Overview:फुलमा और रांझलू: अधूरी मोहब्बत की अंतिम विदाई
चम्बा की पहाड़ियों और गद्दी विरासत की पृष्ठभूमि में बुनी यह कहानी प्रेम, पीड़ा और त्याग का मार्मिक दस्तावेज़ है। एक संग्रहालय में सोभासिंघ की प्रसिद्ध पेंटिंग “गद्दंन” देखते हुए कुछ युवतियों की आँखों में बहते आँसू एक ऐसी सच्ची दास्तान का दरवाज़ा खोलते हैं जो पीढ़ियों से पहाड़ों में गायी जाती है—फुलमा और रांझलू की दास्तान।
गरीबी और जातिगत दीवारों ने उनके प्रेम को बाँट दिया, लेकिन रांझलू का फुलमा को अंतिम विदाई देना—उसे सुहागिन की तरह लाल चादर ओढ़ाकर चिता को अग्नि देना—इस प्रेम कथा को अमर बना गया। यह कहानी बताती है कि सच्चा प्रेम मरता नहीं, बल्कि लोकगीतों की तरह पीढ़ियों में गूँजता हुआ अमर रहता है।
A love story that burned brighter than destiny.-“ऐसी ही लगती होगी हमारी फुलमा”कानों में ये शब्द और गले के पास ठंडी साँस का अनुभव हुआ.चौंक कर मै पीछे मुड़ी तो देखा-हमारे पीछे की भीड़ में एक गद्दी युवक और युवती खड़े थे.ये शब्द उसी युवती ने कहे थे.हम सब चम्बा के संग्रहालय में खड़े थे.सबकी आँखों का केंद्र थी-सुप्रसिद्ध सोभासिंघ की अनुपम कलाकृति-“गद्दंन”
चित्रकार की कुशल अंगुलियों से सशरीर उतर आयी थी पहाड़ी युवती,सुंदर गोरा चेहरा,हिरणी सी आँखें,अर्धचंद्र माथे को ढकता सा आँचल-सफ़ेद ऊनी लहंगे पर हरे रंग का कुर्ता.पहाड़ की चढ़ाई चढ़ते हुए कुछ झुकी हुई वो पीठ पर कंबल और हाथों में प्यारा सा मेमना लिए थी. हमारी आँखे प्रशंसा से भर आयीं,पर उस गद्दी युवती की आँखों में जैसे आँसुओं की बाढ़ आ गयी थी.बार बार आँखे पोंछती हुई वो उसे देखे जा रही थी.
हम सब छात्राओं का ग्रुप दिल्ली से चम्बा के सुप्रसिद्ध “मिंजर”मेले के सांस्कृतिक कार्यक्रम में शामिल होने आया था.मिंजर मेला-पंजाब के “बैसाखी मेला” जैसा ही लोकप्रिय त्योहार है,जिसमें चंबल वासियों के अलावा,पूरे हिमाचल से लोग आये थे.उनमे दूर गाँवों से आए गद्दी लोग अपने सौंदर्य एवं भिन्न वेष भूषा से अलग दिख रहे थे.

प्रोग्राम का अंतिम भाग था चंबा कौलेज की छात्राओं द्वारा प्रस्तुत एक लोकगीत जिसमें साज के रूप में केवल बाँसुरी बजायी गई.गीत के दर्द भरे बोल और बाँसुरी की हूक ने जैसे पूरे चौगान पर जादू की छड़ी फेर दी थी.ज्यों ही शब्द मूक हुए ,मैंने कई गद्दी युवतियों को आँखे पोंछते देखा.
“गौरी.”मैंने अपनी संगिनी से पूछा जो चम्बा यात्रा के दौरान मेरी नयी नयी मित्र बनी थी
“हाँ”गौरी ने उत्तर देते हुए आँखे ऊपर उठाईं तो मैंने देखा-उसकी आँखें भी आँसुओं से नम थीं
“तेरी आँखों में भी आँसू?लगता है..यह गीत ही नहीं बल्कि “हीर-रांझे”जैसा सचमुच का कोई क़िस्सा ही होगा”
“सही कह रही हैं आप..यह हमारे भरमौर के एक गाँव की गद्दी लड़की की सच्ची कहानी है”
“सच्ची कहानी..?”
“फ़ुलमाँ हमारे भरमौर के एक गाँव की गद्दी लड़की थी.हमने उसे कभी नहीं देखा पर अपनी अम्माँ से उसकी बातें सुनसुनकर वो हमें अपनी सगी जैसी ही लगती है.उनसे सुना था कि फ़ुलमाँ नाम से ही नहीं,बल्कि रूप-रंग,गुण सब अर्थों में सच्ची फ़ुलमाँ थी,शायद उस पेंटिंग जैसी ही रही होगी.
सबकी दुलारी थी.सबको प्यार करती…सब से प्यार लेती.रेवड़ चराते चराते न जाने कब उसे “रांझलू”मिल गया.
“रांझलू?’मैंने हैरानी से कहा”यह तो पंजाब के राजा का नाम है”
“ऐसा ही सब कहते हैं….वैसा ही गबरू जवान था..वैसी हो मोहनी बाँसुरी बजाता था.सब उसे रांझा कह कर ही बुलाते थे.उसे फ़ुलमाँ में जैसे अपनी हीर मिल गयी.दोनों एक दूसरे के प्रेम में ऐसी सुधबुध भूले,जैसे कभी कृष्ण की बँसी सुन राधा भूल जाती थी.लेकिन लोग तो नहीं भूलने देते.
पूरे गाँव में ये बात फैल ग़यी.सारा गाँव दोनों पर जान छिड़कता था,लेकिन राँझे के ज़मींदार बाप को ये रिश्ता मंज़ूर नहीं था,बेचारी फ़ुलमाँ की ग़रीबी दीवार बनकर दोनों को अलग कर गयी.वही हुआ जिस बात का डर था.रांझलू के पिता ने उसका रिश्ता कहीं और कर दिया .एक ही गाँव…एक ही मोहल्ला..पर एक घर में ब्याह की तैयरियाँ .और दूसरे में रोती..बिलखती फ़ुलमाँ …उधर रांझलू भी तड़प रहा था.दोनों अपने अपने घरों में जैसे क़ैदी थे.आख़िर ब्याह का दिन भी आ गया.
राँझे को घेर कर उसके सगे संबंधी उसे बुटणा( उबटन)लगाने लगे.अब फुलमा से नहीं रहा गया.वो भागती हुई आयी और रांझलू को देखकर घायल हिरणी सी अपनी कोठरी में जाकर बंद हो गयी.
जब दूल्हे रांझलू को पालकी में बिठाकर बारात चलने लगी तभी शोर मचा,”फुलमा ने ज़हर खा लिया”रांझलू के कानों में ये शब्द तीर जैसे लगे.वो झपट कर पालकी से उतर पड़ा.माँ-बाप ने लाख टोका..अपशकुन का वास्ता दिया..पर रांझलू के लिए तो मानों प्रलय आ गयी थी.वो भागता हुआ वहाँ पहुँचा जहाँ उसकी संगिनी की बेजान लाश पड़ी थी.बरसती आँखों और कांपते हाथों से उसने फ़ुलमाँ की अर्थी को कंधा दिया.शमशान घाट में उसने अपने हाथों से उसे चिता पर रखा और जैसे कोई पति अपनी पत्नी को विदा करता है..उसी तरह फुलमा को लाल चादर उढ़ा कर चिता को आग लगा दी.
आज तक ऐसा न किसी ने देखा,ना ही सुना था.रांझलू ने अपनी फुलमाँ को सबके सामने सुहागिन बना कर भेजा.उसके गीत आज तक पहाड़ में गाये जाते हैं.
