Ghaswali by Munshi Premchand
Ghaswali by Munshi Premchand

मुलिया हरी-हरी घास का गट्ठा लेकर आयी, तो उसका गेहुंआ रंग कुछ तमतमाया हुआ था और बड़ी-बड़ी मद-भरी आँखों में शंका समायी हुई थी। महावीर ने उसका तमतमाया हुआ चेहरा देखकर पूछा- ‘क्या है मुलिया, आज कैसा जी है?’

मुलिया ने कुछ जवाब न दिया। उसकी आँखें डबडबा गयी।

महावीर ने समीप आकर पूछा- ‘क्या हुआ, बताती क्यों नहीं? किसी ने कुछ कहा है, अम्मा ने डाँटा है, क्यों इतनी उदास है?’

मुलिया ने कहा- ‘कुछ नहीं, हुआ क्या है? अच्छी तो हूँ।’

महावीर ने मुलिया को सिर से पाँव तक देखकर कहा- ‘चुपचाप रोयेगी, बतायेगी नहीं?’

मुलिया ने बात टालकर कहा- ‘कोई बात भी हो, क्या बताऊँ।’

मुलिया इस ऊसर में गुलाब का फूल थी। गेहुँआ रंग था, हिरन की-सी आंखें, नीचे खिंचा हुआ चिबुक, कपोलों पर हल्की लालिमा, बड़ी-बड़ी नुकीली पलकें, आँखों में एक विचित्र आर्द्रता, जिसमें एक स्पष्ट वेदना, एक मूक व्यथा झलकती रहती थी। मालूम नहीं, चमारों के इस घर में यह अप्सरा कहाँ से आ गयी। क्या उसका कोमल फूल-सा गात इस योग्य था कि सिर पर घास की टोकरी रखकर बेचने जाती? उस गाँव में भी ऐसे लोग मौजूद थे, जो उसके तलवों के नीचे आंखें बिछाते थे, उसकी एक चितवन के लिए तरसते थे, जिनसे अगर यह एक शब्द भी बोलती, तो निहाल हो जाते, लेकिन उसे आये साल भर से अधिक हो गया, किसी ने उसे युवकों की तरफ ताकते या बातें करते नहीं देखा। वह घास लिये निकलती, तो ऐसा मालूम होता, मानो उषा का प्रकाश, आवरण से रंजित, अपनी छटा बिखेरता जाता हो। कोई गज़लें गाता, छाती पर हाथ रखता, पर मुलिया नीची आँखें किये अपनी राह चली जाती। लोग हैरान होकर कहते- इतना अभिमान! महावीर में ऐसे क्या सुर्खाब के पर लगे हैं! ऐसा अच्छा जवान भी तो नहीं, न जाने यह कैसे उसके साथ रहती है।’

मगर आज एक ऐसी बात हो गयी, जो इस जाति की और युवतियों के लिए चाहे गुप्त संदेश होती, मुलिया के लिए हृदय का शूल थी। प्रभात का समय था, पवन आम की बौर की सुगन्धि से मतवाला हो रहा था, आकाश पृथ्वी पर सोने की वर्षा कर रहा था। मुलिया सिर पर झौआ रखे घास छीलने चली, तो उसका गेहुँआ रंग प्रभात की सुनहरी किरणों से कुंदन की तरह दमक उठा। एकाएक युवक चैनसिंह सामने से आता हुआ दिखाई दिया। मुलिया ने चाहा कि कतरा कर निकल जाय, मगर चैनसिंह ने उसका हाथ पकड़ लिया ओर बोला- ‘मुलिया, तुझे क्या मुझ पर जरा भी दया नहीं आती?’

मुलिया का वह फूल-सा खिला हुआ चेहरा ज्वाला की तरह दहक उठा। यह जरा भी नहीं डरी, जरा भी न झिझकी, झीआ जमीन पर गिरा दिया और बोली- ‘मुझे छोड़ दो, नहीं मैं चिल्लाती हूँ।’

चैनसिंह को आज जीवन में एक नया अनुभव हुआ। नीची जात में रूप व माधुर्य का इसके सिवा और काम ही क्या है कि वह ऊँची जातिवालों का खिलौना बनें। ऐसे कितने ही मौके उसने जीते थे, पर आज मुलिया के चेहरे का वह रंग, उसका वह क्रोध, वह अभिमान देखकर उसके छक्के छूट गये। उसने ललित होकर उसका हाथ छोड़ दिया। मुलिया वेग से आगे बढ़ गयी।

संघर्ष की गरमी में चोट की व्यथा नहीं होती, पीछे से टीस होने लगती है। मुलिया जब कुछ दूर निकल गयी, तो क्रोध और भय तथा अपनी बेबसी का अनुभव करके उसकी आँखों में आंसू भर आये। उसने कुछ देर जब्त किया, फिर सिसक-सिसक कर रोने लगी। अगर वह इतनी गरीब न होती, तो किसी की मजाल थी कि इस तरह उसका अपमान करता। वह रोती जाती थी और घास छीलती जाती थी। महावीर का क्रोध वह जानती थी। अगर उससे कह दे, तो वह इस ठाकुर के खून का प्यासा हो जायेगा। फिर न जाने क्या हो! इस खयाल से उसके रोये खड़े हो गये। इसीलिए उसने महावीर के प्रश्नों का कोई उत्तर न दिया।

दूसरे दिन मुलिया घास के लिए न गयी। सास ने पूछा- ‘तू क्यों नहीं जाती और सब तो चली गयीं?’

मुलिया ने सिर झुकाकर कहा- ‘मैं अकेले न जाऊंगी।’

सास ने बिगड़ कर कहा- ‘अकेले क्या तुझे बाघ उठा ले जायेगा?’

मुलिया ने और भी सिर झुका लिया और दबी हुई आवाज से बोली- ‘सब मुझे छेड़ते हैं।’

सास ने डाँटा- ‘न तू औरों के साथ जायेगी, न अकेली जायेगी, तो फिर जायेगी कैसे? साफ-साफ यह क्यों नहीं कहती कि मैं न जाऊंगी। तो यहाँ मेरे घर में रानी बन के निबाह न होगा। किसी को चाम नहीं प्यारा होता, काम प्यारा होता है। तू बड़ी सुन्दर है, तो तेरी सुन्दरता लेकर चाटू, उठा झाबा और घास ला।

द्वार-पर नीम के दरख्त के साये में महावीर खड़ा, घोड़े को मल रहा था। उसने मुलिया को रोनी सूरत बनाये जाते देखा, पर कुछ बोल न सका। उसका बस चलता, तो मुलिया को कलेजे में बिठा लेता, आँखों में छिपा लेता, लेकिन घोड़े का पेट भरना भी तो जरूरी था। घास मोल लेकर खिलाये, तो बारह आने रोज से कम न पड़ें। ऐसी मजदूरी ही कौन होती है। मुश्किल से डेढ़-दो रुपये मिलते हैं, वह भी कभी मिले, कभी न मिले। जब से यह सत्यानाशी लारियाँ चलने लगी हैं, इक्केवालों की बधिया बैठ गयी है। कोई सेंत भी नहीं आ। महाजन से डेढ़- सौ रुपये उधार लेकर इक्का और घोड़ा खरीदा था, मगर लारियों के आगे इक्के को कौन पूछता है? महाजन का सूद भी तो न पहुँच सकता था। मूल का कहना ही क्या। ऊपरी मन से बोला- ‘न मन हो, तो रहने दे, देखी जायेगी।’

इस दिलजोई से मुलिया निहाल हो गयी। बोली- ‘घोड़ा खायेगा क्या?’

आज उसने कल का रास्ता छोड़ दिया और खेतों की भेड़ों से होती हुई चली। बार-बार सतर्क आँखों से इधर-उधर ताकती जाती थी। दोनों तरफ ऊख के खेत खड़े थे। जरा भी खड़खड़ाहट होती, उसका जी सन्न हो जाता। कहीं कोई ऊख में छिपा न बैठा हो, मगर कोई नई बात न हुई ऊख। ऊख के खेत निकल गये। आमों का बाग निकल गया, सिंचे हुए खेत नजर आने लगे। दूर के कुएँ पर पुर चल रहा था। खेतों की मेड़ों पर हरी-हरी घास जमी हुई थी। मुलिया का जी ललचाया। यहाँ आधा घंटे में जितनी घास छिल सकती है, सूखे मैदान में दोपहर तक न छिल सकेगी। यहाँ देखता ही कौन है? कोई चिल्लाएगा, तो चली जाऊंगी। वह बैठकर घास छीलने लगी और एक घंटे में उसका झाबा आधे से ज्यादा भर गया। वह अपने काम में इतनी तन्मय थी कि उसे चैनसिंह के आने की खबर ही न हुई। एकाएक उसने आहट पाकर सिर उठाया, तो चैनसिंह को खड़ा देखा।

मुलिया की छाती धक-से हो गयी। जी में आया, भाग जाय, झाबा उलट दे और खाली झाबा लेकर चली जाय, पर चैनसिह ने कई गज के फासले से ही रुककर कहा- ‘डर मत, डर मत! भगवान् जानता है, मैं तुमसे कुछ न बोलूँगा। जितनी घास चाहे छिल ले, मेरा ही खेत है।’

मुलिया के हाथ सुन्न हो गये, खुरपी हाथ में जम-सी गयी, घास नजर ही न आती थी। जी चाहता था, जमीन फट जाय और मैं समा जाऊँ। जमीन आँखों के सामने तैरने लगी।

चैनसिंह ने आश्वासन दिया- ‘छीलती क्यों नहीं? मैं तुझसे कुछ कहता थोड़ा ही हूँ। यहीं रोज चली आया कर, मैं छिल दिया करूंगा।’

मुलिया चित्रलिखित-सी बैठी रही।