‘मगर गुलशन को क्या करोगे?’
‘उसे तलाक दे दूँगा।’
‘हां, वही मैं भी चाहती हूँ। तो मैं तुम्हारे साथ चलूँगी, अभी, इस दम। शापूर से अब मेरा कोई संबंध नहीं है।’
कावसजी को अपने दिल में कम्पन का अनुभव हुआ। बोले- लेकिन अभी तो वहाँ कोई तैयारी नहीं है।
‘मेरे लिए किसी तैयारी की जरूरत नहीं। तुम सब कुछ हो। एक टैक्सी ले लो। मैं इसी वक्त चलूँगी।’
कावसजी टैक्सी की खोज में पार्क से निकले। वह एकान्त में विचार करने के लिए थोड़ा-सा समय चाहते थे, इस बहाने से उन्हें समय मिल गया। उन पर अब जवानी का वह नशा न था, जो विवेक- की आँखों पर छा कर बहुधा हमें गड्ढे में गिरा देता है। अगर कुछ नशा था, तो अब तक हिरन हो चुका था। वह किस फंदे में गला डाल रहे हैं, यह खूब समझते थे। शापूरजी उन्हें मिट्टी में मिला देने के लिए पूरा जोर लगाएँगे यह भी उन्हें मालूम था। गुलशन उन्हें सारी दुनिया में बदनाम कर देगी, यह भी वह जानते थे। ये सब विपत्तियाँ झेलने को यह तैयार थे। शापूर की जुबान बंद करने के लिए उनके पास काफी दलीलें थीं। गुलशन को भी स्त्री समाज में अपमानित करने का उनके पास काफी मसाला था। डर था तो यह कि शीरीं का यह प्रेम टिक सकेगा या नहीं। अभी तक शीरीं ने केवल उनके सौजन्य का परिचय पाया है, केवल उनकी न्याय, सत्य और उदारता से भरी बातें सुनी हैं। इस क्षेत्र में शापूरजी से उन्होंने बाजी मारी है, लेकिन उनके सौगंध और उनकी प्रतिभा का जादू उनके बेसामान घर में कुछ दिन रहेगा, इसमें उन्हें सन्देह था। हलुवा की जगह चुपड़ी रोटियाँ भी मिलें, तो आदमी सब्र कर सकता है। रूखी भी मिल जाएँ? तो वह सन्तोष कर लेगा लेकिन सूखी घास सामने देखकर तो ऋषि-मुनि भी जामे से बाहर हो जाएँगे। शीरीं उनसे प्रेम करती है, लेकिन प्रेम के त्याग की भी तो सीमा है। दो-चार दिन भावुकता के उन्माद में वह सब्र कर ले लेकिन भावुकता कोई टिकाऊ तो चीज नहीं है। वास्तविकता के आघातों के सामने यह भावुकता के दिन टिकेगी। उस परिस्थिति की कल्पना करके कावसजी काँप उठे। अब तक वह रनिवास में रही है। अब उसे एक खपरैल का कॉटेज मिलेगा, जिसके फर्श पर कालीन की जगह टाट भी नहीं, कहां वर्दी-पोश नौकरों की पलटन, कहां एक बुढ़िया मामी की संदिग्ध सेवा, जो बात-बात पर भुनभुनाती है, धमकाती है, कोसती है। उसका आधा वेतन तो संगीत सिखाने वाला मास्टर ही खा जाएगा और शापूरजी ने कहीं ज्यादा कमीनेपन से काम लिया, तो उसको बदमाशों से पिटवा भी सकते हैं। पिटाई से वह नहीं डरते। वह तो उनकी फतह होगी, लेकिन शीरीं की भोग-लालसा पर कैसे विजय पाएँ। बुढ़िया मामी जब मुँह लटकाए आकर उसके सामने रोटियाँ और सालन परोस देगी, तब शीरीं के मुख पर कैसी विदग्ध विरक्ति छा जाएगी! कहीं वह खड़ी होकर उनको और अपनी किस्मत को कोसने न लगे। नहीं, अभाव की पूर्ति सौजन्य से नहीं हो सकती। शीरीं का वह रूप कितना विकराल होगा।
सहसा एक कार सामने से आती दिखाई दी। कावसजी ने देखा- शापूरजी बैठे हुए थे। उन्होंने हाथ उठाकर कार को रुकवा लिया और पीछे दौड़ते हुए जाकर शाहजी से बोले- आप कहीं जा रहे हैं?
‘यों ही जरा घूमने निकला था।’
‘शीरीं बानू पार्क में हैं, उन्हें भी लेते जाइए।’
‘वह तो मुझसे लड़कर आई हैं कि अब इस घर में कभी कदम न रखूँगी।’
‘और आप सैर करने जा रहे हैं?’
‘तो क्या आप चाहते हैं, बैठकर रोऊँ?’
‘वह बहुत रो रही हैं।’
‘सच!’
‘हां, बहुत रो रही हैं।’
‘तो शायद उसकी बुद्धि जाग रही है।’
‘तुम इस समय उन्हें मना लो, तो वह हर्ष से तुम्हारे साथ चली जाए।’
‘मैं परीक्षा लेना चाहता हूँ कि वह बिना मनाए मानती है या नहीं।’
‘मैं बड़े असमंजस में पड़ा हुआ हूँ। मुझ पर दया करो, तुम्हारे पैरों पड़ता।’
‘जीवन में जो थोड़ा-सा आनन्द है, उसे मनावन के नाट्य में नहीं छोड़ना चाहता।’
कार चल पड़ी और कावसजी कर्तव्य-भ्रष्ट से वहीं खड़े रह गए। देर हो रही थी। सोचा- कहीं शीरीं यह न समझ ले कि मैंने भी उसके साथ दगा की लेकिन जाऊँ भी तो क्यों कर? अपने सम्पादकीय कुटीर में उस देवी को प्रतिष्ठित करने की कल्पना ही उन्हें हास्यास्पद लगी। वहाँ के लिए तो गुलशन ही उपयुक्त है। कुढ़ती है, कठोर बातें कहती है, रोती है लेकिन वक्त से भोजन तो देती है। फटे हुए कपड़ों को रफू तो कर देती है, कोई मेहमान आ जाता है, तो कितने प्रसन्न मुख से उसका आदर-सत्कार करती है, मानो उसके मन में आनन्द-ही-आनन्द है। कोई छोटी-सी चीज भी दे दो, तो कितना फूल उठती है। थोड़ी-सी तारीफ करके चाहे उससे गुलामी करवा लो। अब उन्हें अपनी जरा-जरा-सी बात पर झुँझला पड़ना, उसकी सीधी-सी बातों का टेढ़ा जवाब देना, विकल करने लगा। उस दिन उसने यही तो कहा था कि उसकी छोटी बहन की साल-गिरह पर कोई उपहार भेजना चाहिए। इसमें बरस पड़ने की कौन-सी बात थी? माना वह अपना सम्पादकीय नोट लिख रहे थे, लेकिन उनके लिए सम्पादकीय नोट जितना महत्त्व रखता है, क्या गुलशन के लिए उपहार भेजना उतना ही या उससे ज्यादा महत्त्व नहीं रखता है! बेशक, उनके पास उस समय रुपये न थे, तो क्या वह मीठे शब्दों में यह नहीं कह सकते थे कि डार्लिंग! मुझे खेद है, अभी हाथ खाली हैं, दो-चार रोज में मैं कोई प्रबंध कर दूँगा। यह जवाब सुनकर वह चुप हो जाती। और अगर कुछ भुनभुना ही लेती, तो उसका क्या बिगड़ जाता था? अपनी टिप्पणियों से वह कितनी शिष्टता का व्यवहार करते हैं। कलम जरा भी गर्म पड़ जाए, तो गर्दन नापी जाए। गुलशन पर वह क्यों बिगड़ जाते हैं। इसलिए कि वह उसके अधीन है और उन्हें रूठ जाने के सिवा कोई दण्ड नहीं दे सकती। कितनी नीच कायरता है कि हम सबलों के सामने दुम हिलाए और जो हमारे लिए अपने जीवन का बलिदान कर रही है, उसे काटने दौड़े।
सहसा एक ताँगा आता दिखाई दिया और सामने आते ही उस पर से एक स्त्री उतरकर उनकी ओर चली। अरे! यह तो गुलशन है। उन्होंने आतुरता से आगे बढ़कर उसे गले लगा लिया और बोले- ‘तुम इस वक्त यहाँ कैसे आईं? मैं अभी- अभी तुम्हारा ही खयाल कर रहा था।’
गुलशन ने गदगद कंठ से कहा- ‘तुम्हारे ही पास जा रही थी। शाम को बरामदे में बैठकर तुम्हारा लेख पढ़ रही थी। न-जाने कब झपकी आ गई और मैंने एक बुरा सपना देखा। मारे डर के मेरी नींद खुल गई और मिलने चल पड़ी। इस वक्त यहाँ कैसे खड़े हो? कोई दुर्घटना तो नहीं हो? रास्ते-भर मेरा कलेजा धड़क रहा था।’
कावसजी ने आश्वासन देते हुए कहा- ‘मैं तो बहुत अच्छी तरह हूँ। तुमने क्या स्वप्न देखा?’
मैंने देखा- ‘जैसे तुमने एक रमणी को कुछ कहा है और वह तुम्हें बाँधकर घसीटें लिए जा रही है।’
‘कितना बेहूदा स्वप्न है और तुम्हें इस पर विश्वास भी आ गया? मैं तुमसे कितनी बार कह चुका कि स्वप्न केवल चिन्तित मन की क्रीड़ा हैं।’
‘तुम मुझसे छिपा रहे हो। कोई-न-कोई बात हुई है जरूर। तुम्हारा चेहरा बोल रहा है। अच्छा, तुम इस वक्त यहाँ क्यों खड़े हो?’ ‘यह तो तुम्हारे पढ़ने का समय है।’
‘यों ही, जरा घूमने चला आया था।’
‘झूठ बोलते हो। खा जाओ मेरे सिर की कसम।’
‘अब तुम्हें एतबार ही न आये तो क्या करूँ?’
‘कसम क्यों नहीं खाते?’
‘कसम को मैं झूठ का अनुमोदन समझता हूँ।’
गुलशन ने फिर उनके मुख पर तीव्र दृष्टि डाली। फिर एक क्षण के बाद बोली- ‘अच्छी बात है। चलो, घर चलें।’
कावसजी ने मुस्कराकर कहा- ‘तुम फिर मुझसे लड़ाई करोगी?’
‘सरकार से लड़कर भी तुम सरकार की अमलदारी में रहते हो कि नहीं? मैं भी तुमसे लड़ेगी? मगर तुम्हारे साथ रहूँगी।’
‘हम इसे कब मानते हैं कि यह सरकार की अमलदारी है?’
‘यह तो मुँह से कहते हो। तुम्हारा रोयां-रोयां इसे स्वीकार करता है, नहीं तो तुम इस वक्त जेल में होते।’
‘अच्छा, चलो, मैं थोड़ी देर में आता हूँ।’
‘मैं अकेली नहीं जाने की। आखिर सुनू तुम यहाँ क्या कर रहे हो?’ कावसजी ने बहुत कोशिश की गुलशन यहाँ से किसी तरह चली जाए, लेकिन यह जितना ही इस पर जोर देते थे, उतना ही गुलशन का आग्रह भी बढ़ता जाता था। आखिर मजबूर होकर कावसजी को शीरीं और शापूर के झगड़े का वृत्तांत कहना ही पड़ा, यद्यपि इस नाटक में उनका अपना जो भाग था, उसे उन्होंने बड़ी होशियारी से छिपा देने की चेष्टा की।
गुलशन ने विचार करके कहा- ‘तो तुम्हें भी यही सनक सवार हुई।’
कावसजी ने तुरन्त प्रतिवाद किया, ‘कैसी सनक! मैंने क्या किया? अब यह तो इनसानियत नहीं है कि एक मित्र की स्त्री मेरी सहायता माँगे और मैं बगलें झाँकने लगूं।’
‘झूठ बोलने के लिए बड़ी अकल की जरूरत होती है प्यारे, और वह तुममें नहीं है समझे? चुपके से जाकर शीरीं बानू को सलाम करो और कहो कि आराम से अपने घर में बैठे। सुख कभी सम्पूर्ण नहीं मिलता। विधि इतना घोर पक्षपात नहीं कर सकता। गुलाब में कांटे होते हैं। अगर सुख भोगना है तो उसे उसके दोषों के साथ भोगना पड़ेगा। अभी विज्ञान ने कोई ऐसा उपाय नहीं निकाला कि हम सुख के काँटों को अलग कर सके। मुक्त का माल उड़ाने वालों को ऐय्याशी के सिवा और सूझेगी क्या? धन अगर सारी दुनिया का विलास न मोल लेना चाहे, तो वह धन ही कैसा। शीरीं के लिए भी क्या वे द्वार नहीं खुले हैं, जो शापूरजी के लिए खुले हैं? उससे कहो- शापूर के घर में रहे, उनके धन को भोगे और भूल जाए कि वह शापूर की स्त्री है, उसी तरह जैसे शापूर भूल गया है कि यह शीरीं का पति है। जलना और कुढ़ना छोड़कर, विलास का आनंद लूटे। उसका धन एक- से-एक रूपवान, विद्वान् नवयुवकों को खींच लाएगा। तुमने ही एक बार मुझसे कहा था कि एक जमाने में फ्रांस में धनवान विलासिनी महिलाओं का समाज पर आधिपत्य था। उनके पति सब कुछ देखते थे और मुँह खोलने का साहस न करते थे। और मुँह क्यों खोलते। वे खुद इसी धुन में मस्त थे। यही धन का प्रसाद है। तुमसे न बने, तो चलो, मैं शीरीं को समझा दूँ। ऐय्याश मर्द की स्त्री ऐय्याश न हो, तो यह उसकी कायरता है- लतखोरपन है।’
कावसजी ने चकित होकर कहा- ‘लेकिन तुम भी तो धन की उपासक हो?’ गुलशन ने शर्मिंदा होकर कहा- ‘यही तो जीवन का शाप है। हम उसी चीज पर लपकते हैं, जिससे हमारा अमंगल है, सत्यानाश है। मैं बहुत दिनों पापा के इलाके में रही हूँ। चारों तरफ किसान, मजदूर रहते थे। बेचारे दिन-भर पसीना बहाते थे, शाम को घर जाते थे। ऐय्याशी और बदमाशी का कहीं नाम न था। और यहाँ शहर में देखती हूँ कि सभी बड़े घरों में यही रोना है। सब-के-सब हथकंडों से पैसे कमाते हैं और अस्वाभाविक जीवन बिताते हैं। आज तुम्हें कहीं से धन मिल जाए, तो तुम भी शापूर बन जाओगे, निश्चय।
‘तब शायद तुम भी अपने बताए हुए मार्ग पर चलोगी, क्यों?’
‘शायद नहीं, अवश्य।’