प्राचीन काल में किसी गुरुकुल में चार ब्राह्मण रहते थे । उन्होंने अनेक शास्त्रों का अध्ययन करके ज्ञान प्राप्त कर लिया था, लेकिन उनमें लोक व्यवहार की समझ बिल्कुल नहीं थी । कब और किस परिस्थिति में कैसा आचरण करना चाहिए उन्हें इस बात की कतई जानकारी नहीं थी ।
गुरुकुल में विद्याध्ययन पूरा करने के बाद उन्होंने गुरु जी से आज्ञा ली और घर की ओर चल पड़े । पर वे किस राह से जाएँ, यह तो उन्हें पता ही नहीं था ।
आखिर चलते चलते वे एक दोराहे के पास आ गए । वहाँ से अलग अलग दिशाओं में जाने के लिए दो रास्ते निकलते थे । वे किस रास्ते से जाएँ उनकी समझ में नहीं आ रहा था । उलझन में पड़कर वे आपस में सोच-विचार करने लगे ।
तभी उनमें से एक ने झटपट एक बड़ी पोथी निकालकर पन्ने पलटने शुरू किए । उसमें लिखा था, “जिस राह से महाजन अर्थात महापुरुष जाएँ वही उचित रास्ता है ।”
लेकिन भला यह कैसे पता चले कि महाजन या श्रेष्ठ पुरुष किस रास्ते से जाते हैं? यह तो उन्हें पता ही नहीं था । लिहाजा उनकी परेशानी और उलझन जस की तस रही ।
अभी वे सोच ही रहे थे कि क्या करें, क्या नहीं? इतने में ही उन्हें एक शव-यात्रा आती दिखाई दी । उस नगर के एक वणिकपुत्र की मृत्यु हो गई थी । उसकी शव-यात्रा में बहुत से बनिए (महाजन) शामिल थे ।
बस, उनमें से एक ने उत्साहित होकर कहा, “देखो-देखो, महाजन उधर जा रहे हैं । इसलिए हमें भी इसी रास्ते पर जाना चाहिए ।”
और बस, चारों विद्वान ब्राह्मण कुमार उस शव-यात्रा के पीछे-पीछे श्मशान की ओर चल दिए ।
वहाँ शव-यात्रा में आए लोग और परिजन तो मृतक की अंत्येष्टि में लग गए । ये चारों ब्राह्मण कुमार आसपास ही घूमने लगे ।
अचानक एक जगह खेत में उन्हें एक गधा खड़ा दिखाई दिया । उसे देखकर उन चारों को बड़ा विस्मय हुआ । सोचने लगे, ‘भला यह क्या है?’
तभी उनमें से एक ने पोथा खोला और उसे उलट-पुलटकर बताया, “किसी दुख-विपत्ति में, उत्सव में, राजसभा में या फिर श्मशान में अचानक मिला व्यक्ति, बंधु या सहोदर होता है । “
अब तो वे चारों गधे के पास गए और उससे लिपटकर अपना प्रेम जताने लगे । एक-दो ने तो बड़े प्यार से उस गधा-बंधु के पैर भी धोए ।
कुछ ही देर में उन्हें एक ऊँट दिखाई दिया । दूर से दौड़ता हुआ वह ऊँट तेजी से पास आ रहा था । उसके गले में एक घंटी बंधी थी जो जोर-जोर से बज रही थी ।
‘अरे, यह क्या है?’ उन चारों ने हैरानी से भरकर सोचा । तभी उन चार ब्राह्मण कुमारों में से एक ने फिर से पोथा खोला और झटपट पन्ने उलट- पुलटकर कहा, “मुझे तो लगता है कि यह साक्षात धर्म है । क्योंकि इस पुस्तक में लिखा हुआ है कि धर्म की गति तेज होती है और वह घंटा बजाता हुआ आता है ।”
सुनकर चारों खुश हुए ।
अब तो उन चारों मित्रों को कोई शक नहीं रह गया कि तेजी से दौड़कर पास आता यह प्राणी धर्म ही है ।
तभी उन चारों में से एक ने कहा, ‘’ भई शास्त्रों में तो यह भी लिखा है कि धर्म को बंधु-बांधवों से जोड़ना सबसे बड़ा पुण्य या सदाचार है ।”
“चलो, तो हम भी यही करते हैं ।” दूसरे ब्राह्मण कुमार ने कहा ।
अब क्या था? झटपट कहीं से रस्सी ढूँढ़ी गई और फिर चारों मित्रों ने बड़ी कोशिश करके गधे को ऊँट के पास लाकर बाँधने की जुगत शुरू की । बड़ी मुश्किल से उन्होंने दोनों को आपस में बाँधा । मगर इससे गधा और ऊँट दोनों ही नाराज हो गए । दोनों परेशान होकर जोर-जोर से चिल्लाने और शोर मचाने लगे ।
किसी ने ऊँट और गधे के मालिकों को बता दिया कि श्मशान में चार सिरफिरे युवक हैं । उन्होंने ही यह बदमाशी की है । बस, वे तो डंडे लेकर उन्हें मारने दौड़ पड़े ।
इधर उन चारों ब्राह्मण कुमारों ने डंडे लेकर भागते और शोर मचाते हुए लोगों को देखा तो समझ गए कि अब उनकी खैर नहीं । उनमें से एक ने फिर झटपट पोथा खोलकर देखा और बोला, “इस तरह का असामान्य आचरण करने वाले तो पागल, उन्मत्त या महाक्रोधी लोग होते हैं । इनसे बचकर ही रहना चाहिए । लिहाजा जितनी जल्दी हो, यहां से भाग लो ।”
अब तो चारों ब्राह्मण कुमार सिर पर पैर रखकर भागे और वहाँ से दूर एक जंगल में पहुँच गए । उन्हें लगा, जान बची तो लाखों पाए ।
लेकिन मुसीबत अभी खत्म कहाँ हुई थी । वे एक जंगल में चलते जा रहे थे, तभी अचानक बीच में एक नदी आ गई । अब भला नदी को कैसे पार करें? नदी में पीपल का एक पत्ता बह रहा था । उनमें से ब्राह्मण कुमार ने कहा, “डूबते को तिनके का सहारा काफी होता है । मैं तो इस बहते हुए पत्ते के सहारे ही नदी पार करूँगा ।” कहकर झट से वह उस पत्ते के ऊपर कूद पड़ा । पर उसे तैरना तो आता ही नहीं था । पत्ता बेचारा कहाँ तक उसकी मदद करता? लिहाजा शास्त्र पड़ा हुआ वह विद्वान ब्राह्मण नदी में डूबने लगा । उसके बाकी तीनों साथियों ने देखा, तो तेजी से उसके बाल पकड़-लिए । अब उस ब्राह्मण कुमार का सिर तो बाहर था, लेकिन बाकी शरीर पानी में डूबा हुआ था ।
इस हालत में भला क्या करें? शास्त्र पड़े हुए ब्राह्मणों ने फिर से इस पर सोच-विचार किया । किसी ने झटपट पोथा खोला । उसमें लिखा हुआ था कि जब पूरे को बचाना संभव न हो, तो आधे को बचा लेना चाहिए ।
लिहाजा उनमें से एक ने चाकू निकाला और झटपट अपने साथी का सिर काट लिया । फिर उस सिर का अंतिम संस्कार करके वे आगे चल दिए ।
अब रह गए तीन ब्राह्मण । तीनों शास्त्र पड़े हुए विद्वान ब्राह्मण एक गांव में पहुँचे । वहाँ गाँव वालों ने विद्वान समझकर उनकी काफी खातिर की । तीनों को भोजन के लिए अलग-अलग घरों में ले जाया गया ।
एक के सामने सेवियाँ परोसीं गई । पर उसने शास्त्र के पन्ने खोलकर देखा, तो उसमें लिखा था, “बड़े-बड़े तंतुओं वाला दीर्घसूत्री नष्ट हो जाता है ।” बस, वह तो घबराकर उठ खड़ा हुआ और उसने ऐसा भोजन करने से साफ इनकार कर दिया ।
दूसरे के सामने गरम-गरम फुलके परोसे गए । उसने उसी समय शास्त्र निकालकर पन्ने उलटे-पुलटे । उस पर लिखा हुआ था फैली हुए वस्तुएँ और फैला हुआ आचरण ठीक नहीं होता, उनसे दूर रहना चाहिए । बस, वह भी झटपट वहाँ से उठा और बोला, “मैं तो यह भोजन नहीं करूंगा ।” भोजन खिलाने वाले किसान को इतना गुस्सा आया कि उसने उसे लाठी मार-मारकर घर से बाहर निकाल दिया ।
तीसरे विद्वान पंडित के आगे गरम-गरम जलेबियाँ परोसी गई, तो उसे उनमें छिद्र नजर आ गए । उसने भी खाने से इनकार कर दिया । किसानों ने उसे भी लाठी मार-मारकर धर से निकाल दिया ।
अब शास्त्र पड़े हुए तीनों विद्वान बड़े दुखी और अपमानित होकर उस गांव से जा रहे थे । मन ही मन वे बड़बड़ाते हुए जा रहे थे, “पता नहीं क्या बात है? हम इतने शास्त्र पड़े हुए हैं, इतने भारी विद्वान हैं, फिर भी लोग हमारी कुछ कद्र नहीं करते ।”
उधर गाँव वाले शास्त्र पढ़े हुए इन मूर्ख ब्राह्मणों की बातों पर हंस-हंसकर दोहरे होते जा रहे थे । वे कह रहे थे, “ऐसे शास्त्र पड़े हुए विद्वानों से तो गांव के सीधे-सादे, अनपढ़ लोग कहीं ज्यादा भले है । कम से कम वे लोकाचार और समझदारी की बात तो करते हैं!”