भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
“नाम बोलो!” –
“ऊषा”
“क्या हुआ?”
“आँ…… क्या मतलब आपका?” ऊषा ने निगाहें उठाकर उस व्यक्ति को देखा जो बाहों के ऊपर रजिस्टर रखे उन लोगों के नाम लिख रहा था, जिन्हें ओढ़ने बिछाने के वस्त्र दिये जा रहे थे।
मतलब, ………… बीमार हो, अपंग हो, छूत की कोई बीमारी …ऽ… ?” उसने गहरी नजरों से स्ट्रीट लाईट की मद्धिम रोशनी में उसकी आँखों में झाँका?
“कुछ नहीं हुआ, मुझे!” ऊषा ने शर्म से निगाहें झुका ली।
“माता जी, इसे कुछ नहीं हुआ फिर भी भिखारियों की लाइन में बैठी है।” दो तीन लाइन के सिरे पर वस्त्र बाँटती अधेड़ श्वेत वसना महिला से जरा जोर से बोला था वह।
“अलग बैठाओ उसे!” माता जी ने भी सुनने योग्य स्वर में कहा-
“मुझे नहीं मिला- मुझे नहीं मिला, बीमार हूँ, अंधा हूँ, बुखार खाँसी है!” भयानक शोर उठ रहा था, लाइन से बैठे भीखारी स्त्री-पुरुष वस्त्र लेने की दावेदारी प्रस्तुत कर रहे थे।
“आप लोग शांत रहें, हम जो कुछ लाये हैं उसे वापस नहीं ले जायेंगे!” माताजी ने धैर्यपूर्वक सबको शांत कराया।
“गोपाल, ध्यान से रजिस्टर में नाम मिलाते जाना, जिन्हें इस साल, कंबल, कथड़ी मिली है, उन्हें मत देना, चाहे जो कहें।” माताजी ने रजिस्टर में नाम लिखने वाले को स्मरण दिलाया।
“ठीक है, मुझे याद रहेगा। गोपाल बोला।
“उन्हें पता था ये लोग कपड़ो को धोते-धाते नहीं, गंदे से गंदा ओढ़ेंगे, बिछायेंगे, फिर फेंक देंगे, जबकि सामने ही गंगा का जल से भरा विस्तृत पाट है साबुन, सोडे योग्य भीख न मिलती हो यह असंभव ही है, भोजन सभी लोग अन्न क्षेत्र में करते हैं, दयावती देवी का अन्न क्षेत्र सबसे व्यवस्थित चल रहा है विगत दस वर्षों से। कहते है उन पर अन्नपूर्णा माँ की कपा है. अपने हाथ से कुछ न कुछ अवश्य पकाती हैं, हर रोज, इसीलिए तो अन्न क्षेत्र में कभी भोजन कम नहीं पड़ता।
“ऊषा को लाइन से अलग बैठा दिया गया था। वह ठंड से सिकुड़ी किकुड़ी बैठी काँप रही थी, “लगता है, मुझे वस्त्र नहीं मिलेगा, बड़े मलेच्छ हैं लोग, मेरा शरीर ठीक है तो नहीं देंगे, जब दस ठो बीमारियाँ हो जायेंगी तब इनकी दया होगी!” ऊषा कुढ़ रही थी मन ही मन।
“मुझे दे दो, भइया, कुछ नहीं है ओढ़ने-बिछाने को!” वह करूण स्वर में पुकार रही थी।
सबसे बाद में दयावती उसके पास आकर ठहर गई, वे गोरी, मंझोले कद की, सुन्दर सी महिला थीं उनकी आँखों में ममता का सागर लहरा रहा था, उन्होंने मैली कुचैली ऊषा पर निगाहें टिका दी।
“भले घर की लगती हो !”
“कभी थी।” ऊषा ने धीरे से कहा
“कल, दयावती अन्न क्षेत्र आना, भोजन भी मिलेगा और बातें भी करेंगे। गोपाल इनका नाम लिख लिया न.ऽ ?”
“हाँ माता जी, वस्त्र भी दे दूँगा ?”
“हाँ..हाँ… दे दो!” कहती कहती वे आगे चली गईं।
“नदी के किनारे भिखारियों की घास फूस, पोलिथिन, फटे चिथड़े कपड़ों आदि से बनी झोपड़ियाँ थीं, जिनमें वे खाँसते, कराहते, लड़ते-झगड़ते या फिर, गाँजा, भाँग, दारू आदि के नशे में धुत्त रातें काटते। ऊषा के पास तो कुछ नहीं था सिर छिपाने को। वह रेत में एक झोपड़ी की ओट में अपनी कथड़ी बिछाकर ऊपर से कंबल ओढ़कर लेट गई। उसे शंकर जी के मंदिर के सामने भिखारियों की पंक्ति में बैठकर कुछ खाना जुटाना पड़ा था, नींद कैसे आये, इस प्रकार खुले में सोने की आदत अभी नई जो थी, माता जी ने कहा था वह इस हालत में भी भले घर की नजर आ रही हैं, हूँ…..ऽ.!…ऽ.!
भला घर! पूरा पुरुष वर्ग नशे का गुलाम, महिलाएँ रोनही और नंबर एक की चटोरी, काम न मर्द करना चाहें न औरतें, कई नौकरियाँ मिली, दो चार महीने किये या तो निकाल दिये गये या छोड़ दिये, यहाँ-वहाँ ठग ठुगाकर नशे पानी का प्रबंध करते, ऊषा सचमुच अच्छे घर की पढ़ी-लिखी दुलार में पली लड़की थी, पिता जी एक अच्छी-सी कंपनी में प्रबंधक थे, नौकरी-चाकरी, खेती-बाड़ी, अच्छा घर देखकर शादी की थी ऊषा की, अच्छा दहेज दिया था, लेकिन उन्हें क्या पता उनके दामाद का सुन्दर चेहरा, हमेशा शराब, ढोटा, कंपोज आदि के नशे से वीभत्स रहने वाला है, बूढ़ा ससुर अपनी पेन्शन छिनवाकर रो-धोकर संतोष करता है, चलो बच्चों की खुशी में ही अपनी खुशी, धीरे-धीरे सारे गहने चले गये ऊषा के हाथ से। शर्मिन्दा बुढ़ऊ बची खुची पेन्शन सबसे छिपाकर उसके हाथ पर धर जाते,-
“ले अपनी जरूरत की वस्तुएँ मँगा लेना!” और दूसरी बहुएँ सुनाकर कहतीं- “बुढ़ऊ बड़े आशिकाना मिजाज के हैं अब तक। नई बहू के आस-पास मंडराते रहते हैं, हीरो बनकर, बाकी तो जैसे कोई है ही नहीं इस घर में, सारा फूंक तापकर खाली हो गये, अब सब मरें या जीयें उन्हें क्या?” ऊषा, सुनती तो ठगी-सी रह जाती, उसने अपने परिवार को संभालने की कोशिश की थी. घर को साफ सुथरा रखने के लिये कठिन श्रम करती. किन्तु आदतें थीं कि छुटने का नाम नहीं लेती थीं, यहाँ-वहाँ पान खाकर थूकना, जहाँ मन हो नशे में लोटना, उल्टी करना, रात-रात भर घर वालों का आपस में चिल्ला-चिल्लाकर गरियाते हुए लड़ना, पड़ोसियों का हस्तक्षेप, सब कुछ सहा ऊषा ने, पिता जी भी कुछ मदद करते थे, किन्तु शादी के बाद, ससुर या पिता की तरफ उम्मीद से देखना उसे कुत्ते जैसी उम्मीद लगती जो एक टुकड़े रोटी के लिए टकटकी लगाये दरवाजे पर बैठा रहता है।
उसके दिल में भी कई योद्धा दिन-रात घमासान मचाये रहते, साफ सुथरा घर, आधुनिक सुख-सुविधाएँ, दास-दासियाँ, आगे-पीछे सुन्दरता की तारीफ करता पति, जिसकी आँखों में सिर्फ और सिर्फ उसकी चाहत होती, उसे एक सुख साधन नहीं बल्कि जीवन साथी अर्थात् सुख-दुःख की हिस्सेदार समझने की उदारता होती, यह क्या कि जब आवश्यकता हो, पके आम की तरह इच्छानुसार, चीरफाड़ कर स्वाद लो या, चूसकर गुठली फेंक दो, यह देखने की क्या आवश्यकता कि वह कहाँ गिरी? क्या-क्या आहत हुआ, क्या कुछ रोज-रोज टूट रहा है, आखिर दोष क्या है उसका? माँ-बाप ने जैसा चाहा किया. जिन सखों से उसका याराना था वे उसके पास आने को मचलते रहते, बहने, सहेलियाँ, आस-पास हर कोई उससे बीस नजर आता उसे। नजरें झुकी रहती हीन भाव से, आइना मुँह चिढ़ाता, इधर-उधर कटे-फटे चिन्हों को दिखा-दिखाकर। जैसे ही खाने-पीने की कोई चीज घर में आती, औरतें झपट पड़ती चील की तरह, बुढ़िया ताले मे रख लेती- आये गये की, इज्जत तो रखनी ही पड़ती है,- देवरानी- जेठानियाँ जल्दी-जल्दी खातीं या बच्चों के बहाने इधर-उधर छिपातीं, फिर जो कौआरार मचती, सबकी नजर ऊषा पर ही होती, “हमने नहीं देखा, हमने नहीं देखा, हम तो यहाँ थे ही नहीं!” जो खाया हो सो जाने?”
यह जो मंदिर है गंगा जी की धारा पर जिसकी परछाई लहरों के साथ बनती-बिगड़ती रहती है, इससे रिश्ता बड़ा पुराना है ऊषा का। एक बार परिवार के साथ घुघट डाले आई थी शंकर जी की पूजा करने, महंत महाराज स्वयं गद्दी पर विराजमान थे उस दिन, जब उसने प्रणाम किया तब उनकी भेदती निगाहें ऊषा की निगाहों से टकराई, झट से उसका हाथ पकड़ लिया; वह हक्की बक्की रह गई।
“भाग्योदय होने वाला है देवी! हाथ की लकीरें कह रहीं हैं, बड़ी किस्मत वाली है माई यह तो। तेरे घर के लायक नहीं है, इसी के कारण तुम लोगों के भी दिन फिरेंगे, हर सोमवार को मंदिर लाया करो शाम-शाम को!” उन्होंने सास की ओर देखते हुए कहा था, रेशमी गेरूवा वस्त्र, माथे पर तिलक और बेबाक प्रसन्न मुद्रा! ऊषा जैसे सम्मोहित हो गई,–
“बड़े पहुँचे संत हैं, सब कुछ जान गये बिना बताये ही, उसकी आँखें छलक आई, वह महंत जी के चरणों में झुक गई।
“कैसे आयेंगे महाराज, गाँव में रहते हैं, आने जाने का साधन नहीं मिलेगा लौटने के लिए?” हठात् पति कहे जाने वाले महाशय, रवि बोल पड़े, महंत की बातों से रवि अपने को महत्वपूर्ण समझने लगा था।
“चिन्ता मत करो, यजमान, हम भेजेंगे गाड़ी, इसे लाने के लिए, पूजा के बाद भिजवाने की जिम्मेदारी भी हमारी।” यह प्राचीन मंदिर देश भर में लब्ध प्रतिष्ठित था, 200 एकड़ खेत है मंदिर के पास, अनेक, साधु-संत आश्रय पाते हैं यहाँ चढ़ावे का कोई हिसाब नहीं, बड़े-बड़े दान दाता प्रत्यक्ष या गुप्तदान करते रहते हैं, मंदिर का अन्नक्षेत्र चलता है, भूखे-दुखे प्रसाद पाते हैं, किसी की हिम्मत न पड़ी महंत के विरुद्ध जाने की, फिर क्या ऊषा का ही भाग्योदय होगा? कहा न महात्मा ने सबके दिन फिरेंगे!”
“अंधेरा होने के कुछ ही देर बाद कार आकर खड़ी हुई उनके द्वार पर, मोहल्ले के बच्चे जुट आये, गाड़ी देखने के लिए, कार से उतरकर योग गुरु विसम्भर स्वयं उनके आँगन में आये, पाँच किलो मिठाई भी बूढ़ी के हाथ में रख दिया।
“माई भोले बाबा का प्रसाद है महंत जी ने भेजा है, जल्दी तैयार करा दो ऊषा देवी को!” वे-बेतकल्लुफी से आँगन में पड़ी खाट पर बैठ गये सभी लोग उन्हें प्रणाम करने लगे।
“महाराज संग में हम भी चलें?” रवि ने दबी जबान में पूछा था।
“तुम क्या करोगे? तुम्हीं तो वह काली छाया हो जिससे देवी का जीवन द:खमय हो गया है. साधना. अकेले की है. तम्हें ऐतराज हो तो साफ कहो. हम वापस जाकर महंत जी से कह देते हैं वे तो इस घर की खुशहाली के लिए ….”
–नहीं महाराज, एतराज नहीं है, महंत जी तो देवता हैं, ले जाइये आप के साथ भेजने में क्या चिन्ता हमें?” सास बोल उठी। अभी मिठाई की टोकरी पास ही धरी थी।
“आँखें चौंधियाने योग्य वैभव था महंत जी की कोठी का, चकाचक, संगमरमर का फर्श, महंगे कालीन, सोफे, वातानुकूलित कक्ष, मक्खी बिछल जाये ऐसी सफाई, मन मोहक सुगंध से कक्ष गमक रहा था, विसम्भर महाराज पहुँचाकर चले गये।
अच्छा भोजन, प्यार भरी बातें, फिर जल्दी ही ललचाये से जीभ लपलपाते कुत्ते की तरह महंत जी, ढेरों लालच, गहना, जेवर, कपड़े, ऐशो आराम, सब कुछ तुम्हारे चरणों में न्यौछावर है देवी, बस अपने दास पर दया करो!
“हाँ, वह दूसरो पर दया करने योग्य है, लतियाये जाने के लिए नहीं, किसी ने उसके रूप यौवन का मूल्य समझा तो सही!”
“मैं विवाहिता हूँ महाराज, मुझे जाने दें!” उसकी आवाज क्षीण थी।
“मैं कहाँ तुमसे घर छोड़ने को कह रहा हूँ, समुद्र से एक चुल्लू जल निकालने पर क्या वह सूख जायेगा? गुप्त ही रहना चाहिए यह सब कुछ, डरो नहीं, मुझे तुम्हारी आँखों की अतृप्ति ने ही आमंत्रित किया है।” महंत ने ऊषा की अतृप्त इच्छाओं की आग को हवा दी। उसे लगा कि वे ठीक कह रहे हैं. उसके साथ जो धोखा हआ उसका यही प्रतिकार है. इतने बडे महात्मा क्या झूठ बोलेंगे?”
जब वह थकी हारी, गई रात घर पहुँची तो, हाथ में एक हजार रूपये थे, देवी अब मेरे आश्रय में हो यह सारा धन वैभव तुम्हारा ही है, ठाट से रहो, जल्दी ही वहाँ से निकाल लायेंगे तुम्हें।” कहा था महंत ने। आत्मग्लानी से भरी, ऐश्वर्य का सपना देखती, रूप यौवन के अहंकार से भरी- “मेरे आगे तो बड़े-बड़े योगी पानी भरते हैं, यह मूर्ख अरसिक जो मेरा पति कहलाता है, हमेशा नशे में धुत्त रहने वाला, आज तक कभी एक शब्द कहा मेरी प्रशंसा में, कोई पाप नहीं किया मैंने, जो दिया समाज ने वही तो पायेगा?” उसने ग्लानी की चादर उतार फेंकी थी। हफ्ते भर ठीक चल गया, कुछ रूपये रवि झटक ले गया, कुछ घर में लग गये, किसी ने पूछा नहीं कहाँ से आये रूपये। बाप ने दिया होगा।” सब कहते।
“साधना की तिथियाँ असीम होती गईं। योग गुरु विसम्भर उसे लाते ले जाते, रास्ते भर अच्छी-अच्छी बातें करते, ऊषा के लिए वे एक आदर्श पुरुष थे, जो स्त्री के हृदय को पहचानते थे, जो पसंद हो वही कहते, महंत जी ऊषा के लिए अच्छे अच्छे कपड़े, श्रृंगार सामग्री आदि क्रय करने की जिम्मेदारी इन्हें ही सौंपते थे, वे आदर से कार का दरवाजा खोलते, ऊषा महारानियों वाले अन्दाज से उतरती, जिस चीज की ओर उंगली उठाती, विसम्भर उसे बंधवा देता। अब तो घर के सभी लोगों के एकमात्र तारनहार महंत जी ही हो गये, निकम्मापन, नशाखोरी बेशर्मी की सभी सीमाएँ लांघने लगीं।
“मेरी ही तकदीर से सब मजे कर रहे हो, समझे कि नहीं?”
रवि का झगड़ा हो रहा था भाई-भाभियों से।
“और इतने दिनों तक क्या खाते पीते रहे, तुम्हारी औरत ने ही खिलाया सबको जन्मभर?” भाई भी नशे में था, ऊषा घृणा से भर उठी थी।
“अरे! इनसे छुपा नहीं है कुछ भी, जान बूझकर उसे भेजते हैं महंत के पास, धिक्कार है, ऐसे पति और परिवार पर।”
“आप लोगों को मालूम है, ये रूपये किस कीमत पर मिलते हैं,?” उसने अपनी सास से पूछा था एक दिन।
“हाँ मालूम है हमने भी दुनिया देखीं है।”
“फिर भी …… ?”
“हाँ, हम जानते हैं कि तुम्हें कोई सुख नहीं मिला यहाँ, चाहे जैसे भी हो तुम तो सुखी हो, चलने न दो, जैसा चलता है, घर की इज्जत ढकी रहे बस!” वह जैसे आकाश से गिरी।
“ढकी रहेगी इज्जत, करोगे मजे!” उसने कुछ निश्चय किया था उसी पल।
थोड़ी-सी झपकी आई, ऊषा को, नई साफ-सुथरी कथड़ी और नया कंबल, कुछ गरमाहट दे रहे थे, इतनी सुविधा भी कई दिनों बाद मिली थी, एक लंबी भटकन के बाद।”
“ये लो कपड़े, जाओ पहले अच्छी प्रकार नहा धोकर आओ गंगा जी से।” माता जी ने ऊपर से नीचे तक देखा था ऊषा को।
“समय है जो तुम गंदी कह रही हो, देखा होता ऊषा का सजा-धजा रूप तब जानती।” वह मन ही मन बुदबुदायी।
“गोपाल! दीदी को एक छोटी बट्टी साबुन दे दो!” उन्होंने आवाज लगाई।
माता जी पूजा करके उठीं थीं, उनके माथे पर चंदन का टीका शोभा पा रहा था। बगुले के पंखों को लज्जित करते वस्त्र, रक्ताभ मुखमंडल, लौह चुम्बक की भांति निगाहें हटने नहीं देता। नहा-धोकर बाल संवारे नये सफेद कपड़े पहने जब ऊषा आकर माता जी को प्रणाम करने लगी तब पहली बार उनके होठों पर हल्की -सी मुस्कराहट उभरी।
“आओ मेरे कक्ष में।” वे उसे अपने कमरे में ले गईं। वहाँ लकड़ी की कुर्सियाँ पड़ी थीं, उसी पर बैठने का संकेत किया, आप तखत पर बैठ जाओ पैर ऊपर करके।
“मैं तुम्हारे बारे में जानती हूँ, इसलिए कुछ मत कहो।”
“क्या जानती हैं” वह आश्चर्य से माता दयावती की ओर देखने लगी।
“तुमसे मर्यादा का उल्लंघन हुआ है।”
“क्या स्त्री के लिए ही मर्यादा है?”
“स्त्री की मर्यादा पुरुष को भी मर्यादित करती है, तभी समाज संयत भाव से आगे बढ़ता है” माताजी का गंभीर स्वर गूंजा।
“एक पुरुष धोखे में रखकर एक स्त्री को अपनी पत्नी बनाता है, उसके शरीर को इस हद तक अपनी सम्पत्ति समझता है कि उसका व्यापार करने लगता है, एक पुरुष अपनी शानो शौकत, पद प्रतिष्ठा की आड़ में एक स्त्री को खरीदता है, और जब खतरा देखता है तो उसे मार डालने की साजिश रचता है, समाज उनके लिए क्या व्यवस्था करता है माता जी, चुप रहो चुप रहो कहने के अतिरिक्त?” उसके मन का आक्रोश उसके स्वर में उभर आया।
“एक धन-मान, पत्नी खोकर नारकीय जीवन जी रहा है, एक भ्रष्टाचार के फल को भोगता, अस्पताल में पड़ा है, असाध्य रोगी होकर। कर्मों का फल सभी को मिलता है बेटी।”
“मेरा दोष क्या है, ? मैं तो कठपुतली की भाँति नाचती रही।”
“अपना दोष नहीं दिखता बेटी, तुमने अपने पति को परमेश्वर बनाने हेतु तप नहीं किया, उससे भी अधिक पतित होकर उसे होश में लाना चाहा, तुम्हारी महत्वाकांक्षा की आग ने तुम्हें जलाकर भस्म कर दिया, तुम एक हारी हुई औरत हो, अपनी वासना से पराजित।”
“उन्हें तो कोई पापी नहीं कहता?”
“प्रारम्भ से ही समाज पुरुष प्रधान रहा है, बहुत से नियम उनके अपने ही हक में हैं, इन परंपराओं की गाँठों को खोलना इतना आसान नहीं, धीरे-धीरे, परत-दर-परत खुलेंगी ये गाँठे। उसके लिए हमें, पहले शिक्षित फिर संस्कारित उसके बाद आर्थिक रूप से समर्थ होना होगा, अपनी शिक्षा को संस्कारों से जोड़कर उनका उपयोग नहीं किया तुमने।
“तो मैं पापी हूँ अब गंगा मैया की शरण में जाऊँ?”
“परन्तु धार में नहीं किनारे पर वास करो!”
“क्या करूँ मैं?”
“तुम्हें क्या करना आता है?”
“कपड़ा सिलना, भोजन बनाना, घर छोड़ते समय अपने सारे प्रमाण पत्र वहीं छोड़ आई, सोचा था अब तो महारानी बनकर राज करना है, किन्तु..?”
जैसे ही पति की आड़ छोड़ी, महंत भी मान मर्यादा की बात करने लगे। “घर छोड़ने के पहले पूछा तो होता? क्या मैं साधारण आदमी हूँ, जो एक से बंधकर रह जाऊँ, माँस खाया सो तो ठीक है गले में हड्डी लटकाऊँ ऐसा मूर्ख समझी है?”
“छोड़ आओ विसम्भर इसे दूर कहीं।” उल्टे पांव लौटा दिया था महंत ने। दया दिखाकर विसम्भर ने भी गुरुजी के प्रसाद का सेवन किया, किराये से घर दिला दिया, जीवन की आवश्यकताओं को पूरा कर रहा था। एक बेटी भी हुई ऊषा के, उसे लगा कि चलो कोई तो किनारा मिला, कि गुरु को चेले की करतूत का पता चला, महंत ने विसम्भर को जी भरकर पिटवाया फिर मंदिर से सोना चुराने का आरोप लगाकर जेल भिजवा दिया। हत्यारे ऊषा के भी पीछे हाथ धोकर पड़े रहे, उसे अपनी बेटी को अनाथालय में छोड़ना पड़ा। पेट भरने के लिये और जान बचाने के लिये भिखारिन बनना पड़ा।
“होता है बेटी, ‘माया’ इतनी ही प्रबल नहीं होती तो शास्त्रों में उससे सावधान रहने की बात बार-बार नहीं कही जाती।”
“क्या मैं आपकी शरण में रह सकती हूँ?”
“काम करना पड़ेगा, जिनका शरीर अच्छा हो उन्हें बैठाकर खिलाना मैं पाप की जड़ मानती हूँ।”
“यदि महंत की नजर पड़ गई तो?”
“दयावती ऐसे हजारों महंतों पर भारी है उधर से बेफिक्र रहो।”
“क्या काम लेंगी ?”
“हमारे पास कफन के कपड़े बेचने वाले आते हैं, उन्हें धो-धोकर मंगा लेते हैं, ये जो कथड़ी तुम्हें दी गई वह उसी की है। अभी ठंड है हमें कथरियों की और आवश्यकता है, मशीन से सुन्दर सुन्दर कलात्मक कथरियाँ बनाओ!”
“बाप रे कफन सिलना होगा?”
“बुराई क्या है इसकाम में? ये कपड़े नये, मजबूत और सस्ते मिलते हैं, गरीब भिखारियों की ठंड से रक्षा होती है, शंकर जी तो मुर्दे की भस्म रमाते हैं, इससे मन मजबूत होता है।”
“मुझसे यह न होगा।”
“फिर जाओ, सज-धजकर खड़ी हो जाओ बाजार में, कोई नोंचने वाला कौआ, गिद्ध सिक्के दिखाकर खायेगा तुम्हें, नोंच-नोचकर।” उनकी आवाज बेधक और जहर बुझी तीर-सी थी।
“वह मुड़ी, एक पल ठिठकी फिर चल पड़ी।
“जा रही हो?”
“हाँ, गोपाल से मशीन और कपड़े के लिए कहने!”
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
