pattharadil
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Hindi Kahani: कभी-कभी जीवन ऐसे मोड़ पर ला खड़ा करता है जहाँ हर रास्ता किसी अपने की ओर जाता है पर मंज़िल सिर्फ एक होती है — न्याय की लखनऊ के रेजीडेंसी रोड पर रात के साढ़े दस बजे भी हल्की रौनक छाई हुई थी पर आईपीएस आस्था सहाय  के मन में अंधेरा उतर आया था। शहर में एक सत्रह वर्षीय लड़की, अनिका वर्मा,  की आत्महत्या ने सबको झकझोर दिया था। आस्था को केस सौंपा गया था — एक ऐसे अपराध का, जो बंदूक से नहीं बल्कि लैपटॉप या मोबाइल स्क्रीन से हुआ था।
फाइल में लिखा था कि स्कूल ग्रुप चैट में अनिका का वीडियो बिना उसकी अनुमति के वायरल किया गया। उसके कपड़ों, बोलचाल और चाल-ढाल  का मज़ाक उड़ाया गया, मीम्स बनाए गए और धीरे-धीरे वह मज़ाक असहनीय होता चला गया और उसकी ज़िंदगी पर भारी पड़ गया। उसके सहपाठियों ने उसकी हँसी उड़ाई थी — और आभासी दुनिया ने वो हँसी “लाइक” की थी। आत्महत्या से पहले उसने एक वीडियो छोड़ा, जिसमें उसने बिना किसी का नाम लिए कैप्शन लिखा था — “अगर हँसी किसी की मौत बन जाए, तो वो हँसी नहीं, ज़हर है।”
आस्था ने गहरी साँस लेकर फाइल बंद की। उसने तय किया कि इस केस को वह खुद संभालेगी। अगले दिन स्कूल पहुँची तो वहाँ सन्नाटा पसरा था। बच्चों के चेहरों पर डर और अपराधबोध दोनों थे।
प्रिंसिपल ने कहा —
“मैम, सब कुछ सोशल मीडिया पर हुआ है। परन्तु किसने किया…इस पर कोई बोल नहीं रहा है।”
आस्था ने दृढ़ स्वर में कहा —
“सच छिपाने से पाप खत्म नहीं होता। बस देर से सामने आता है।”
प्रिंसिपल ने स्कूल की तरफ से पूरी सहायता प्रदान करने का भरोसा दिलाया।
साइबर टीम ने काम शुरू किया। चैट्स, वीडियोज़, आई पी एड्रेस, सबूतों की परतें खुलने लगीं। नाम सामने आए — राहुल, विहान और… कार्तिक सहाय
आस्था की उँगलियाँ रुक गईं। उसकी नज़रें स्क्रीन पर ठिठक गईं। कार्तिक सहाय — उसका बेटा।
कमरे की हवा अचानक ही भारी हो गई। उसने कुर्सी पर सिर टिकाया। सामने दीवार पर टंगी वर्दी थी — वही वर्दी, जो उसने अपने पिता की मौत के बाद, न्याय का सपना देखते हुए पहनी थी पर आज, वही वर्दी उसे जैसे तिरछी निगाहों से देख रही थी। यह वही पल था जब एक माँ और एक अफ़सर के बीच सबसे बड़ा संघर्ष शुरू हो गया।
आस्था रात को घर लौटी तो घर का माहौल सामान्य था। कार्तिक अपने कमरे में लैपटॉप पर कुछ देख रहा था। आस्था ने सहजता से पूछा, “कार्तिक, तुम अनिका को जानते थे?”
कार्तिक ने मुस्कुराते हुए कहा — “हाँ, क्लास में थी। वो खुद ही ड्रामा क्वीन थी मम्मा, हर बात पर ओवर रिएक्ट करती थी।वो हर बात पर इमोशनल ड्रामा करती थी।”
“उसका वीडियो वायरल किसने किया?”
कार्तिक ने बिना झिझक कहा, “बस मज़ाक था… सब करते हैं। अब उसने खुद को मार लिया, इसमें हम क्या कर सकते हैं? कौन जानता था वो इतना बड़ा कदम उठा लेगी?”
आस्था का दिल जैसे किसी ने मुठ्ठी में कस लिया। उसका गला सूख गया। आस्था की आँखें भर आईं। वह चुपचाप अपने कमरे में चली गई। सामने बेटे की बचपन की तस्वीर थी — मासूम मुस्कान, सपनों से भरी आँखें। और वहीं बगल में टेबल पर रखी उसकी पुलिस की टोपी — कठोरता और कर्तव्य का प्रतीक
आस्था धीरे से बेटे की बचपन की तस्वीर को छूने लगी। उसका बेटा  — जो कभी माँ की उँगली पकड़कर स्कूल जाता था, आज किसी की ज़िंदगी के खिलौने से खेल गया था।
रातभर आस्था करवटें बदलती रही। मन बार-बार सवाल पूछ रहा था — “अगर मैं माँ बनकर बेटे को बचा लूँ, तो क्या कभी न्याय कर पाऊँगी? और अगर अफसर बनकर उसे सज़ा दूँ तो क्या माँ कहलाने का हक़ रखूँगी?”
सुबह, ऑफिस में जब रिपोर्ट आई, तो सच अब सवाल नहीं, जवाब बन चुका था — वीडियो अपलोड उसी के घर के आई पी एड्रेस से हुआ था। मोबाइल लोकेशन, चैट लॉग्स — सब उसके बेटे की ओर इशारा कर रहे थे।
सहकर्मी बोले, “मैम, सबूत साफ़ हैं। बस आपकी सिग्नेचर चाहिए।”
उसने कलम उठाई। हाथ काँप रहा था। स्याही की हर बूँद मानो उसके दिल से टपक रही थी। फिर उसने साइन कर दिए। आस्था ने फाइल बंद कर कुछ पल के लिए आँखें मूँद लीं,फिर बोली — “वारंट जारी करो।”
कमरे में सन्नाटा छा गया। किसी ने भी उसकी आँखों में देखने की हिम्मत नहीं की।
जब पुलिस टीम उसके घर पहुँची, तो कार्तिक चौंक गया। “मॉम ! ये सब क्या है?”
“वो जो होना चाहिए, वही,” उसने धीरे से कहा।
“आप मुझे गिरफ्तार कर रही हैं?”
“मैं कानून की रखवाली करती हूँ, कार्तिक। कानून सबके लिए बराबर है — मेरे बेटे के लिए भी।”
बाहर भीड़ जमा थी। मीडिया कैमरे चमक रहे थे। कोई बोला, “वो औरत है या पत्थरदिल?”
कोई कह रहा था, “देखो, आई पी एस  सहाय अपने ही बेटे को जेल भेज रही है।”
अगले दिन अखबारों की सुर्खियाँ थीं — “पत्थरदिल माँ — न्याय या निर्दयता?”
कोर्ट में जब कार्तिक को पेश किया गया, उसने जज  के सामने कहा — “मेरी माँ ने मुझे कभी प्यार नहीं किया। वो हमेशा एक अफसर रहीं, माँ नहीं। आज उन्होंने साबित कर दिया कि मैं उनके लिए सिर्फ एक केस फाइल हूँ।”
कोर्ट में सन्नाटा छा गया।
आस्था  ने बस इतना कहा, “अगर मैं तुम्हें बचा लूँ, तो तुमसे इंसान बनने का मौका छीन लूँगी।”
जज ने आदेश दिया — कार्तिक को बाल सुधार गृह भेजा जाए
कोर्ट का माहौल भारी हो गया था।
कोर्ट से  घर लौटी आस्था तन मन दोनों से ही निढाल हो चुकी है।  अपने रूम में अकेले बैठे बैठे आस्था बीते वक़्त में विचरने लगी —  पति की आकस्मिक मृत्यु के बाद आस्था ने खुद को बेटे की परवरिश और अपने कर्तव्य में बाँट लिया था। उसने कभी बेटे को सामने से प्यार दिखाया नहीं  हमेशा एक सख़्त माँ बनकर परवरिश की।

सोचते सोचते उसके  आँसू रुक नहीं पाए। उसने बेटे के कमरे में जाकर देखा — टेबल पर अधखुली नोटबुक रखी थी जिसमें लिखा था — “मॉम को नहीं पता कि मैं कितना अकेला हूँ। वो चाहें तो मुझे समझ सकती हैं, पर उनके पास वक्त नहीं। वो अफसर हैं — माँ नहीं ”
शब्द तीर की तरह उसके दिल में उतर गए। उसे एहसास हुआ कि कब उसका बेटा उससे इतना दूर हो गया कि उसको सामने से बताने की जगह वह अपनी नोटबुक में अपनी भावनाएं छिपाने लगा  — शायद स्नेह में कुछ कंजूसी कर गई। उसने हमेशा चाहा कि बेटा मजबूत बने पर ये भूल गई कि मज़बूती का मतलब भावनाओं से दूर होना नहीं। खैर, अभी तो जो हो चुका उसे बदला नहीं जा सकता है परन्तु आगे से वह ध्यान रखेगी कि कार्तिक को उससे बात करने के लिए कागज़ का सहारा ना लेना पड़े।
छह महीने बीतने लगे। चार महीने बाद, एक दिन बाल सुधार गृह से पत्र आया —
“मॉम, जब मैं यहाँ आया तब आपसे नफरत करता था। मुझे लगा कि आप मुझसे प्यार नहीं करतीं हों लेकिन अब समझ आया है कि अगर आप मुझे बचा लेती तो मैं खुद को कभी माफ नहीं कर पाता। यहाँ रहकर सीखा है कि गलती से भागना सबसे बड़ा गुनाह है। आपने मुझे सज़ा नहीं दी मॉम बल्कि  नया जन्म दिया। अब समझ आया, आप  पत्थरदिल नहीं, पत्थर जैसी मज़बूत माँ हो।”
-आपका बेटा कार्तिक ”
पत्र पर आँसुओं के धब्बे थे — लिखते वक़्त कार्तिक के और उसे पढ़ते हुए आस्था के
छह महीने बाद, कार्तिक को रिहा किया गया। जेल के बाहर आस्था खड़ी थी — वही सख्त चेहरा, पर आँखों में नमी थी। कार्तिक कुछ पल उसे देखता रहा, फिर दौड़कर उसके गले लग गया।
“मॉम … माफ कर दीजिए।”
“गलती की सज़ा जरूरी थी, बेटा,” आस्था ने नम पलकों और भीगी आवाज़ में  कहा, “सज़ा का मतलब नफ़रत नहीं होता, बेटा बल्कि वो रास्ता होता है जहाँ इंसान खुद से फिर मिल पाता है।”
उस दिन वहाँ ना अदालत थी, ना वर्दी, ना कर्तव्य का बोझ। सिर्फ एक रिश्ता था — माँ और बेटे का, जो सच, सज़ा और ममता की आग में तपकर और भी पवित्र हो गया था।
कभी-कभी न्याय की राह दिल को तोड़ देती है पर वही टूटन किसी आत्मा को फिर से जोड़ देती है।