शापूरजी ने हैट उतारकर खूँटी पर लटकाते हुए कहा–क्षमा कीजिएगा, मैं रात को एक मित्र के घर तो गया था। दावत थी, आने में देर हुई, तो मैंने सोचा, अब कौन घर जाए।
कावसजी ने व्यंग्य-मुस्कान के साथ कहा-किसके यहाँ दावत थी? मेरे रिपोर्टर ने तो कोई खबर नहीं दी। जरा मुझे नोट करा दीजिएगा।
उन्होंने जेब से नोटबुक निकाली।
शापूरजी ने सतर्क होकर कहा- ऐसी कोई बड़ी दावत नहीं थी जी, दो-चार मित्रों का प्रीतिभोज था।
‘फिर भी समाचार तो जानना ही चाहिए। जिस प्रीतिभोज में आप जैसे प्रतिष्ठित लोग शरीक हों, वह साधारण बात नहीं हो सकती। क्या नाम है मेजबान साहब का?’
‘आप चौंकेगे तो नहीं?’
‘बतलाएँ तो।’
‘मिस गौहर!’
‘मिस गौहर!’
‘जी हां आप चौंके क्यों? क्या आप इसे तस्लीम नहीं करते कि दिन-भर रुपए-आने-पाई से सिर मारने के बाद मुझे कुछ मनोरंजन करने का भी अधिकार है, नहीं तो जीवन भार हो जाए।’
‘मैं इसे नहीं मानता।’
‘क्यों?’
‘इसीलिए कि मैं इस मनोरंजन को अपनी ब्याहता स्त्री के प्रति अन्याय समझता हूँ।’
शापूरजी नकली हँसी हँसे-वही दकियानूसी बात। आपको मालूम होना चाहिए, आज का समय ऐसा कोई बंधन स्वीकार नहीं करता।
‘और मेरा खयाल है कि कम-से-कम इस विषय में आज का समाज एक पीढ़ी पहले के समाज से कहीं परिष्कृत है। अब देवियों का यह अधिकार स्वीकार किया जाने लगा है।’
‘यानी देवियाँ पुरुषों पर हुकूमत कर सकती हैं?’
‘उसी तरह, जैसे पुरुष देवियों पर हुकूमत कर सकते हैं।’
‘मैं इसे नहीं मानता। पुरुष, स्त्री का मोहताज नहीं है, स्त्री, पुरुष की मोहताज है।’
‘आपका आशय यही तो है कि स्त्री अपने भरण-पोषण के लिए पुरुष पर अवलम्बित है?’
‘अगर आप इन शब्दों में कहना चाहते हैं, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं मगर अधिकार की बागडोर जैसे राजनीति में, वैसे ही समाज नीति में धन-बल के हाथ रही है और रहेगी।’
‘अगर दैवयोग से धनोपार्जन का काम स्त्री कर रही हो और पुरुष कोई काम न मिलने के कारण घर बैठा हो, तो स्त्री को अधिकार है कि अपना मनोरंजन जिस तरह चाहे करे?’
‘मैं स्त्री को यह अधिकार नहीं दे सकता।’
‘यह आपका अन्याय है।’
‘बिलकुल नहीं। स्त्री पर प्रकृति ने ऐसे बंधन लगा दिए हैं कि वह जितना भी चाहे, पुरुष की भांति स्वच्छंद नहीं रह सकती और न पशु-बल में पुरुष का मुकाबला ही कर सकती है। हां, गृहिणी का पद त्याग कर या अप्राकृतिक जीवन का आश्रय लेकर, वह सब कुछ कर सकती है।’
‘आप लोग उसे मजबूर कर रहे हैं कि अप्राकृतिक जीवन का आश्रय ले।’
‘मैं ऐसे समय की कल्पना ही नहीं कर सकता, जब पुरुषों का आधिपत्य स्वीकार करने वाली औरतों का काल पड़ जाए। कानून और सभ्यता मैं नहीं जानता। पुरुषों ने स्त्रियों पर हमेशा राज किया है और करेंगे।’
सहसा कावसजी ने पहलू बदला। इतनी थोड़ी-सी देर में ही यह अच्छे-खासे कूटनीति-चतुर हो गए थे। शापूरजी को प्रशंसा-सूचक आंखों से देखकर बोले- तो हम और आप दोनों एक विचार के हैं। मैं आपकी परीक्षा ले रहा था। मैं भी स्त्री को गृहिणी, माता और स्वामिनी, सब-कुछ मानने को तैयार हूं, पर उसे स्वच्छन्द नहीं देख सकता। अगर कोई स्त्री स्वच्छन्द होना चाहती है, तो उसके लिए मेरे घर में स्थान नहीं है। अभी मिसेज शापूर की बातें सुनकर मैं दंग रह गया। मुझे इसकी कल्पना भी न थी कि कोई नारी मन में इतने विद्रोहात्मक भावों को स्थान दे सकती है।
मि. शापूर की गर्दन की नसें तन गईं, नथुने फूल गए। कुर्सी से उठकर बोले- अच्छा, तो अब शीरीं ने यह ढंग निकाला। मैं अभी उससे पूछता हूँ आपके सामने पूछता हूँ-अभी फैसला कर डालूँगा। मुझे उसकी परवाह नहीं है। किसी की परवाह नहीं है। बेवफा औरत! जिसके हृदय में जरा भी संवेदना नहीं, जो मेरे जीवन में जरा-सा आनंद भी नहीं सह सकती, चाहती है, मैं उसके आँचल में बँधा-बँधा घूमू! शापूर से यह आशा रखती है? अभागिनी भूल जाती है कि आज मैं आंखों का इशारा कर दूँ तो एक सौ एक शीरियाँ मेरी उपासना करने लगें, जी हां मेरे इशारों पर नाचें। मैंने इसके लिए जो कुछ किया, बहुत कम पुरुष किसी स्त्री के लिए करते हैं। मैंने… मैंने…
उन्हें खयाल आ गया कि वह जरूरत से ज्यादा बहके जा रहे हैं। शीरीं की प्रेममय सेवाएँ याद आईं, रुककर बोले-लेकिन मेरा खयाल है कि वह अब भी समझ से काम ले सकती है। मैं उसका दिल नहीं दुखाना चाहता। मैं यह भी जानता हूँ कि वह ज्यादा-से-ज्यादा जो कर सकती है, वह शिकायत है। इसके आगे बढ़ने की हिमाकत वह नहीं कर सकती। औरतों को मना लेना बहुत मुश्किल नहीं है, कम से कम मुझे तो यही तर्जुबा है।
कावसजी ने खंडन किया- मेरा तर्जुबा तो कुछ और है।
‘हो सकता है मगर आपके पास खाली बातें हैं, मेरे पास लक्ष्मी का आशीर्वाद है।’
‘जब मन में विद्रोह के भाव जम गए, तो लक्ष्मी के टाले भी नहीं टल सकते।’
शापूरजी ने विचारपूर्ण भाव से कहा- ‘शायद आपका विचार ठीक है।’
कई दिन के बाद कावसजी की शीरीं से पार्क में मुलाकात हुई। वह इसी अवसर की खोज में थे। उनका स्वर्ग तैयार हो चुका था। केवल उसमें शीरीं को प्रतिष्ठित करने की करार थी। उस शुभ-दिन की कल्पना में वह पागल से हो रहे थे। गुलशन को उन्होंने उसके मैके भेज दिया था। भेज क्या दिया था, वह रूठकर चली गई थी। जब शीरीं उनकी दरिद्रता का स्वागत कर रही है, तो गुलशन की खुशामद क्यों की जाए? लपक कर शीरीं से हाथ मिलाया और बोले- आप खूब मिलीं! मैं आज आने वाला था।
शीरीं ने गिला करते हुए कहा- आपकी राह देखते-देखते आँखें थक गईं। आप भी ज़बानी हमदर्दी ही करना जानते हैं। आपको क्या खबर, इन कई दिनों में मेरी आंखों से कितने आंसू बहे हैं।
कावसजी ने शीरीं बाबू की उत्कंठा-पूर्ण मुद्रा देखी, जो बहुमूल्य रेशमी साड़ी की आब से और भी दमक उठी थी, और उनका हृदय अंदर से बैठता हुआ जान पड़ा। उस छात्र की-सी दशा हुई, जो अंतिम परीक्षा पास कर चुका हो और जीवन का प्रश्न उसके सामने भयंकर रूप में खड़ा हो। काश, वह कुछ दिन और परीक्षाओं की भूल-भूलैया में जीवन के स्वप्नों का आनंद ले सकता। उस स्वप्न के सामने यह सत्य कितना डरावना था। अभी तक कावसजी ने मधुमक्खी का शहद ही चखा था। इस समय वह उनके मुख पर मँडरा रही थी और वह डर रहे थे कि कहीं डंक न मारे।
दबी हुई आवाज से बोले- मुझे यह सुनकर बड़ा दुःख हुआ। मैंने तो शापूर को बहुत समझाया था।
शीरी ने उनका हाथ पकड़कर एक बेंच पर बिठा दिया और बोली- उन पर अब समझाने-बुझाने का कोई असर न होगा। और मुझे ही क्या गरज पड़ी है कि मैं उनके पाँव सहलाती रहूँ? आज मैंने निश्चय कर लिया है, अब उस घर में लौटकर न जाऊंगी। अगर उन्हें अदालत में जलील होने का शौक है, तो मुझ पर दावा करें, मैं तैयार हूँ। मैं जिसके साथ नहीं रहना चाहती, उसके साथ रहने के लिए ईश्वर भी मुझे मजबूर नहीं कर सकता, अदालत क्या कर सकती है? अगर तुम मुझे आश्रय दे सकते हो, तो मैं तुम्हारी बनकर रहूँगी, जब तक तुम मेरे रहोगे। अगर तुममें इतना आत्मबल नहीं है, तो मेरे लिए दूसरे द्वार खुल जाएँगे। अब साफ-साफ बतलाओ, क्या वह सारी सहानुभूति ज़बानी थी?
कावसजी ने कलेजा मजबूत करके कहा- नहीं-नहीं, शीरीं, खुदा जानता है, मुझे तुमसे कितना प्रेम है। तुम्हारे लिए मेरे हृदय में स्थान है।