Panchtantra ki kahani सोमलिक, तुम्हें कैसा धन चाहिए?
Panchtantra ki kahani सोमलिक, तुम्हें कैसा धन चाहिए?

एक था सोमलिक । वह बड़ा ही निपुण जुलाहा था । कपड़े इतने सुंदर तैयार करता कि उनकी बारीकी और बुनावट देखकर लोग अचरज में पड़ जाते थे । पर फिर भी उसे अधिक धन नहीं मिल पाता था । कभी पैसा आता, तो वह उसके पास टिकता ही नहीं था । उसके आसपास जो साधारण कारीगर थे, वे आराम से जिंदगी बसर कर रहे थे । पर सोमलिक हमेशा तंगी में रहता था । इस बात से वह मन ही मन बहुत दुखी हो उठता ।

एक दिन सोमलिक ने विदेश जाने का निर्णय किया । वहाँ सोमलिक की बारीक वस्त्र बुनने की कला की बहुत कद्र हुई । उसके बनाए वस्त्रों की बहुत माँग थी । उसने वहाँ रात-दिन लगकर काफी काम किया । आखिर उसने एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ कमा लीं । फिर वह खुशी-खुशी घर की ओर चल पड़ा । उसे लग रहा था, शायद अब उसका अभावों से भरा जीवन बदल जाए!

रास्ते में सोमलिक एक धर्मशाला में रुका । वहाँ वह रात में सोया तो उसे सपने में दो अलौकिक पुरुष दिखाई पड़े । ऊँ दिव्य पुरुषों में से एक ने दूसरे से कहा,- “आप जरा देखिए तो, यह शख्स इतना श्रम करता है, फिर भी इसके पास कभी पैसा नहीं ठहरता । आपको इस पर दया क्यों नहीं आती?”

इस पर दूसरे दिव्य पुरुष ने जवाब दिया, “अरे भई इसका भाग्य ही ऐसा है । इसलिए यह कितना ही कमा ले, इसके पास अधिक धन ठहर ही नहीं सकता । अब देखो, यह विदेश से एक हजार स्वर्ण मुद्राओं की थैली लेकर आ रहा है । लेकिन वह भी इसके भाग्य में कहाँ है? इसलिए यह रहेगा रंक का रंक ही ।”

उन दिव्य पुरुषों की बातचीत सुनकर सोमलिक की नींद खुल गई । उसने उठकर एक हजार स्वर्ण मुद्राओं की थैली को टटोलकर देखा, पर वह थैली तो गायब थी ।

सोमलिक को इस बात का इतना भारी दुख हुआ, जैसे उसका हृदय टुकड़े-टुकड़े हो गया हो । दुखी होकर उसने आत्महत्या का फैसला किया । वह अपने जीवन का अंत करने जा रहा था । तभी उसे फिर एक दिव्य पुरुष दिखाई दिया । उसने सोमलिक से कहा, “अरे भई, तुम ऐसा अधम काम क्यों करते हो? ज्यादा धन तो तुम्हारे भाग्य में है ही नहीं । इसमें कोई क्या कर सकता है? इसलिए इसमें दुखी होने की कोई बात नहीं । हाँ अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हें एक वरदान दे सकता हूँ । तुम जो भी वरदान चाहो, मुझसे मांग लो ।”

सोमलिक ने कुछ देर सोचा, फिर उसके मन में आया, ‘मेरी सारी मुसीबतें इसीलिए तो हैं क्योंकि मेरे पास धन नहीं है । तो फिर मैं ढेर सारे धन की वरदान ही क्यों न माँग लूँ?’

आखिर सोमलिक ने यही वरदान मांग लिया । इस पर उस दिव्य पुरुष ने कहा, “ठीक है, तुम्हारी यह इच्छा पूरी हो जाएगी । पर पहले सोच लो कि तुम्हें कैसा धन चाहिए?”

“कैसा धन.. .यानी?” सोमलिक ने अचरज में पड़कर पूछा ।

इस पर दिव्य पुरुष का जवाब था, “देखो भाई मैं तुम्हें दो लोगों के पास भेजता हूँ । उनमें से एक का नाम है गुप्तधन और दूसरे का नाम है उपमुक्तधन । दोनों के रात तुम एक-एक रात गुजारना । फिर वापस आकर मुझे बताना कि तुम्हें कैसा धन चाहिए?”

पहले सोमलिक गुप्तधन के पास गया । उसके पास अपूर्व धन था, किसी तरह की कोई कमी नहीं थी । पर उसका दिल बड़ा छोटा था । सोमलिक को देखकर वह बुड़बुड़ाने लगा, “अरे राम, जाने कहाँ-कहां से लोग आ जाते हैं? अब मैं भला इन्हीं की सेवा करता रहूँगा?”

गुप्तधन के पास बहुत धन था पर वह कभी किसी के लिए कौड़ी भी खर्च नहीं करता था । बहुत देर तक वह सोमलिक से कठोर वचन कहता रहा, फिर किसी तरह रो-पीटकर रूखा-सूखा उसे खिलाया । साथ में ऐसी अपमानजनक बातें भी कह दीं कि सोमलिक बुरी तरह दुखी हो उठा । जैसे-तैसे अपमान का घूँट भरकर वह वहाँ रहा । इसलिए कि वहाँ रुकने के लिए दिव्य पुरुष ने उसे कहा था ।

रात में सोमलिक को नींद आई तो उसे फिर वहीं दो दिव्य पुरुष दिखाई दिए । उनमें से एक ने कहा, “गुप्तधन जैसे महाकंजूस ने सोमलिक को रूखा-सूखा खिला कैसे दिया? इसके भाग्य में तो किसी को कौड़ी देना भी नहीं लिखा ।”

दूसरे दिव्य पुरुष ने कहा कि “देखना, इसकी भी किसी न किसी तरह भरपाई हो जाएगी ।”

अगले दिन गुप्तधन बीमार पड़ गया और पूरे दिन उसने कुछ नहीं खाया । लिहाजा कल जो उसने सोमलिक को रूखा-सूखा जो खिलाया था, उसकी खुद-ब-खुद थोड़ी-बहुत भरपाई हो गई ।

अगले दिन सोमलिक वहाँ से चल पड़ा और चलते-चलते उपभुक्तधन के पास पहुँचा । उपमुक्तधन की स्थिति बड़ी खराब थी । पूरे घर में गरीबी की छाया थी । पर फिर भी सोमलिक को देखकर उसका चेहरा खिल गया । उसने कहा, “अतिथि देवता के समान होता है । आप मेरे घर में आए हैं । आपने मुझ पर बड़ी कृपा की । आपका स्वागत है ।”

फिर उपमुक्तधन ने खूब खुशी से सोमलिक का स्वागत-सत्कार किया । जो उसकी हैसियत थी, उससे बहुत अधिक बढ़-चढ़कर उसने खर्च किया, ताकि घर आए अतिथि को किसी तरह की कोई परेशानी न हो । घड़ी-घड़ी वह उससे पूछता रहता था, “आपको कोई असुविधा तो नहीं हुई? किसी चीज की जरूरत हो तो बताएँ ।”

सुनकर सोमलिक का हृदय भीग गया ।

रात में सोमलिक सोया तो सपने में उसे वही दो दिव्य पुरुष दिखाई दिए । उनमें से एक ने कहा, “देखो भई, उपयुक्तधन ने अपनी हैसियत से बहुत ज्यादा सोमलिक पर खर्च कर दिया । उसकी हर तरह की जरूरत पूरी की, जबकि खुद उसकी हालत अच्छी नहीं है । मुझे समझ में नहीं आता कि वह इस बात की भरपाई कैसे करेगा?”

दूसरे दिव्य पुरुष ने मुसकराते हुए कहा, “चिंता न करो । कुछ न कुछ जरूर होगा । मुझे विश्वास है ।”

अगले ही दिन राजा के सैनिक उपयुक्तधन का पता खोजते-खोजते उसके पास पहुँचे । कहा, “राजा ने आपके बनाए वस्त्र देखे और आपके बनाए वस्त्रों की बनावट और बारीकी की बहुत प्रशंसा की है । साथ ही पुरस्कार के रूप में ये मुद्राएँ भेजी हैं ।”

कहकर उसने स्वर्ण मुद्राओं से भरी थैली उपमुक्तधन को दे दी ।

देखकर सोमलिक को बड़ा अच्छा लगा ।

अगले दिन सोमलिक वहाँ से चल दिया । वह चलते-चलते पूरे रास्ते भर यही सोचता रहा, ‘गुप्तधन के पास सब कुछ है, पर वह कैसा अभागा है जो किसी को एक कौड़ी तक नहीं दे सकता । ऐसे धन का फायदा ही क्या है? और ऐसा कंजूस तो धिक्कार के योग्य ही है । और दूसरी ओर उपमुक्तधन कितना उदार और भला है । कहने को उसके पास कुछ नहीं है, पर उसका मन कितना बड़ा है । जीवन जीने का तो आखिर यही मतलब है । गुप्तधन जैसा, जीवन जीकर मैं क्या करूँगा? ऐसे लोग तो धिक्कार के ही पात्र हैं । ‘

सोमलिक लौटकर अपने स्थान पर पहुँचा तो रात में उसे फिर वही दिव्य पुरुष दिखाई दिया । उसने पूछा, “क्या तुमने अच्छी तरह विचार कर लिया है कि तुम्हें कैसा धन चाहिए?”

सोमलिक ने निर्द्वद भाव से कहा, “मुझे तो उपमुक्तधन जैसा ही धन चाहिए । गरीबी के बावजूद उसके अंदर देने की भावना बड़ी है । मुझे तो यही चीज बड़ी लगती है ।”

“ठीक है!” उस दिव्य पुरुष ने कहा, “आज से तुम्हारे पास ढेर सारा धन आएगा, पर वह ज्यादा ठहरेगा नहीं । हां, तुम्हारा कोई काम भी धन की कमी के कारण नहीं रुकेगा । जो धन आए उसे अच्छे कामों में लगाओ और हँसी-खुशी जीओ । फिर तुम्हारे जीवन में कोई दुख नहीं रहेगा ।”

सुनकर सोमलिक के चेहरे पर खुशी की चमक दिखाई देने लगी । अगले ही दिन राजा के कर्मचारी उसके पास पहुँचे । कहा, “राजा ने उसकी वस्त्र-कला की बहुत तारीफ सुनी है । इसलिए उन्होंने अपने विशेष मित्रों और संबंधियों को देने के लिए ढेर सारे सुंदर वस्त्र बनाने के लिए कहा है ।”

कहकर राजसेवकों ने स्वर्ण-मुद्राओं से भरी थैली उसके सामने रख दी । सोमलिक उसी समय काम में जुट गया । उसने बहुत सुंदर वस्त्र तैयार करके राजा को दिए । पुरस्कार के रूप में राजा ने उसे और भी धन दिया । अब सोमलिक ने अपने लिए एक सुंदर सा घर बनवाया । फिर जो पैसा बचा, उसे गाँव में कुएँ, धर्मशाला और दूसरी चीजें बनवाने में खर्च किया । दीन-दुखियों की मदद में तो वह कोई कमी करता ही नहीं था । वह जानता था, धन उसके पास टिकेगा ही नहीं । लिहाजा वह जितने अच्छे से अच्छे कामों में लगे, उतना ही अच्छा है!

इस बात से दूर-दूर तक सोमलिक का नाम हो गया । और वह खूब हँसी-खुशी जिंदगी गुजारने लगा ।