लाल जोड़ा-गृहलक्ष्मी की कहानियां: Hindi Kahaniya
Laal Joda

Hindi Kahaniya: “नेहा! वादा करो! तुम कभी सादगी नहीं अपनाओगी। मैं तुम्हें हमेशा लाल जोड़े में सजा धजा ही देखना चाहता हूं समझी….”अनिल का अनुरोध अजीब सा था।
उसके युवा पति की इस वक्त ये कैसी मांग है…अनिल की लड़खड़ाती आवाज उसके कानों में देर तक गूंजती रही और उसके साथ ही डॉक्टर की बात भी,
“मिसेज नेहा आप मिस्टर अनिल से आखिरी बार मिलना चाहें तो…!”
आखिरी बार …ये शब्द उसकी रूह को कंपाने के लिए काफी थे। उसे अपने कानों पर यकीन ही नहीं हो रहा था। वह तो जैसे किसी चमत्कार की प्रतीक्षा में थी। सब कुछ ठीक हो जायेगा और अनिल अस्पताल से सकुशल घर आ जायेंगे। वह उनके मनपंसद लाल जोड़े में उनका स्वागत करेगी मगर अफसोस कि अब किसी चमत्कार की कोई गुंजाइश शेष नहीं रही। डॉक्टर ने साफ़ साफ़ कह दिया कि अनिल अपनी आखिरी सांसे ले रहा है। यह सुनकर एक बार को ऐसा लगा जैसे उसका शरीर अपनी ही जगह पर जम गया। हाथ पांव ने काम करना बंद कर दिया । भला कौन सी ऐसी पत्नी होगी जो भरी जवानी में पति का साथ छुटने को समान्य तरीके से ले। आंखों के आगे जैसे अंधेरा सा छा रहा था कि उसकी नजर कैलेंडर पर पड़ी।
ओह! आज की तिथि की वह बेसब्री से प्रतीक्षा करता था। उसने फटाफट अपनी आंखों के आंसू पोंछे। वह अपना वादा भला कैसे तोड़ सकती है। बाद में जो भी हो फिलहाल अपने पति को खुशी खुशी विदा करेगी। उसने अपना कबर्ड खोला तो सामने ही लाल जोड़ा टंगा दिख गया। एनिवर्सरी नजदीक थी तभी तो अनिल ने उसके लिए ड्राइक्लीन कराकर रखा था। जाने कहां से साहस आया और सोलह श्रृंगार कर तैयार हो गई। कार की चाबी उठा लिया और निकल पड़ी। अटलांटा शहर बहुत बड़ा तो है नहीं। लोग मुड़ मुड़ कर उसके लिबास को देख रहे थे पर उसे तो कुछ भी नहीं सूझ रहा था। रास्ते में चार सिग्नल पड़े। सबकी अजीबोगरीब नज़रें चुभती रहीं। लोगों को उसका लाल रंग अटपटा लग रहा था। जहां सफ़ेद रंग सुहाग की निशानी हो वहां ग्रे,नीले व काले कपड़े ही ज्यादा से ज्यादा पहने जाते हैं। ऐसे में सुर्ख लाल रंग का भारी जड़ी बूटियों से भरा लहंगा चुन्नी और इतना सारा सोना पहने कोई कार चलाता दिखे तो अचरज का होना सामान्य है।

ये कहानी अटलांटा में रहने वाले एक इंजीनयर की है जो आंध्रप्रदेश के एक गांव का मूल निवासी था,जहां लोग अक्सर शादी ब्याह रिश्तेदारियों में निपटाते हैं। ऐसा ही रिश्ता नेहा का भी हुआ था। बस अट्ठारह की थी जब उसके नजदीकी रिश्तेदार का रिश्ता आया। अनिल ने इंजीनियरिंग के बाद न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी से मास्टर्स की डिग्री पूरी की। जब कैंपस सेलेक्शन से जॉब भी लग गई तो घरवालों ने उसका ब्याह नेहा के साथ तय कर दिया।
परिवार वालों ने सोचा कि बार बार आना जाना क्यों करना है,आया है तो दुल्हन को लेकर ही वापस जाए। दुल्हा पच्चीस का और दुल्हन अट्ठारह की, देखने दिखाने वाली जोड़ी थी दोनो की। प्यार उतना तो था ही जितना किसी भी नवयुगल में होता है। कमसिन नेहा में हया गजब की थी जिसपर अनिल दीवाना हुआ जा रहा था। दिन के बारह बजे की शादी थी। सारे रिश्ते नातेदार जमा थे। ऐसे में सबके सामने ही उसका गुस्ताख सहचर हथेली दबा बैठा। पहले तो वह सकुचाई और भी ज्यादा खुद में सिमट गई तो अनिल ने ही पहल की,
“सुनो! कयामत ढा रही हो…वादा करो आज के दिन हर साल सुहाग का लाल जोड़ा ही पहनोगी।”
“एक ही जोड़े में पूरी जिंदगी बिताना होगा? बड़े कंजूस हो!”
उसने झूठा गुस्सा दिखाया।
“नए कपड़े खरीद लेना ..जो दिल करे पहनना पर मुझे ये दिन और ये यादगार पल हमेशा ताजा रखना है। तुम्हें इसी रूप में बिल्कुल ऐसे ही करधनी और बाजुबंद के साथ सजी धजी देखना है”
तब से वह हर साल दुल्हन की तरह सोलह श्रृंगार कर सजती थी और पति आंखों ही आंखों में उसका शुक्रिया अदा करता था। आज उसे अपने श्रृंगार में एक वेदना नजर आ रही थी। आखिरी बार दुल्हन बनने की वेदना। आंखों में काजल जरूर था मगर सीने में तूफान उठ रहा था। आंखें स्नेहमय सजल नहीं थीं बल्कि दुख से पनीली और चिंता से अंगारे बरसा रही थीं। उसे बार बार स्वयं पर ही क्रोध आ रहा था और एक ही ख्याल कि वह भारत आई ही क्यों.. न वह आती और न ही अपने साथ यह जानलेवा बीमारी लाती।
मार्च महीने की बात है। उसकी मां जोरों की बीमार पड़ी तो अपनी मां से मिलने की व्याकुलता को रोक नहीं पाई। कोरोना के समय जब अंतर्राष्ट्रीय उड़ानें बंद हो गईं थी तभी उसकी मां बीमार हुईं थीं। ऐसे में जैसे ही फ्लाइट की सुविधा शुरू हुई उसने मां के आग्रह पर अनिल से ज़िद्द कर अपने लिए विशाखापत्तनम का टिकट बनवा लिया।
बच्चे बड़े हो चुके थे। बेटा शिशिर इंटर में और बेटी आशना कॉलेज में आ चुकी थी तो मां के बिना भी उन्होंने अपना ख्याल रख लिया पर नेहा के बिना अनिल का दिल नहीं लग रहा था। उसे वापस बुलाने के लिए रोज ही फोन करता।
“कब आओगी?”
“इतने दिनों बाद आई हूं तो थोड़े दिन और रह लूं!”
“अपना वादा नहीं निभाओगी?”
“कैसा वादा?”
“शादी की वर्षगांठ पर सुहाग के लाल जोड़े में साथ होने का वादा…”
“अरे हां! टिकट भेज दो!”और वह बीस मार्च को लौट आई मगर भारत से नेहा अकेली घर नहीं आई। उसके साथ कोरोना का डेल्टा वेरिएंट भी आ गया था। संभवत: एयरपोर्ट पर संक्रमित हुई थी। घर आने पर एक दो दिन में कुछ स्वस्थ महसूस करने लगी पर अनिल के सिर में जोरों का दर्द होने लगा। हॉस्पिटल जाने पर टेस्ट हुआ तो कोरोना पॉजिटिव निकला। उसे तुरंत ही अस्पताल में दाखिल कर लिया गया। पहले मामला नियंत्रण में ही था मगर इधर दो दिन पूर्व अनायास ही हालत बहुत खराब होने लगी तो उसे वेंटीलेटर पर रखा गया। उसकी हालत सुधरने के बजाय बिगड़ती ही जा रही थी। अमेरिका में डेल्टा वेरिएंट आया ही नहीं था तो उससे लड़ने में डॉक्टर भी अक्षम थे। उनके पास भी इस वेरिएंट की कोई सही दवा नहीं थी।
धीरे धीरे अनिल के शरीर के भीतरी अंग खराब हो रहे थे। जब ठीक होने के कोई आसार न दिखे तो नेहा को फ़ोन किया गया। फोन का रिसीवर हाथ में लिए ही वह जमीन पर बैठ गई थी। कैसे क्या करेगी। पति अस्पताल में आखिरी सांसें ले रहा है। बच्चों का जीवन अधर में है। घर का लोन भी सिर पर है और ऊपर से उसने अपनी ग्रेजुएशन भी पूरी नहीं की है। लेकिन इस हाल में भी उसकी आंखों में अनिल और उनसे किए वादे को पूरा करने का जुनून था। जल्दी ही गाड़ी अस्पताल के सामने रुकी तो वह झटके से बाहर आई। अस्पताल का स्टाफ बाहर ही खड़ा मिला। उसके पीछे पीछे ही कमरा नंबर 101 में पहुंची जहां अनिल दरवाजे पर टकटकी लगाए उसकी राह देख रहा था। दोनो के नयन मिले। बारह बजे की सुई जैसे वह फिर से एक साथ थे। आंखों में पिछले बीस वर्ष का सफर नाच गया और वे दोनों फिर से युवा हो उठे। अनिल कमजोर हो चुका था पर यत्नपूर्वक मुस्कुराया। मानो आंखों ही आंखों में धन्यवाद दे रहा हो। कुछ पल ठहर से गए थे। दोनों ने आंखों ही आंखों में जाने और कितने जन्मों के वादे कर लिए थे। एक दूसरे को और भी स्नेह व साहस से नवाज़ दिया था क्योंकि बाहर आने के बाद नेहा बिल्कुल नहीं रोई। पति ने जाते जाते नजरों से ही अपनी अर्धांगिनी को हिम्मत दे गया जो साथ रहकर उसे देता। नेहा को भी यह संतोष था कि अपने छोटे से वैवाहिक जीवन में उसने शायद ही अनिल की किसी बात का मान न रखा हो। आखिरी विदाई भी ऐसे दी जैसे सैनिक की पत्नी पति को युद्ध की रणभेरी पर वीरगति के लिए भेजती हैं। हां! वह वाकई कोई वीरांगना ही।थी।
बाहर आते हुए लोगों की नजरें श्रद्धा से झुकी थीं। विदेश में रह रहे जोड़ों के बीच उनकी चर्चा जोरों पर थी। क्या ऐसी होती हैं भारतीय स्त्रियां जो सदा सुहागन जीती हैं और अपने सुहाग का मान रखते हुए समग्र जीवन समर्पित रहती हैं। घर आई तो भावुक बच्चे पिता को साथ न पाकर बुरी तरह टूट गए थे। उसने उन्हें अपने सीने से लगाकर कहा,

“बस वर्तमान में जीना है। तुम्हारे पिता हर पल को खुशी से जीने की कला सिखाकर गए हैं। हम उनके बताए राह पर ही चलेंगे। जितना रोना है आज ही रो लो! आज के बाद कोई नहीं रोएगा। सब अपने हिस्से की श्रद्धांजलि स्नेह पूर्वक देंगे। ये याद रखना कि वह कहीं नहीं गए हैं। हर वक्त हमारे साथ हैं। आज से मुझे ही अपना पापा समझना!”

नेहा ने आंखों ही आंखों में जैसे अनिल को खुद में समा लिया था। उसने बच्चों की मदद से ऑनलाइन पढ़ाई करनी शुरू की। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस सीखा। अनिल के मित्रों की मदद से नौकरी पाने में आसानी हुई। बेटी ने भी पढ़ाई के साथ साथ एक पार्ट टाइम नौकरी कर ली। बेटा अपनी पढ़ाई पूरे जोर शोर से करता रहा। रिश्तेदारों ने भी यथासंभव मदद किया मगर असली हिम्मत तो उसकी ही थी जिसने अपना सुहाग खोकर और इतने बड़े दुख को झेलकर भी अपने हौसले की उड़ान में कोई कमी न आने दी।