उन्हीं दिनों पिताजी का वहां से तबादला हो गया। नई दुनिया देखने की खुशी में ऐसा फूला कि अपने हमजोलियों से बिछुड़ जाने का बिलकुल दुःख न हुआ। पिताजी दुःखी थे। यह बड़ी आमदनी की जगह थी। अम्मां जी भी दुःखी थीं, यहां सब चीजें सस्ती थीं और मुहल्ले के स्त्रियों से घराव-सा हो गया था, लेकिन मैं मारे खुशी के फूला न समाता था। लड़कों से जीट उड़ा रहा था, वहां ऐसे घर थोड़े ही होते हैं। ऐसे-ऐसे ऊंचे घर हैं कि आसमान से बातें करते हैं। वहां के अंग्रेजी स्कूल में कोई मास्टर लड़कों को पीटे, तो उसे जेल हो जाय। मेरे मित्रों की फैली हुई आंखें और चकित-मुद्रा बतला रही थीं कि मैं उनकी निगाह में कितना ऊंचा उठ गया हूं। बच्चों में मिथ्या को सत्य बना लेने की वह शक्ति है, जिसे हम, जो सत्य को मिथ्या बना लेते हैं, क्या समझेंगे। उन बेचारों को मुझसे कितनी स्पर्द्धा हो रही थी। मानो कह रहे थे – तुम भाग्यवान हो भाई, जाओ हमें तो इस उजाड़ ग्राम में जीना भी है और मरना भी।
बीस साल गुजर गये। मैंने इंजीनियरी पास की और उसी जिले का दौरा करता हुआ, उसी कस्बे में पहुंचा और डाक बंगले में ठहरा। उस स्थान को देखते ही इतनी मधुर बाल-स्मृतियां हृदय में जाग उठीं कि मैंने छड़ी उठाई और कस्बे की सैर करने निकला। आंखें किसी प्यासे पथिक की भांति बचपन के उन क्रीड़ा-स्थलों को देखने के लिए व्याकुल हो रही थीं, पर उस परिचित नाम के सिवा वहां और कुछ परिचित न था। जहां खंडहर था, वहां पक्के मकान खड़े थे। जहां बरगद का पुराना पेड़ था, वहां अब एक सुन्दर बगीचा था। स्थान की कायापलट हो गयी थी। अगर उसके नाम और स्थिति का ज्ञान न होता, तो मैं इसे पहचान भी न सकता। बचपन की संचित स्मृतियां बांहें खोले अपने उन पुराने मित्रों से गले मिलने को अधीर हो रही थीं, मगर वह दुनिया बदल गयी थी। ऐसा जी होता था कि उस धरती से लिपटकर रोऊं और कहूं, तुम मुझे भूल गयीं, मैं तो अब भी तुम्हारा वही रूप देखना चाहता हूं।
सहसा एक खुली हुई जगह में मैंने दो-तीन लड़कों को गुल्ली-डण्डा खेलते देखा। एक क्षण के लिए मैं अपने को बिलकुल भूल गया। भूल गया कि मैं एक ऊंचा अफसर हूं, साहबी ठाट में, रौब और अधिकार के आवरण में।
जाकर एक लड़के से पूछा – ‘क्यों बेटे, यहां कोई गया नाम का आदमी रहता है?’
एक लड़के ने गुल्ली-डण्डा समेटकर सहमे हुए स्वर में कहा-‘कौन गया? गया चमार?’
मैंने यों ही कहा- ‘हां-हां वही। गया नाम का कोई आदमी है, तो शायद वही हो।’
‘हां, है तो।’
‘जरा उसे बुलाकर ला सकते हो?’
लड़का दौड़ा हुआ गया और एक क्षण में एक पांच हाथ के काले देव को साथ लिए आता दिखाई दिया। मैं दूर ही से पहचान गया। उसकी ओर लपकना चाहता था कि उसके गले लिपट जाऊं, पर कुछ सोचकर रह गया। बोलो- ‘कहो गया, मुझे पहचानते हो?’
गया ने झुककर सलाम किया- ‘हां मालिक, भला पहचानूंगा क्यों नहीं? आप मजे में रहे?’
‘बहुत मजे में। तुम अपनी कहो?’
‘डिप्टी साहब का साईस हूं।’
‘मतई, मोहन, दुर्गा यह सब कहां हैं? कुछ खबर है?’
‘मतई तो मर गया, दुर्गा और मोहन दोनों डाकिये हो गये हैं, आप?’
‘मैं तो जिले का इंजीनियर हूं।’
‘सरकार तो पहले ही बड़े ज़हीन थे।’
‘अब कभी गुल्ली-डण्डा खेलते हो?’
गया ने मेरी ओर प्रश्न की आंखों से देखा- ‘अब गुल्ली-डण्डा क्यों खेलूंगा सरकार, अब तो पेट के धंधे से छुट्टी नहीं मिलती।’
‘आओ, आज हम तुम खेलें। तुम पदाना, हम पदेंगे। तुम्हारा एक दांव हमारे ऊपर है। वह आज ले लो।’
गया बड़ी मुश्किल से राजी हुआ। वह ठहरा टके का मजदूर, मैं एक बड़ा अफसर। हमारा और उसका क्या जोड़? बेचारा झेंप रहा था, लेकिन मुझे भी कुछ कम झेंप न थी; इसलिए नहीं कि मैं गया के साथ खेलने जा रहा था; बल्कि इसलिए कि लोग इस खेल को अजूबा समझकर इसका तमाशा बना लेंगे और अच्छी-खासी भीड़ लग जायेगी। उस भीड़ में वह आनन्द कहां रहेगा; पर खेले बगैर तो रहा नहीं जाता था। आखिर निश्चय हुआ कि दोनों जने बस्ती से दूर जाकर एकांत में खेलें। वहां कौन कोई देखने वाला बैठा होगा। मजे से खेलेंगे और बचपन की उस मिठाई को खूब रस ले-लेकर खायेंगे। मैं गया को लेकर डाक बंगले पर आया और मोटर में बैठकर दोनों मैदान की ओर चले। साथ में एक कुल्हाड़ी ले ली। मैं गंभीर भाव धारण किये हुए था, लेकिन गया इसे अभी तक मजाक ही समझ रहा था। फिर भी उसके मुख पर उत्सुकता या आनन्द का कोई चिह्न न था। शायद हम दोनों में जो अन्तर हो गया था, वह सोचने में मगन था।
मैंने पूछा- ‘तुम्हें कभी हमारी याद आयी थी गया? सच कहना।’
गया झेंपता हुआ बोला- ‘मैं आपको क्या याद करता हुजूर, किस लायक हूं। भाग्य में आपके साथ कुछ दिन खेलना बदा था, नहीं तो मेरी क्या गिनती।’
मैंने कुछ उदास होकर कहा – ‘लेकिन मुझे तो बराबर तुम्हारी याद आती थीं। तुम्हारा वह डण्डा, जो तुमने तानकर जमाया था, याद है न?’
गया ने पछताते हुए कहा-‘वह लड़कपन था सरकार, उसकी याद न दिलाओ।’
‘वाह! वह मेरे बाल-जीवन की सबसे रसीली याद है। तुम्हारे उस डंडे में जो रस था, वह तो अब न आदर-सम्मान में पाता हूं, न धन में। कुछ ऐसी मिठास थी उसमें कि आज तक उससे मन मीठा होता रहता है।’
इतनी देर में हम बस्ती से कोई तीस मील दूर निकल आये हैं। चारों तरफ सन्नाटा है। पश्चिम की ओर कोसों तक भीमताल फैला हुआ है, जहां आकर हम किसी समय कमल के पुष्प तोड़ ले जाते थे और उसके झुमके बनाकर कानों में डाल लेते थे। जेठ की संध्या केसर में डूबी चली आ रही है। मैं लपककर एक पेड़ पर चढ़ गया और एक टहनी काट लाया। चटपट गुल्ली-डण्डा बन गया।
खेल शुरू हो गया। मैंने गुच्ची में गुल्ली रखकर उछाली। गुल्ली गया के सामने से निकल गयी। उसने हाथ लपकाया जैसे मछली पकड़ रहा हो। गुल्ली उसके पीछे जाकर गिरी। यह वही गया है, जिसके हाथों में गुल्ली जैसे आप-ही-आप जाकर बैठ जाती थी। वह दाहिने-बायें कहीं हो, गुल्ली उसकी हथेलियों में ही पहुंचती थी। जैसे गुल्लियों पर वशीकरण डाल देता हो। नई गुल्ली, पुरानी गुल्ली, छोटी गुल्ली, बड़ी गुल्ली, नोकदार गुल्ली, सपाट गुल्ली, सभी उसे मिल जाती थी। जैसे उसके हाथों में कोई चुंबक हो, जो गुल्लियों को खींच लेता हो, लेकिन आज गुल्ली को उससे प्रेम नहीं रहा। फिर तो मैंने पदाना शुरू किया। मैं तरह-तरह की धांधलियां कर रहा था। अभ्यास की कसर बेईमानी से पूरी कर रहा था। हुच जाने पर भी डण्डा खेले जाता था, हालांकि शास्त्र के अनुसार गया की बारी आनी चाहिए थी। गुल्ली पर जब ओछी चोट पड़ती और वह जरा दूरी पर गिर पड़ती, तो मैं झटपट उसे खुद उठा लेता और दोबारा टांड लगाता। गया यह सारी बेकायदगियां देख रहा था, पर कुछ न बोलता था, जैसे उसे वह सब कायदे-कानून भूल गये। उसका निशाना कितना अचूक था। गुल्ली उसके हाथ से निकलकर टन से डण्डे में आकर लगती थी। उसके हाथ से छूटकर उसका काम था डण्डे से टकरा जाना, लेकिन आज वह गुल्ली डण्डे में लगती ही नहीं। कभी दाहिने जाती है, कभी बायें, कभी आगे, कभी पीछे।
आधे घंटे पदाने के बाद एक बार गुल्ली डंडे में आ लगी। मैंने धांधली की, गुल्ली डण्डे में नहीं लगी, बिलकुल पास से गयी; लेकिन लगी नहीं।
गया ने किसी प्रकार का असंतोष न प्रकट किया।
‘न लगी होगी।’
‘डण्डे में लगती तो क्या मैं बेईमानी करता?’
‘नहीं भैया, तुम भला बेईमानी करोगे।’
बचपन में मजाल थी कि मैं ऐसा घपला करके जीता बचता। यही गया गरदन पर चढ़ बैठता, लेकिन आज मैं उसे कितनी आसानी से धोखा दिये चला जाता था। गधा है! सारी बातें भूल गया।
सहसा गुल्ली फिर डण्डे में लगी और इतने जोर से लगी जैसे बंदूक से छूटी हो। इस प्रमाण के सामने अब किसी तरह की धांधली करने का साहस मुझे इस वक्त भी न हो सका, लेकिन क्यों न एक बार सच को झूठ बनाने की चेष्टा करूं? मेरा हरज ही क्या है। मान गया तो वाह-वाह, नहीं तो दो-चार हाथ पदना ही तो पड़ेगा। अंधेरे का बहाना करके जल्दी से गला छुड़ा लूंगा। फिर कौन दांव देने आता है।
गया ने विजय के उल्लास में कहा- ‘लग गयी, लग गयी! टन से बोली।’
मैंने अनजान बनने की चेष्टा करके कहा- ‘तुमने लगते देखा? मैंने तो नहीं देखा।’
‘टन से बोली है सरकार!’
‘और जो किसी ईंट में लग गयी हो?’
मेरे मुख से यह वाक्य उस समय कैसे निकला, इसका मुझे खुद आश्चर्य है। इस सत्य को झुठलाना वैसे ही था जैसे दिन को रात बताना। हम दोनों ने गुल्ली को डण्डे में जोर से लगते देखा था, लेकिन गया ने मेरा कथन स्वीकार कर लिया।
‘हां, किसी ईंट में ही लगी होगी। डण्डे में लगती, तो इतनी आवाज न आती।’
मैंने फिर पदाना शुरू कर दिया; लेकिन प्रत्यक्ष धांधली कर लेने के बाद, गया की सरलता पर मुझे दया आने लगी, इसलिए जब तीसरी बार गुल्ली डण्डे में लगी, तो मैंने बड़ी उदारता से दांव देना तय कर लिया।
गया ने कहा – ‘अब तो अंधेरा हो गया है भैया, कल पर रखो।’
मैंने सोचा, कल बहुत-सा समय होगा, यह न जाने कितने देर पदाये, इसलिए इसी वक्त मुआमला साफ कर लेना अच्छा होगा।
‘नहीं, नहीं। अभी बहुत उजाला है, तुम अपना दांव ले लो।’
‘गुल्ली सूझेगी नहीं।’
‘कुछ परवाह नहीं।’
गया ने पदाना शुरू किया, पर उसे बिलकुल अभ्यास न था। उसने दो बार टांड लगाने का इरादा किया, पर दोनों ही बार हुच गया। एक मिनट से कम में वह दांव पूरा कर चुका। बेचारा घण्टा भर पदा, पर एक मिनट ही में अपना दांव खो बैठा। मैंने अपने हृदय की विशालता का परिचय दिया।
‘एक दांव और खेल लो। तुम पहले ही हाथ में हुच गये।’
‘नहीं भैया, अब अंधेरा हो गया।’
‘तुम्हारा अभ्यास छूट गया। क्या कभी खेलते नहीं?’
‘खेलने का समय कहां मिलता है भैया!’
हम दोनों मोटर पर जा बैठे और चिराग जलते-जलते पड़ाव पर पहुंच गये। गया चलते-चलते बोला- ‘कल यहां गुल्ली-डण्डा होगा। सभी पुराने खिलाड़ी खेलेंगे। आप भी आओगे? जब आपको फुरसत हो, तभी खिलाड़ियों को बुलाऊं।’
मैंने शाम का समय दिया और दूसरे दिन मैच देखने आया। कोई दस-दस आदमियों की मण्डली थी। कई मेरे लड़कपन के साथी निकले। अधिकांश युवक थे, जिन्हें मैं पहचान न सका। खेल शुरू हुआ। मैं मोटर पर बैठा-बैठा तमाशा देखने लगा। आज गया का खेल, उसका वह नैपुण्य देखकर मैं चकित हो गया। टांड लगाता, तो गुल्ली आसमान से बातें करती। कल की-सी वह झिझक, वह हिचकिचाहट, वह बेदिली आज न थी। लड़कपन में जो बात थी, आज उसने प्रौढ़ता प्राप्त कर ली थी। कहीं कल इसे मुझे इस तरह पदाया होता, तो मैं जरूर रोने लगता। उसके डण्डे की चोट खाकर गुल्ली दो सौ गज की खबर लाती थी।
पदने वालों में एक युवक ने धांधली की! उसने अपने विचार में गुल्ली रोक ली थी। गया का कहना था – गुल्ली जमीन में लगकर उछली थी। इस पर दोनों में ताल ठोंकने की नौबत आयी। युवक दब गया। गया का तमतमाया हुआ चेहरा देखकर वह डर गया। अगर वह दब न जाता, तो जरूर मारपीट हो जाती। मैं खेल में न था; पर दूसरों के इस खेल में मुझे वही लड़कपन का आनन्द आ रहा था, जब हम सब कुछ भूलकर खेल में मस्त हो जाते थे। अब मुझे मालूम हुआ कि कल गया ने मेरे साथ खेला नहीं, केवल खेलने का बहाना किया। उसने मुझे दया का पात्र समझा। मैंने धांधली की, बेईमानियां कीं; पर उसे ज़रा भी क्रोध न आया। इसलिए कि वह खेल नहीं रहा था, मुझे खेला रहा था, मेरा मान रख रहा था। वह मुझे पदाकर मेरा कचूमर नहीं निकालना चाहता था। मैं अब अफसर हूं। यह अफसरी मेरे और उसके बीच में दीवार बन गयी है। अब मैं उसका लिहाज पा सकता हूं, अदब पा सकता हूं, साहचर्य नहीं पा सकता। लड़कपन था, तब मैं उसका समकक्ष था। हममें कोई भेद न था। यह पद पाकर अब मैं केवल उसकी दया के योग्य हूं। वह मुझे अपना जोड़ नहीं समझता। वह बड़ा हो गया है, मैं छोटा हो गया हूं।
