गृहलक्ष्मी की कहानियां – बाज़ार से निकलते ही रिक्शा मिल गया। मैंने व नीलू ने अपना अपना सब्जी का थैला उस पर रखा व आराम से बैठ गए।
तेरी सास कैसी है नीलू…
ठीक है भाभी, उनका भी कुछ न कुछ लगा रहता है। हर दूसरे दिन उनकी सेवा में ही जाना पड़ता है। सारी सुविधाएं है पर फिर भी चैन से नहीं रहने देती हम लोगों को।
तुम उनको अपने घर ही क्यों नहीं ले आती। आने जाने का झंझट भी खत्म हो जायेगा व बच्चों को भी दादी का सानिध्य मिल जाएगा।
अरे भाभी.. ऐसे लेक्चर देने लगती हैं बच्चों को कि पूछो मत! हर समय कुछ न कुछ पट्टी पढ़ाती रहती हैं। बाहर की चीज मत खाओ। बडों की बातें सुनो… कपडे ठीक से पहनो, आजकल के बच्चे ये सब सुनना कहा पसंद करते हैं… वो वहीं ठीक हैं भाभी।
मैं सुनकर आवाक रह गयी कुछ बोल नहीं पाई और हमारा गंतव्य आ गया। हम अपने घर को चल दिए। घर के लोगो के लिए कोई ऐसा कैसे बोल सकता है… नीलू हमारे ही मोहल्ले में रहती है व उसकी सास थोड़ी ही दूर दूसरे मोहल्ले में। मृदुभाषी, शालीन परन्तु एकाकी प्रौढ़ा के रूप में हम उन्हें जानते हैं
मम्मी !मम्मी! कहां हो सुनो न! रीमा की आवाज़ सुनकर मै दौडती हुई आई… क्या हुआ! आज पता है कॉलेज में पुलिस आई थी। नीलू आंटी के बेटे रोचक भैया को पकड़ कर ले गयी।
हे भगवान! पर क्यों… उन्होंने किसी नए स्टूडेंट की ज़बरदस्त रैगिंग ली थी व पुलिस को उनके किसी ड्रग सप्लायर से सम्बन्ध होने का भी शक है। प्रिंसिपल सर भी बहुत नाराज थे। कालेज की बहुत बदनामी होगी… शायद उन्हें निकाल भी दिया जाए।
मैं सर पकड़ कर बैठ गयी व नीलू की कही बातें याद आने लगी ऐसी पट्टी पढ़ाती दादी के सानिध्य की ही पट्टी पढ़ने दी होती तो शायद आज ये दिन ना देखना पड़ता।
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