री को मायके से बुला लिया। हम लोग सुखपूर्वक दिन काट रहे थे कि अचानक फिर दुर्दशा की घड़ी आयी।
एक दिन संध्या के समय इसी बरामदे में बैठा हुआ, अपनी स्त्री से बातें कर रहा था कि किसी ने बाहर का दरवाजा खटखटाया। नौकर ने दरवाजा खोल दिया और बेधड़क जीना चढ़ती एक काबुली औरत ऊपर चली आयी। उसने बरामदे में आकर विशुद्ध पश्तो भाषा में पूछा – सरदार साहब कहां है?
मैंने कमरे के भीतर आकर पूछा – तुम कौन हो, क्या चाहती हो?
उसी स्त्री ने कुछ मूंगे निकालते हुए कहा – यह मूंगे मैं बेचने के लिए लायी हूं खरीदेंगे?
यह कहकर उसने बड़े-बड़े मूंगे निकालकर मेज़ पर रख दिए।
मेरी स्त्री भी मेरे साथ कमरे के भीतर आयी थी। वह मूंगे उठाकर देखने लगी। उसी काबुली स्त्री ने पूछ – सरदार साहब, यह कौन है आपकी? मैंने उत्तर दिया – मेरी स्त्री है, और कौन है?
काबुली स्त्री ने कहा – आपकी स्त्री तो मर चुकी थी। क्या आपने दूसरा विवाह किया है।
मैंने रोषपूर्ण स्वर में कहा – चुप बेवकूफ कहीं की, तू मर गई होगी।
मेरी स्त्री पश्तो नहीं जानती थी, वह तन्मय होकर मूंगे देख रही थी। किंतु मेरी बात सुनकर न मालूम क्यों काबुली औरत की आंखें चमकने लगी। उसने बड़े ही तीव्र स्वर में कहा – हां, बेवकूफ न होती, तो तुम्हें छोड़ कैसे देती? दोजखी पिल्ले, मुझसे झूठ बोला! ले, अगर तेरी स्त्री न मरी थी, तो अब मर गई।
कहते-कहते शेरनी की तरह लपक कर उसने एक तेज छुरा मेरी स्त्री की छाती में घुसेड़ दिया। मैं उसे रोकने के लिए आगे बढ़ा लेकिन वह कूदकर आंगन में चली गयी और बोली – अब पहचान ले, मैं तुरीय हूं। मैं आज तेरे घर में रहने के लिए आयी थी। मैं तुमसे विवाह करती और तेरी होकर रहती। तेरे लिए मैंने बाप, घर, सब कुछ छोड़ दिया था लेकिन तू झूठा है, मक्कार है। तू अब अपनी बीवी के नाम को रो, मैं आज से तेरे नाम को रोऊंगी। यह कहकर वह तेजी से नीचे चली गई।
अब मैं अपनी स्त्री के पास पहुंचा। छुरा ठीक हृदय में लगा था। एक ही वार ने उसका काम तमाम कर दिया था। डॉक्टर बुलवाया लेकिन वह मर चुकी थी।
कहते-कहते सरदार साहब की आंखों में आंसू भर आए। उन्होंने अपनी भीगी हुई आंखों को पोंछकर कहा – असदखां, मुझे सपने में भी अनुमान न था कि तुरीय इतनी पिशाच-हृदय हो सकेगी। अगर मैं पहले उसे पहचान लेता तो यह आफत न आने पाती लेकिन कमरे में अन्धकार था और इसके अतिरिक्त मैं उसकी ओर से निराश हो चुका था।
तब से फिर कभी तुरीय नहीं आयी। अब जब कभी मुझे देखती है, तो मेरी ओर देखकर नागिन की भांति फुंकारती हुई चली जाती है। इसे देखकर मेरा हृदय कांपने लगता है और मैं अवश हो जाता हूं। कई बार कोशिश की, मैं इसे पकड़वा दूं लेकिन उसे देखकर मैं बिलकुल निकम्मा हो जाता हूं हाथ-पैर बेकाबू हो जाते हैं, मेरी सारी वीरता हवा हो जाती है।
यही नहीं, तुरीय का मोह अब भी मेरे ऊपर है। मेरे बच्चों को हमेशा वह कोई-न-कोई बहुमूल्य चीज दे जाती है। जिस दिन बच्चे उसे नहीं मिलते, दरवाजे के भीतर फेंक जाती है। उसमें कागज का टुकड़ा बंधा होता है, जिसमें लिखा रहता है – सरदार साहब के बच्चों के लिए।
मैं अभी तक इस स्त्री को नहीं समझ पाया। जितना ही समझने का यत्न करता हूं उतनी ही यह कठिन हो जाती। नहीं समझ में आता कि वह मानवी है या राक्षसी।
इसी समय सरदार साहब के लड़के ने आकर कहा – देखिए, वही औरत यह सोने का ताबीज दे गई है।
