Bhagwan Vishnu Katha:एक बार की बात है-अभिमन्यू के पुत्र राजा परीक्षित शिकार खेलने वन में गए । वहाँ मृगों का पीछा करते हुए वे थक गए । उन्हें प्यास लगने लगी । वे जलाशय ढूँढने लगे, किंतु जब उन्हें कहीं भी जल नहीं मिला, तब वे निकट के एक आश्रम में चले गए । वह आश्रम शमीक मुनि का था । उस समय वे अपनी इन्द्रियों को वश में कर समाधि में लीन थे । उनका शरीर मृगचर्म से ढका हुआ था । परीक्षित ने उनसे जल माँगा । किंतु वे तो संसार से विरक्त होकर निर्विकार ब्रह्म में स्थित थे । इसलिए उन्हें परीक्षित द्वारा जल माँगे जाने का पता नहीं चला । बार-बार जल माँगने पर भी जब मुनि ने कोई उत्तर नहीं दिया तो परीक्षित स्वयं को अपमानित अनुभव करने लगे । वे पहले ही कलियुग के प्रभाव में आ चुके थे, अतः उनमें शमीक मुनि के प्रति क्रोध का भाव उत्पन्न हो गया । वे मन-ही-मन सोचने लगे – ‘मेरा तिरस्कार करने के लिए ही इस मुनि ने समाधि का झूठा ढोंग रच रखा है । इसने जान-बूझकर मेरी उपेक्षा की है । इसे बिना दण्ड दिए छोड़ा नहीं जा सकता ।’ यह सोच कर उन्होंने मरे हुए एक साँप को बाण की नोक से शमीक मुनि के गले में डाल दिया और उनका उपहास करते हुए वहाँ से चले गए ।
शमीक मुनि के शृंगी नामक एक बड़े तेजस्वी पुत्र थे । वे दूसरे ऋषिकुमारों के साथ आश्रम के निकट साधनारत थे । योगबल द्वारा जब उन्हें अपने पिता के अपमान का पता चला तो वे कठोर स्वर में बोले – “भगवन् ! मैं आपको साक्षी मानकर मेरे पिता का अपमान कर मर्यादा का उल्लंघन करने वाले दुष्ट परीक्षित को शाप देता हूँ कि आज से ठीक सातवें दिन तक्षक नाग के काटने पर उसकी मृत्यु हो जाएगी । यदि मैंने सच्चे हृदय से आपकी आराधना की है यदि आप अपने भक्तों पर परम अनुग्रह रखते हैं तो मेरा दिया शाप अवश्य सिद्ध होगा ।”
इसके बाद शृंगी अपने आश्रम लौट गए । वहाँ पिता के गले में साँप देख उन्हें बड़ा दुःख हुआ । वे शोकग्रस्त होकर विलाप करने लगे । उनका विलाप सुन शमीक मुनि ने आँखें खोलीं और देखा कि उनके गले में मृत साँप पड़ा है । उन्होंने शृंगी से रोने का कारण पूछा । शृंगी ने राजा परीक्षित के अपराध और इसके फलस्वरूप उसे दिए गए शाप की बात बताई ।
तब शमीक मुनि व्यथित होकर बोले – “मूर्खमति ! तुमने ये क्या घोर अनर्थ कर दिया? उनकी छोटी-सी गलती के लिए इतना कठोर शाप दे डाला । परीक्षित तो बड़े तपस्वी हैं । उन्होंने कई अश्वमेध यज्ञ किए हैं । वे भगवान् श्रीकृष्ण के भक्त हैं । भूख प्यास से व्याकुल होकर वे हमारे आश्रम में आए थे । अपराध उनका नहीं हमारा था जो हमने उनका अतिथि सत्कार नहीं किया । भगवन्! मेरे पुत्र ने जो अपराध किया है उसे क्षमा करें ।” इस प्रकार शमीक मुनि को पुत्र के इस अपराध पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ । किंतु अब तीर कमान से निकल चुका था और उसे किसी भी प्रकार से लौटाया नहीं जा सकता था ।
इधर परीक्षित अपने नीच कार्य पर दु:खी थे । जब उन्हें मुनिकुमार के शाप देने की बात ज्ञात हुई तो अपने पाप का प्रायश्चित्त करने के लिए वे गंगा नदी के तट पर निराहार रहकर भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करने लगे । तभी भगवान् की प्रेरणा से शुकदेव मुनि वहाँ पधारे । परीक्षित ने उनसे मोक्ष का उपाय पूछा । शुकदेव जी ने उन्हें श्रीमद् भागवत की महिमा बताई । परीक्षित ने उनसे वह कथा सुनाने की प्रार्थना की । तब परीक्षित के आग्रह पर महर्षि शुकदेव उन्हें श्रीमद् भागवत की कथा सुनाने लगे ।
श्रीमद् भागवत की कथा सुनने से परीक्षित का व्याकुल मन शांत हो गया और उन्होंने चिंतन द्वारा स्वयं को परमात्मा के चरण-कमलों में ध्यानमग्न कर लिया । शाप के फलस्वरूप तक्षक के कटाने से उनकी मृत्यु हो गई और उन्हें भगवान् श्रीकृष्ण का परम पद प्राप्त हुआ ।
ये कथा ‘पुराणों की कथाएं’ किताब से ली गई है, इसकी और कथाएं पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Purano Ki Kathayen(पुराणों की कथाएं)
