अभी परसों ही स्कूल में आशुतोष के चित्रों की प्रदर्शनी लगी थी। इन चित्रों को जो भी देखता, वह जी भरकर आशुतोष की कला की तारीफ करता था। इतनी कम उम्र में ही उसके चित्र बोलते हुए से लगते। उनमें गजब का आकर्षण और निखार था। सबसे सजीव लगती थीं उसकी बनाई रंग-बिरंगी चिड़ियाँ, जलपाँखी, तोते और मोर, जैसे इशारा करते ही अभी उड़ जाएँगे। रंगों का इतना बढ़िया मेल देखकर हर कोई ठगा सा रह जाता था। लोगों को जैसे यकीन नहीं आ रहा था। वे बार-बार आशुतोष से पूछते, ”आशु, तूने ही बनाए हैं न ये चित्र, तूने?”
वैसे चार-पाँच साल की उम्र से ही आशुतोष के भीतर जाने कैसे चित्र बनाने की लगन पैदा हो गई थी। कोयले या खड़िया से फर्श पर दिन भर रेखाएँ खींचता रहता था। नर्सरी के दूसरे विद्यार्थी जब ए-बी-सी भी नहीं लिख पाते थे, वह स्लेट पर जलमुर्गाबियाँ और बतखें बनाने लगा था। कुछ और बड़ा हुआ, तो रंगीन पैंसिलों से कॉपी पर चित्र बनाता। नए साल पर दोस्तों को रंग-बिरंगे चित्रों के रूप में सुंदर तोहफे देता।
और अब तो आशुतोष सातवीं कक्षा में आ गया था। उसका आत्मविश्वास और निखर गया था। बड़ी ही सधी हुई रेखाएँ खींचता और रंग भरते ही वे चित्र बोलने लगते। चित्र बनाने समय पूरी तरह खो जाता था वह। शायद इसीलिए उसके चित्र किसी बड़े चित्रकार द्वारा बनाए गए लगते थे।
कई बार आशुतोष के सहपाठी उसके बनाए चित्र घर दिखाने ले जाते। फिर सबके खूब तारीफ करने पर वे कहते, ”इसे बनाने वाले चित्रकार की उम्र केवल ग्यारह वर्ष है!” सुनकर सभी चकित रह जाते।
आशुतोष के ड्राइंग मास्टर सोमेश जी उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहते, ”तुम बड़े होकर नामी चित्रकार बनोगे। याद रखना मेरी बात!” और आशुतोष को मीठी गुदगुदी सी होती। उसके जीवन का सबसे बड़ा सपना यही तो था।
पर आज सिर्फ दो दिन बाद ही उसके सपनों और उम्मीदों के घरौंदे पर जैसे किसी ने तलवार चला दी। आशुतोष तड़पता हुआ सड़क पर पड़ा था, लहूलुहान!
उफ, क्या से क्या हो गया! वह घर आने के लिए बस से उतर रहा था कि अचानक एक ट्रक तेजी से चलता हुआ पास से गुजरा। आशुतोष धक्का खाकर गिर पड़ा और ट्रक के पहिए उसके हाथों पर से होकर गुजर गए। भयानक दर्द के मारे आशुतोष बेहोश हो गया था। उसकी बाँहें और सारा शरीर खून से लथपथ था। आशुतोष के मम्मी-पापा को यह खबर मिली तो वे घबराए हुए वहाँ पहुँचे। बेटे की यह हालत देखी, तो खुद को सँभालना मुश्किल हो गया। मम्मी का तो रो-रोकर बुरा हाल था।
फौरन आशुतोष को अस्पताल ले जाया गया। डाक्टरों ने झटपट इंजेक्शन लगाए। उपचार में जुट गए। पूरे चौबीस घंटों तक आशुतोष बेहोश रहा। जब उसे होश आया तो वह दर्द के मारे कराह उठा। मम्मी और पापा ने प्यार से उसे लेटे रहने के लिए कहा। पर उसका ध्यान अपनी बाँहों की ओर गया जिन पर प्लास्टर चढ़ा था। वह उन्हें हिला तक नहीं सकता था।
उसे वह दुर्घटना याद आ गई। कुछ देर वह अपनी बाँहों को देखता रहा, फिर उसकी आँखों से आँसू बह निकले। उसने पापा से कहा, ”पापा, अब मैं चित्र कैसे बनाऊँगा?”
आशुतोष की यह बात सुनते ही उसके मम्मी-पापा की आँखें आँसुओं से भीग गईं। पर आशुतोष को दिलासा देते हुए उन्होंने भर्राए हुए गले से कहा, ”सब ठीक हो जाएगा, बेटे! तुम बिल्कुल चिंता मत करो।”
पूरे दो महीने बाद प्लास्टर उतरा। अब वह बाँहों को थोड़ा-बहुत हिला सकता था। पर हाथ जैसे बेजान होकर रह गए थे। हाथों की उँगलियाँ बुरी तरह कुचल गई थीं।
इसके एक महीने बाद आशुतोष ने फिर से स्कूल जाना शुरू किया। पर अब वह हर वक्त बुझा-बुझा सा रहता था। उसके मम्मी-पापा और अध्यापक उसे खुश रखने के लिए लाख कोशिश करते, पर उसकी उदासी कम नहीं होती थी। वह हर वक्त गुमसुम सा कुछ सोचता रहता था।
आशुतोष के चित्रकला के अध्यापक सोमेश जी उसकी हालत देखकर बहुत दुखी हुए। वे यह बात जानते थे कि चित्र बनाने का शौक आशुतोष के रोम-रोम में बसा है। पर अब चित्र न बना पाने की विवशता के कारण वह निराश हो चुका है। वे आशुतोष को इस निराशा के घेरे से बाहर लाने के बारे में विचार करने लगे। एक-दो बार समझाने-बुझाने की कोशिश की, पर आशुतोष का चेहरा तो ऐसे बुझ गया था, जैसे किसी ने राख मल दी हो।
एक दिन मास्टर जी अखबार पढ़ रहे थे। अचानक वे चौंक उठे। उनका ध्यान एक खबर पर गया, ”पैरों से कढ़ाई-बुनाई कर सकती हैं अंबिका!” यह खबर एक अपंग लड़की के बारे में थी जो पैरों से बहुत सुंदर चित्र बनाती थी, कढ़ाई-बुनाई करती थी और खाना बनाती थीं। यहाँ तक कि मोती जैसे अक्षरों से लिख भी सकती थी।
उन्हें लगा, उनकी समस्या का हल मिल गया है। उन्होंने अखबार की यह कतरन काटकर अपने पास रख ली।
अगले दिन सोमेश जी ने आशुतोष को बुलाया और अखबार में छपी यह खबर पढ़ने के लिए दी। उसे पढ़ते ही आशुतोष के चेहरे पर चमक आ गई। आँखें झिप-झिप करने लगीं।
राजधानी के लाल किला मैदान में अंबिका के इस अनोखे कार्यक्रम का प्रदर्शन था। आशुतोष ने थरथराती आवाज में कहा, ”मास्टर जी, मैं यह कार्यक्रम जरूर देखूँगा।”
उस दिन शाम को सोमेश जी आशुतोष के साथ घर आए। उन्होंने आशुतोष के मम्मी-पापा से कहा, ”कल आशुतोष दिल्ली जाएगा मेरे साथ।” और सारी बात बता दी।
आशुतोष के पापा हँसे, ”वाह, आप दोनों ही क्यों? हम लोग क्यों नहीं?” आनन-फानन में उन्होंने सोमेश जी के साथ उस प्रदर्शन को देखने का कार्यक्रम बना लिया।
इतवार को सभी लोग दिल्ली पहुँचे। पहले चिडिय़ाघर और गुड़ियाघर की सैर की और फिर लाल किले के सामने मैदान में शाम के समय कार्यक्रम देखने पहुँच गए।
ठीक समय पर कार्यक्रम शुरू हुआ। उस छोटी सी लड़की अंबिका ने बहुत आत्मविश्वास के साथ पैरों से सारा काम करके दिखाया। आशुतोष उसकी एक-एक बात पर गौर करता रहा। उसका पैरों में चम्मच उठाना, पकडऩा, हिलाना, सूई चलाना, कढ़ाई-बुनाई, चित्रकारी सभी कुछ।
कार्यक्रम खत्म होने पर उसने मास्टर जी से कहा, ”मास्टर जी, क्या मैं भी ऐसे ही चित्र बना सकता हूँ? बना सकता हूँ न!”
”हाँ-हाँ बेटे, क्यों नहीं? तुम कोशिश करो तो अब भी बहुत बड़े चित्रकार बन सकते हो।” मास्टर जी ने फिर से उसके आत्मविश्वास को जगा दिया।
आशुतोष के भीतर यह बात बैठ गई। उसकी सोई हुई उमंग और सपने जाग गए। उसी दिन घर आकर उसने पैर से ब्रश पकड़ने और हलके-हलके चलाने का अभ्यास किया।
अब वह चित्र बनाने की कोशिश करने लगा। शुरू-शुरू में लकीरें टेढ़ी बनती थीं। रंग बिखर जाते थे। काम करने में उसे थकान भी बहुत ज्यादा हो जाती थी। पर धीरे-धीरे वह पैरों से चित्र बनाने लगा। अब उसके चित्रों में पहले की तरह सफाई और निखार भी आने लगा था।
आशुतोष पूरे आत्मविश्वास से जुट पड़ा और खूब मेहनत करने लगा। धीरे-धीरे उसके चित्रों में पहले जैसी कलात्मकता और निराला आकर्षण आने लगा। जब उसने प्रकृति और जीवन के दृश्यों को अपनी कल्पना से रँगकर कागज पर उतारा, तो उनमें हँसी-खुशी के रंग पहले से भी ज्यादा छलछला रहे थे।
आशुतोष की यह लगन देखकर सोमेश जी ने स्कूल में फिर से उसके चित्रों की प्रदर्शनी का आयोजन किया। ठीक दो साल बाद यह प्रदर्शनी हो रही थी।
इस बार आशुतोष के चित्रों में पहले से भी ज्यादा बारीकी और कल्पनाशीलता थी। हर चित्र में जीवन की हँसी-खुशी और मुस्कानें छलक रही थीं।
प्रसिद्ध चित्रकार देवधर जी ने प्रदर्शनी का उद्घाटन किया। सबने दिल खोलकर चित्रों की सराहना की और आशुतोष की लगन पर प्रसन्नता प्रकट की। देवधर जी ने आशुतोष की तारीफ करते हुए उसे ‘कल का महान कलाकार’ बताया, तो आशुतोष की आँखों से बरबस आँसू छलक पड़े।
उसने दौड़कर सोमेश जी के पैर छू लिए। बोला, ”आपने रास्ता दिखा दिया है। अब मेरे जीवन में कीं अँधेरा नहीं है, कही नहीं!”
दूर खड़े देवधर जी मंद-मंद मुसकरा रहे थे।
