सरदार ने मेरी ओर देखकर कहा – देखा, असदखां मैं तुमसे कहता न था। देखो, आज भी यह ताबीज दे गई। न मालूम कितने ही ताबीज और कितनी ही दूसरी चीजें अर्जुन और निहाल को दे गई होगी। कहता हूं कि तुरीय बड़ी ही विचित्र स्त्री है।
सरदार साहब से विदा होकर मैं घर चला। चौरास्ते से बुड्ढ़े की लाश हटा दी गई थी, पर वहां पहुंचकर मेरे रोए खड़े हो गए। मैं आप-ही-आप एक मिनट वहां खड़ा हो गया। सहसा पीछे देखा। छाया की भांति एक स्त्री मेरे पीछे-पीछे चली आ रही थी। मुझे खड़ा देखकर वह स्त्री रुक गयी और एक दुकान में कुछ खरीदने लगी।
मैंने अपने हृदय से प्रश्न किया – क्या वह तुरीय है?
लय ने उत्तर दिया – हां शायद वही है।
तुरीय मेरा पीछा क्यों कर रही है? यह सोचता हुआ मैं घर पहुंचा और खाना खाकर लेटा पर आज की घटनाओं का मुझ पर ऐसा असर पड़ा था कि किसी तरह भी नींद न आती थी। जितना ही मैं सोने का यत्न करता, उतना ही नींद मुझ से दूर भागती।
फौजी घड़ियाल ने बारह बजाए, एक बजाए, दो बजाए लेकिन मुझे नींद न थी। मैं करवटें बदलता हुआ सोने का उपक्रम कर रहा था। इसी उधेड़बुन में कब नींद ने मुझे धर दबाया, जरा भी याद नहीं। यद्यपि मैं सो रहा था लेकिन मेरा ज्ञान जाग रहा था। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि कोई स्त्री, जिसकी आकृति तुरीय से बहुत कुछ मिलती थी, लेकिन उससे कहीं अधिक भयावनी थी, दीवार फोड़कर भीतर घुस आई है। उसके हाथ में एक तेज छुरा है, जो लालटेन के प्रकाश में चमक रहा है। वह दबे पांव, सतर्क नेत्रों से ताकती हुई धीरे-धीरे मेरी ओर बढ़ रही है। मैं उसे देखकर उठना चाहता हूं लेकिन हाथ-पैर मेरे काबू में नहीं है। मानों उनमें जान है ही नहीं। वह स्त्री मेरे पास पहुंच गई। थोड़ी देर तक मेरी ओर देखा, फिर अपने छुरे वाले हाथ को ऊपर उठाया। मैं चिल्लाने का उपक्रम करने लगा लेकिन मेरी घिग्घी बंध गई। शब्द कंठ से फूटा ही नहीं। उसने मेरे दोनों हाथों को अपने घुटने के नीचे दबाया और मेरी छाती पर सवार हो गई। मैं छटपटाने लगा और मेरी आंखें खुल गई। सचमुच एक काबुली औरत मेरी छाती पर सवार थी। उसके हाथ में छुरा था। और वह छुरा मारना ही चाहती थी।
मैंने कहा – कौन, तुरीय ?
यह वास्तव में तुरीय ही थी। उसके मुझे बलपूर्वक दबाते हुए कहा – हां, मैं तुरीय ही हूं। आज तूने मेरे बाप का खून किया है, उसके बदले में तेरी जान जायेगी।
यह कहकर उसने अपना :छुरा उठाया। इस समय मेरे सामने जीवन और मरण का प्रश्न था। जीवन की लालसा ने मुझमें साहस का संचार किया। मैं मरने के लिए तैयार न था। मेरे अरमान और उमंग अब भी बाकी थी। मैंने बलपूर्वक अपना दाहिना हाथ छुड़ाने का प्रयत्न किया और एक ही झटके में मेरा हाथ छूट गया। मैंने अपनी पूरी ताकत से तुरीय का छुरा वाला हाथ पकड़ लिया। न मालूम क्यों तुरीय ने कुछ भी विरोध न किया। वह मेरे हाथ को देखती हुई मेरी छाती से उतर आयी। उसकी आंखें पथरायी हुई थी और वह एकटक हाथ की ओर देख रही थी।
मैंने हंसकर कहा – तुरीय, अब तो पासा पलट गया। अब तेरे मरने की बारी है। तेरे बाप को मारा, अब तुझे भी मारता हूं।
तुरीय अब भी एकटक मेरे हाथ की ओर देख रही थी। उसने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। मैंने उसे झिंझोड़ते हुए कहा – बोलती क्यों नहीं? अब तो तेरी जान मेरी मुट्ठी में है। तुरीय का मोह टूटा। उसने बहुत गम्भीर और दृढ़ कंठ से कहा – तू मेरा भाई है। तूने अपने बाप को मारा है आज।
तुरीय की बात सुनकर मुझे उस पर भी हंसी आ गयी।
मैंने हंसते हुए कहा – अफ्रीदी मक्कार भी होते हैं, यह आज ही मुझे मालूम हुआ। तुरीय ने शांत स्वर में कहा – तू मेरा खोया हुआ बड़ा भाई नाजिर है। वह जो तेरे हाथ में निशान है, वहीं बतला रहा है कि तू मेरा खोया हुआ भाई है।
बचपन से ही मेरे हाथ में एक सांप गुदा हुआ था। और यही मेरी पहचान फौजी रजिस्टर में भी लिखी हुई थी।
मैंने हंसकर कहा – तुरीय, तू मुझे भुलावा नहीं दे सकती। मैं अब तुझे किसी तरह न छोडूंगा।
तुरीय ने अपने हाथ से छुरा फेंककर कहा – सचमुच तू मेरा भाई है। अगर तुझे विश्वास नहीं होता, तो देख, मेरे दाहिने हाथ में भी ऐसा ही सांप गुदा हुआ है।
मैंने तुरीय के हाथ पर दृष्टि डाली, तो वहां भी बिलकुल मेरे ही जैसा सांप गुदा हुआ था। मैंने कुछ सोचते हुए कहा – तुरीय, मैं तेरा विश्वास नहीं कर सकता, यह इत्तफाक की बात है।
तुरीय ने कहा – मेरा हाथ छोड़ दे। मैं तुझ पर वार न करूंगी। अफ्रीदी झूठ नहीं बोलते। मैंने उसका हाथ छोड़ दिया, वह पृथ्वी पर बैठ गई और मेरी ओर देखने लगी। थोड़ी देर बाद उसने कहा – अच्छा, तुझे अपने मां-बाप का पता है?
मैंने सिर हिलाकर उत्तर दिया – नहीं, मैं सरकारी अनाथालय में पाला गया हूं।
मेरी बात सुनकर तुरीय उठ खड़ी हुई और बोली – तब तू मेरा खोया हुआ बड़ा भाई नाजिर ही है। मेरे पैदा होने के एक साल पहले तू खोया था। मेरे मां-बाप तब सरकारी फौज पर छापा डालने के लिए आए थे और तू भी साथ था। मेरी मां लड़ने में बड़ी होशियार थी। तू उनकी पीठ से बंधा हुआ था और वे लड़ रही थी। इसी समय एक गोली उसके पैर में लगी और वह गिरकर बेहोश हो गई। बस, कोई तुझे खोल ले गया। मेरी मां को मेरा बाप अपने कंधे पर उठा लाया, लेकिन तुझे खोज न सका। बहुत तलाश की लेकिन कहीं भी तेरा पता न लगा। अम्मा अक्सर तेरी चर्चा किया करती थी। उसके हाथ में निशान था।
यह कहकर उसने फिर वही हाथ मुझे दिखलाया। मैं उसका और अपना सांप मिलाने लगा। वास्तव में दोनों सांप हू-ब-हू एक-से थे, बाल भर भी अन्तर न थी। मैं हताश-सा होकर चारपाई पर गिर पड़ा।
तुरीय मेरे पास बैठकर – स्नेह से मेरे माथे का पसीना पोंछने लगी। उसने कहा – नाजिर, मां कहती थी कि तू मरा नहीं, जिंदा है। एक दिन तू हम लोगों से मिलेगा। तुरीय की बातों पर अब मुझे विश्वास हो चला था। जाने कौन मेरे हृदय में बैठा हुआ कह रहा था कि तुरीय जो कहती है, ठीक है। मैंने एक लम्बी सांस लेकर कहा – क्यों तुरीय, मैंने जिसे आज मारा है, वह हम लोगों का बाप था?
तुरीय के मुंह पर शोक का एक छोटा-सा बादल घिर आया। उसने बड़े ही दुःखपूर्ण स्वर में कहा – नाजिर, वह अभागा बाप ही था। कौन जनता था कि वह अपने प्यारे लड़के के हाथों हलाल होगा।
फिर सांत्वना के स्वर में बोली – लेकिन नाजिर तूने तो अनजाने में यह काम किया है। बाप के मरने से मैं बिलकुल अकेली हो गई थी लेकिन अब तुझे पाकर बाप के रंज को भूल जाऊंगी। नाजिर, तू रंज न कर। तुझे क्या मालूम था कि कौन तेरा बाप है और कौन तेरी मां है। देख, मैं ही तुझे मारने के लिए आयी थी, तुझे मार डालती लेकिन खुदा की मेहरबानी से मैंने अपना खानदानी निशान देख लिया। खुदा की ऐसी ही मरजी थी।
तुरीय से मालूम हुआ कि मेरे बाप का नाम हैदर खां था, जो अफ्रीदियों के एक गिरोह का सरदार था। मैंने सरदार हिम्मत सिंह के संबंध में तुरीय से बातें की तो मालूम हुआ कि तुरीय सरदार साहब को प्यार करने लगी थी। वह हमारे बाप से लड़-भिड़ कर सरदार साहब से निकाह करने आयी थी, वहां इनकी स्त्री को पाकर वह ईर्ष्या और क्रोध से पागल हो गई, और उसने उनकी स्त्री की हत्या कर डाली। काबुली औरत के भेष में जाकर वह कुछ मजाक करना चाहती थी लेकिन घटना-चक्र उसे दूसरी ओर ले गया।
मैंने सरदार साहब की दशा का वर्णन किया। सुनकर वह कुछ सोचती रही और फिर कहा – नहीं, वह आदमी झूठा और दगाबाज है। मैं उससे विवाह नहीं करूंगी। लेकिन तेरी खातिर अब सब कुछ भूल जाऊंगी। कल उनके बच्चों को ले आना, मैं प्यार करूंगी।
प्रातःकाल तुरीय को देखकर मेरा नौकर आश्चर्य करने लगा। मैंने उससे कहा – यह मेरी बहन है।
नौकर को मेरी बात पर विश्वास न हुआ। तब मैंने विस्तारपूर्वक सब हाल कहा और उसे उसी समय अपने बाप की लाश की खबर लेने के लिए भेजा। नौकर ने आकर कहा – लाश अभी तक थाने में रखी हुई है।
मैंने बड़े साहब के नाम एक पत्र लिखकर सब हाल बता दिया और लाश पाने के लिए दरखास्त की। उसी समय साहब के यहां से स्वीकृति आ गई।
एक पत्र लिखकर मेजर साहब को बुलवाया।
मेजर साहब ने आकर कहा – क्या बात है असद? इतनी जल्दी आने के लिए क्यों लिखा?
मैंने हंसते हुए कहा – मेजर साहब, मेरा नाम असद नहीं रहा, मेरा असली नाम है नाजिर।
मेजर साहब ने आश्चर्य से मेरी ओर देखते हुए कहा – रात भर में तुम पागल तो नहीं हो गए।
मैंने हंसते हुए कहा – नहीं सरदार साहब, अभी और सुनिए। तुरीय मेरी सगी बहन है, और जिसको कल मैंने मारा, वह मेरा बाप था।
सरदार साहब मेरी बात सुनकर मानो आकाश से गिर पड़े। उनकी आंखें कपाल पर चढ़ गई। उन्होंने कहा – क्यों असद, तुम मुझे पागल कर डालोगे।
मैंने सरदार साहब का हाथ पकड़कर कहा – आइए, तुरीय के मुंह से ही सब हाल सुन लीजिए। तुरीय मेरे यहां बैठी हुई आपकी प्रतीक्षा कर रही है।
सरदार साहब सकते की हालत में मेरे पीछे-पीछे चले। तुरीय उन्हें आते देखकर उठ खड़ी हुई और हंसती हुई बोली – कैदी, तुम वही गीत फिर गाओ।
तुरीय की बात सुनकर मैं और सरदार साहब भी हंसने लगे।
