भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
मधुरा थरथर काँप रही थी भूकंप से कांपती धरती की तरह थरथरा रही थी, लावा भटकता छाती छेद कर निकलने को विकल दिख पड़ता था, झर-झर झरते, कंप-कंपाते, चूर-चूर होते क्षण झर रहे थे। थामे तो कोई क्या थामे — टूटे क्षण, क्षत-विक्षत कण, धरा से बिछुड़ी धुल की तरह वह सतह पर जम जाना चाहती थी। जिस पर उँगलियों से उकेरी जा सके दोबारा इक नया चेहरा, सौपना चाहती है वह अपनी उंगलियाँ, उन सिद्धहस्त हाथों में जो इसका उपयोग भरपूर कर सके। दो बरस …..पूरे दो बरस … एक लम्बा समय …. विवाह के बाद आज तक का समय, मुट्टियों से दरकते-दरकते फिसल गए। रीत गई अंजुरी। भटका कोई नहीं बस टक्करे मारते रहे अपनी-अपनी चुनी हुई दीवारों से और लहूलुहान होते रहे। नोचते रहे अपने ही क्षणों के अणु-परमाणु और एक-एक भारी पल लिए घिसटते रहे।
मधुरा कांप रही थी डर से नहीं क्रोध से नहीं वह कांप रही थी क्षोभ से, नहीं कहना चाहिए था, आज जाने कैसे वह मुखर हो उठी थी, वह प्रखर की पीड़ा विगलित दृष्टि अपनी देह पर सह नहीं पाई और शायद तडप उठी और मुखर हो गई थी। कुछ भी कहो दो वर्षों का लम्बा समय ……. प्रखर ने भरपूर साथ दिया, कितनों ने सलाह दी की किसी अच्छे मनोचिकित्सक को दिखाओ, भूत-प्रेत, जिन-जिन्नात, तंत्र-मन्त्र से या झाड़-फूंक करवाकर या किसी पीर-फकीर से गंडा-ताबीज बंधाओ, पर प्रखर को इन बातों से कोई मतलब नहीं था, वह हंसी में उड़ा देता कहता सब बकवास है।
वह सारे दिन मधुरा के स्नेह-मनुहार से तृप्त रहता उसे मधुरा का सुबहसुबह नहा धोकर गीले बालों का पीठ पर खुला छोड़ मांग में चौड़ी सिंदूरी रेखा और कपाल पर लाल सिंदूरी टीका बड़ा भाता। जब मधुरा चाय का प्याला लिए उसके सिरहाने खड़ी होती, उसे हौले से हिलाकर जगाती “चाय ठंडी हो जाएगी फिर न कहना मधुरा एक भी काम मेरे मन का नहीं करती, एई ……उठो न ….. माँ कब की जाग चुकी है। प्र ….ख ….र ..” वह कानो के पास आ फुसफुसाती,
“फिर से कहो” आँखें बंद किये हुए ही वह भरपूर निगल रहा होता ।
“न ऽऽऽ ही”
“ठीक है होने दो चाय ठंडी”
“अच्छा ….प्रखर ….बाबू”
“नहीं”
“प्र ….ख ……र ……..” वह भरपूर ताकत से मधुरा को अपने वक्ष पर खींच लेता, और मधुरा सुधबुध भुला बैठती इसी अदा पर प्रखर सौ-सौ जनम कुर्बान करने को तैयार रहता। वह भूल ही जाता रात का अंधकार जो उसे फिर उसी दलदल में घसीटकर गले तक डुबो देगा।
वह सोचता यह कैसी रातें हैं जो शबनम से नहाकर भी ठंडाती नहीं, वह चाहता मधुरा ठण्ड से सिहरकर उसकी बाँहों में आ सिमटे और वह भरपूर घने काल बैसाखी की आंधी की तरह उस पर बरस पड़े और प्रेम का बीज रोप दे। नर्म जमीन मौजूद है पर जहाँ अंकुरण की संभावना भी भरपूर है, पर क्या यह सम्भव है? पशोपेश में दिन गुजर जाता पर रात की कालिमा न जाने कहाँ से अंधड़ लेकर आती और ज्वार-भाटे की तरह समुद्र की अतल गहराई में जा छिपती। उसका जी अचानक ही बुक्का फाड़कर रोने को हो आता पर आंसू क्या मर्द की आँखों में शोभा देता है, वह अपने बादल आप समेटे छाती से बांध करवट बदल सोया रहता। दिन महीने साल बीते, सब्र का बाँध टूटने को है, ताने भी मिले उसे भरपूर उसने सारे के सारे अपनी ही छाती पर झेले और झेलते-झेलते एक दिन छलनी हो गया।
“मर्द भी है या ……………”
“नहीं ……नहीं …..कोई भी नुक्स नहीं …….”
“नहीं जी ……..कुछ मुडियल है ………”
“ना …जी ……ना ….पूरी सनकी, मैंने उस रात उन्हें चीखते-चिल्लाते सुना”
“क्या कहता है शाहबुद्दीन?”
“हाँ जी हाँ ,,,, मैं सेंट परसेंट सहीच बोल रहा हूँ”
“पर साहब जी तो जान न्यूछावर करे फिरे हैं”
“वो सब ढके-ढकाने की बात रही”
“नहीं साहब जी तो पूरा मरद ठहरा”
“इतना तुझे साहब पर कैसे बिसवास ठहरा”
“ऊऽऽऽ …..से, “ऊ दिन माघ का महिना पड़ा रहा, सुबा के बखत में कोई साधू-संत जनेऊ धर पीला वस्त्र धारण किये जीप से उतर के सीधे बंगले में परवेश करा रहा फिर हमी से साहब बोले रामदीन जरा फूल चन्दन घिसवा लाओ मेम साहब के हाथों से, कहना गुरुदेव आये हैं, हम ठहरे पंडित, जनेऊ धारी घर के महाराज, सारा रसोई हम ही न सम्हालते हैं। अम्मा जी हमार हाथ से ही भोजन करें पर कभी कोई हील-हुज्जत नहीं की उन्होंने। जब मेम साहब चन्दन और फूल ले गुरुदेव जी महाराज जी के सामने पधारी …..गुरुदेव जी ने न जाने क्या मंतर पढ़ा बीबी जी बेहोस …….” अपनी बात कह कर वह चुप हुआ ……फिर एक गहन चुप्पी ……………
“फिर साहेब बोले पानी लाओ और हम पानी लेने रसोईघर की और दौड़े। गिलास का पानी धर जब हम कमरे में परवेश किया तो देखत हैं की! मेम साहेब की आँखें लाल-लाल सी हो रही थी, हमे डर लगा रहा इसी से हम निकल आये बाहर क्यूँ की नौकर जात ठहरे …..साहेब का न जाने कैसन मूड ठहरे।”
“तो स्साले ……इतने दिन चुप काहे रहा!”
“न …जी …न …., घर की बात जो ठहरी, मालिक अन्नदाता होवे हैं , अपना जनम काहे को खराब करूँ, बाल बच्चेदार जो ठहरा ……” रामदीन दबी आवाज में बकझक कर रहा था। और अपने दोनों हाथों से अपने दोनों कान मरोड़ रहा था।
“तुझे क्या सचमुच मेम साहेब पर भूत-परेत का साया दिखे है।”
“न ऽऽऽ ही ……….हम ऐसन नही न बोले हैं जी पर हम उ बात बता रहे जो हमरे संग घटा रहा।”
“चल …अच्छा मान लिए साहेब पूरा मरद ठहरा …पर देखो तो स्साली मालकिन इतने ठसके से नखरे दिखावे है। पर साहेब कैसन झेलत रहे, हम होते तो दूसरी घर बिठाते नहीं तो …… जाते इधर-उधर। पर मालिक तो सच्चे देवता ठहरे हमें उनके सुभाव में जराच्च भी ऊँच नीच नहीं न झलका रहा। इसी से हमें उनके मर्दानेपन पर शक ठहरा रहा।” शाहबुद्दीन फीकी हंसी हंस कर बोला —– कोई मरद क्या इतने दिनों तक औरत के बगैर रह सके है भला।
माह भर बाद शहाबुद्दीन को ऑर्डर हुआ ………
“गाड़ी निकालो शहाबुद्दीन डॉ. अमरीश के क्लिनिक जाना है।”
डॉ. मधुरा को भीतर के कमरे में ले गया जहाँ धीमे नीले रंग का बल्ब जल रहा था, मधुरा हिचकिचाई। उसकी पूरी देह थरथरा कर रह गई। पर वह अपने को जज्ब कर डॉ. के पीछे-पीछे अन्दर आ गई।
“आप भी अन्दर आ जाइये मिस्टर प्रखर” बगैर पीछे मुड़े ही वह बोले जैसे वे जानते थे कि प्रखर बाहर ही बैठा रहेगा। कमरा नीली रोशनी में भयावह-सा प्रतीत हो रहा था। प्रखर को अन्दर आते देख मधुरा की थरथराहट अपनी रफ्तार पर काबू पाती दिखी।
सफेद चादर बिछा हुआ था, कमरे के बीचों बीच रखे छोटे से दीवान पर डॉ. ने उसे उस पर लेटने का आदेश दे जरुरी सामान निकालने वार्डरॉब की तरफ बढ़ा। इसी बीच प्रखर ने महसूस किया मधुरा का चेहरा सफेद पड़ गया है उसने आगे बढकर मधुरा को हलके से बाहों में भरकर आश्वासन के तौर पर पीठ थपथपा दी।
“मैं हूँ ना”
मधुरा बोली कुछ नहीं बस अपलक प्रखर को निहारती रही, फिर चला ढेर सारे प्रश्नों का सिलसिलेवार उत्तर देने की प्रक्रिया हाँ या ना या फिर हिचकिचाकर डरी आँखों से प्रखर की तरफ ताकना प्रखर का आँखों ही आँखों से उसे विश्वास दिलाना “डरो मत मैं हूं ना” धारा प्रवाह बोलने की वैसे भी आदत नहीं थी मधुरा की फिर भी कभी-कभी कहते-कहते चुप हो जाती तो डॉ. टोकता “हाँ हाँ रुकिए मत, कैरी ऑन ब्रेव लेडी कैरी ऑन मैं सुन रहा हूँ, सुनकर ही किसी निष्कर्ष पर पंहुचा जा सकता है। मंजिल अभी दूर है अभी तो बस शुरुआत भर हुई है” चश्मा ठीक करते-करते गौर से डॉ. मधुरा के चेहरे का भयातुर भाव भांप कर कुछ कागज पर नोट कर रहे थे। पूरी प्रक्रिया में प्रखर को मधुरा की कोई बात ज्यादा अलग नहीं लग रही थी। ऐसा तो हर सामान्य लड़की के जीवन में घटता है, पर फिर भी बड़ी तन्मयता से सारी प्रक्रिया को निरख रहा था।
“एनी रिवेंज” डॉ. ने सीधे प्रश्न किया।
मधुरा लड़खड़ाई फिर भी कहा कुछ नहीं सघन चुप्पी …..
“एनी डर्टी मोमेंट”
“नो ….. नो”
आवाज थरथराई, वह प्रश्नों से पीछा छुड़ाना चाह रही थी।
“एनी ऑकवर्ड सिचुएशन इन योर लाइफ” डॉ. ने चश्मा टेबल पर रखकर पेन से टेबल खुरचने लगा। मधुरा भी अनजाने में अपने नाखून से टेबल खुरचने लगी। निगाहें टेबल पर टिकी थी।
“ओके मि. प्रखर बाकी नेक्स्ट सिटिंग पर”
लौटे तो माँ खाना टेबल पर रख रही थी बोली कुछ नहीं। प्रखर माँ के पास जाकर झुक कर देखने लगा क्या बना है। “ओह इलीश माछेर झोल” माँ सिर्फ मुस्काई। चार दिन बाद फिर सिटिंग है, प्रखर ने माँ को जताया। माँ ने उठकर एक पीस इलीश माछ मधुरा की प्लेट पर प्यार से डाल दिया, “खाओ प्रखर को भी बड़ा पसंद है। शायद तुम्हे मिर्ची ज्यादा लगे”
“ना माँ आपके हाथों में बड़ा स्वाद है।”
“मेरी उम्र तक आते-आते तुम्हारा अनुभव तुम्हारे भोजन को मेरे भोजन से भी ज्यादा स्वादिष्ट बना देगा देखना। बस हर काम में धैर्य और लगन का होना जरुरी है” माँ मुस्कुराई। लम्बे अंतराल के बाद मधुरा भी मुस्कुराई। प्रखर ने समझा सब नार्मल है। उसे डर था कही डॉ. के सवाल से मधुरा नाराज न हो।
रात बिस्तर पर करवट बदलते प्रखर सोच रहा था शिल्पकार ने गढ़ दी एक प्रतिमा मधुरा, पर गर उसमे प्राण न फूंकी जाये तो वह सिर्फ प्रतिमा ही रह जाएगी देवी नहीं बन पायेगी। यह बात वह भी जानता था और आज वह मान भी रहा था। पर क्या करे उसके पास कोई वैदिक मंत्र भी नहीं। न ही ऐसी कोई सिद्धी जिससे वह मधुरा में प्राण फूंक सके। वह देख रहा था अहनिर्श दु:ख में जलती उस स्त्री को जो जीना चाहती है, पर प्रतिमा की तरह नहीं न ही देवी की तरह वह एक पूर्ण देह वाली स्त्री के रूप में जीना चाहती है चहकना चाहती है फुदकना चाहती है। पर कहाँ है ऐसी सिद्धी की वह प्रतिमा की आँख फोड़ उसमे प्राण फूंक सके, वह अपने को बड़ा असहाय पा रहा था।
“हैलो”
“हैलो आई एम डॉ. अमरीश स्पीकिंग”
“ओह, डॉ. गुड मॉर्निंग”
“मॉर्निंग ….. मॉर्निंग …. हाऊ यू फीलिंग?”
“गुड … गुड” अंगड़ाई लेता प्रखर बोला।
“एंड योर वाइफ?”
“सी इज फाइन” रुक-रुक कर प्रखर बोला कारण कमरे का पर्दा हटाकर मधुरा सुबह-सुबह नहा धोकर गीले बालों को पीठ पर फैलाये माथे पर चौड़ी सिंदूर की रेखा व कपाल पर लाल गोल टीप [टीका] लगाये प्रखर के सामने चाय का प्याला लिए खड़ी थी, और यह वक्त प्रखर का खास होता है। इस वक्त उसे जरा-सी भी खलल बर्दास्त नहीं, यह क्षण उसका अपना निजी प्यारा सा क्षण जिसके नशे में वह सारा दिन गुजरता है और इस वक्त डॉ. का फोन व्यवधान डाल रहा था। उसके सहन से बाहर था, लगा रिसीवर पटक दे। उसके शब्द अटपटे लगे। सारा ध्यान मधुरा पर सम्मोहित हो गया, बड़े कष्ट से वह उस गिरफ्त से बाहर आने को छटपटाया ।
“हाँ ….. हाँ … डॉ. बोलिये ….”
“शी इज नॉट ओ. के. ……”
…………. चुप्पी
“एक बार और लाइएगा उन्हें मेरे क्लीनिक ……”
“अच्छा ठीक है” मधुरा ने बढ़ कर कप टी टेबल पर रखकर एक भरपूर दृष्टि प्रखर पर डाली। प्रखर को लगा जैसे उसकी आँखे, आँखे नहीं एक्स-रे मशीन है। वह हड़बड़ा कर उठ बैठा भूल गया मधुरा के अस्तित्व को बस, याद रहा डॉ. के शब्द।
“शी इज नॉट ओ.के ……”
“पोस्ट टोमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर, प्रखर साहब नवाबी बीमारी है, इलाज लम्बा चलेगा”
“हाँ ….. हाँ ….. शक की कोई गुंजाइश नहीं।” ………. थोड़ी चुप्पी के बाद फिर बोले “अच्छा ही हुआ उन्होंने अभी तक कंसीव नहीं किया वरना……”
“माँ से क्या कहूँगा?”
“कुछ भी बस हवा पानी बदलवा दीजिये और दवाएँ चालू रखिये पर देखिये जाने से पहले एक सिटिंग जरुरी है, याद रहे कभी भी मत भूलियेगा कि वह एक साइको-पेशेंट है सीरियस नहीं पर सेंसेटिव जरुर है सेंसेटिव भी इतनी की जरा भी केयरलेस होने पर बीमारी बढ़ सकती है कम होना तो दूर रहा।”
अचानक दिल के कब्जे हिल उठे। आँख डबडबा आई, जबड़े भींच गए ओह गॉड ये कैसी परिक्षा है, जन्म भर क्या इस पीड़ा से मुझे मुक्ति नहीं मिलेगी, मैं मधुरा के प्रेम में आकंठ डूबा रहना चाहता हूँ, पर यह कैसी परीक्षा है, जो मुझे चीर कर रखे दे रही है। मैं हार रहा हूँ, शायद हार चुका हूँ, तन जवाब दे रहा है पर झट मैंने मन को टटोला, वह सही सलामत छाती पर मुस्कुरा रहा था, मेरे मुंह से मन के लिए एक भद्दी-सी गाली निकल पड़ी और जोरदार व्यंग भरी मुस्कान।”
“वाह जी वाह! क्या प्रेम है महिवाल या कैश…….क्या कहें जी? स्साली ने अभी तक तो बस पांव और पाजेब ही दिखाए हैं इधर दीवाने गालिब उसी पर लट्ट हैं। जोबन पर तो हाथ भी धरने नहीं देती साली अपने खसम को। अचानक झुंझला उठा वह यह सब क्या अंट-शंट बक रहा है। पर आज भड़ास काबू से बाहर हुई जा रही थी, सिर्फ निकल ही नहीं उबल-उबल पड़ रही थी। मन किया वह भी शिबू के संग परेल तक हो आये, कई बार शिबू कह चूका था प्रखर को इस बारे में। तीन साल पहले शिबू की पत्नी ब्रेस्ट कैंसर से चल बसी थी। दो साल की छोटी बच्ची है, दूसरी शादी नहीं कर सकता पर देह को तो भूख लगती ही है न, कब तक देह की भूख को अनसना कर सकता था शिब। परेल से लौटकर बडे ही चस्के ले-ले कर वहां की जिन्दा गोश्त की बातें करता और अपनी पत्नी की मौत को भूलने की नाकाम कोशिशें भी करता। कितना सफल होता था यह प्रखर कभी नहीं जान पाया, कारण उसने कभी भी जानने की कोशिश ही नहीं की। यह सब सोचते हुए वह एक बारगी अपनी ही भावना से त्रस्त होकर खुद छी-छी कर उठा।
सांसे सांसो को धुन रही थी, नसें नसों में घूम रही थी रक्त है कि धमनियों को चीर कर ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर बही जा रही थी बेहिसाब ……बेताला, धडकनों पर काबू नहीं के बराबर महसूस कर मन मसोस कर रह गया। पर प्रलय क्या दिन-खन देखती है न ही पंजिका से तिथि नक्षत्र ही देख उतरती है। वह तो प्रलय के बाद पंडित बैठ पंजिका थामे अपनी दक्षिणा के बाबत आरती उतरवाते हैं यजमानों से, युगों-युगों से प्रलय की धार बस देखते जाओ फिसलन कहाँ तक है। प्रलय ही तो था, “पोस्ट टोमेटिक डिसऑर्डर और उसकी फिसलन माँ को मनाना समझाना क्या इतना आसान था, इकलौता-पुत्र वह भी विधवा का। बड़ा भारी संबल होता है पुत्र एक विधवा का।
माँ ने सुना चुप रही, प्रखर ने महसूस किया उसने माँ को बर्फ की सिल्लियों पर छोड़ रखा है। उनका पारा-पारा हिल उठा इसपर भी न वह धधकी न बुझी, बस सीली लकड़ियों सी जलती रही, सारा घर धुंआ-धुंआ हो उठा। इस पर भी प्रखर ने महसूस किया इन पच्चीस सालों का विधवा जीवन उन्होंने किस कट्टरता और साहस के साथ निभाया और उसी कट्टरता और साहस का पाठ वह अब मुझे सिखा रहीं थी।
“हवा बदल दो या खिडकी खोल दो देखना अंदर की बदब बाहर फैल जाएगी और अंदर ताजी हवा हिल्लोरे मारने लगेगी” माँ ने संजीदा होकर प्रखर से सधी आवाज में कहा।
………………चुप्पी …… प्रखर सुन रहा था।
“मुझे लगता है कोई ग्रंथि पाल बैठी है मधुरा, बेटा औरत को हैंडल करना इतना आसान नहीं। पर तू देखना मधुरा के प्रति कोई लापरवाही मत बरतना। लगता है कोई फांस है उसके दिल में। यह कोई राग नहीं है अपने अनुभव से तुझे कह रही हूँ। बस जीत ले उसका मन देखना अपने आप वह अपना फांस निकाल कर तेरे कदमों में धर देगी” माँ एक सांस में बोल रही थी, वह एक टक माँ को ताक रहा था, उसे स्टार प्लस के सारे धारावाहिक जो सास-बहु की छवि प्रस्तुत करती थी उससे बिल्कुल मेल खाती नहीं लगी। उसे भ्रम हुआ कहीं वह सपना तो नहीं देख रहा, उसे अपने दाहिने हाथ से बाई हथेली पर हलके से चकोटी काटी “उई …” वह बडबडाया, माँ ने समझा भी और नहीं भी उसी अंदाज में रसोई की तरफ बढ़ गई।
प्रखर ने चुपके से अपने बेडरूम में झांकी मारी मधुरा बेसुध सो रही थी, ये डॉ. अमरीश के दिए दवा का असर था, वह देर तक सोती रहती है आजकल। उसे इस बात से शिकायत थी कि प्रखर उसे जगा क्यूँ नहीं देता, माँ क्या सोचती होंगी। फिर अपराध बोध, डॉ. ने कहा था सब करना बस इसी अपराध बोध से दूर रखना। वह एक टक ताकता रहा फिर चुपके से वापस बिस्तर में आ घुसा और बड़ी देर तक नींद का बहाना बना चुपचाप पड़ा रहा।
क्षण में भींगता क्षण में उबलता उसका दिल रह रह कर मचल उठता, वह इसी मनोदशा में सामान पैक कर रहा था। मधुरा आश्चर्य से प्रखर का एक्स-रे ले रही थी। इस नए पड़ाव में प्रखर उदास क्यूँ है। वरना उसे तो सफर बड़ा भाता है। जब वह विदा होकर ससुराल आ रही थी प्रखर बड़े चाव से “बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले” गाते हुए दुहरे हो होकर साले साहब के साथ पैकिंग करने में जुटे थे। पग फेरे में भी गा रहे थे “मैं तो भूल चली बाबुल का देश पिया का घर प्यारा लगे”
“मधुरा ने हौले से झिड़का भी था” क्या करते हो सारा घर तुम्हें सुन रहा है थोड़ी शरम करो।
“जिसने की शर्म उसके फूटे करम” कह प्रखर ने जोर का ठहाका लगाया। मधुरा को चिढ़ते देख फिर गुनगुनाया “मांग के साथ तुम्हारा” “अब बस भी करो” मधुरा ने प्यार से झिडकी दी, प्रखर ने कान पकड़ कर सॉरी कहा।
लेकिन प्रखर आज चुप है उदास है न गाना न गुनगुनाना न सीटी बजाना। “माँ तुम भी चलो न” अरे मैं कहाँ जाऊंगी घर छोड़कर।
“तुम जाओं, मधुरा का ध्यान रखना”
प्रखर नहीं चाहता माँ यहाँ अकेली रहे। इतने सालों में —- माँ ने प्रखर को कभी कहीं अकेला नहीं छोड़ा, न हॉस्टल न दादी न नानी के पास। यह पहला अवसर है जब प्रखर माँ को अकेला छोड़ कर जा रहा था, वह भी माँ ही की जिद पर तब माँ ने उसे बहुत समझाया —-
“हर कुछ हर किसी के साथ पहली बार ही होता है, पहले अटपटा लगता है, फिर आदत-सी हो जाती है” प्रखर ने बहस करना ठीक नहीं समझा। वह जानता था बहस से कछ हासिल नहीं होगा उनका जीवन के प्रति नजरिया भी औरों से अलग है। क्या मालूम वक्त ने उनमें खुद समय से पहले ही आंधी से पहले हर उठने वाले तूफान को थाम लेने का जज्बा कूट-कूट कर भर दिया हो।
“रंजन काका बाबू भी तो टूर पर है माँ” प्रखर ने हुलस कर बताना चाहा।
“तो क्या हुआ, क्या मैंने तुझे काका बाबू के भरोसे पाला है”
“तुम भी काकी माँ की तरह लेडीज क्लब, किटी पार्टीयों में क्यूँ नहीं जाती”
“मुझ से बेहूदगी पचती नहीं” माँ के शब्द कठोर थे, न जाने क्यूँ वे काका बाबू का जिक्र आते ही पत्थर बन जाती। सारा दिन पर्वतीय झरने के समान झर-झर प्यार लुटाती, पर प्रखर ने बचपन से ही महसूस किया कि काका बाबू की बात आते ही माँ शब्दों को चबा-चबा कर कहती।
“अच्छा रोज फोन ही कर लेना मेरे मोबाइल पर नया सिम लेते ही फोन करूँगा”
दफ्तर का आखरी दिन वह चार्ज दे रहा था, अनेक अनेक फाइलें, रसीदें व इम्पोर्टेन्ट डॉक्यूमेंट्स दे व ले रहा था। मन में कुछ अटपटा सा लग रहा था। बारह घंटे का सफर माँ को कोई सख्त जरुरत आन पड़ी तो बड़ी देर हो जाएगी, माँ काका-काकी के पास जाने से रही अजब ही रवैया है माँ का सभी रिश्तेदारों के प्रति, दादी उन्हें प्रिय थी पर दादी को काका बाबू एवं काकी पसंद है कारण माँ के चरण शुभ नहीं थे। पापा ने शादी के सोलह माह के भीतर ही आत्महत्या जो कर ली थी।
दादी को छोड़ो माँ ने नानी को भी परायों में खड़ा कर दिया, वह बस त्योहारों में ही जा पाता था दादी के पास या ननिहाल। माँ का इस कदर बेरुखापन हमेशा उसे काटने दौड़ता। माँ समझाती मुश्किल वक्तों में रिश्तेदारों से दूरी भली, रिश्ता लम्बे समय तक कायम रहता है, मेरे सारे ख्वाब ननिहाल में ममेरे भाई बहनों के साथ मस्ती एवं काका बाबू के कंधे चढ कर बाबा की कमी को पूरा करने की चाह सभी एक-एक कर ध्वस्त हो गए, रह गए हम पुराने किले के प्रस्तर बुर्ज की भांति अडिग। मैं और माँ। एक-दूसरे की पहचान, जरुरत बनकर अगर एक भी ढह गया तो सारा महल खंडहर में तब्दील हो जाये।
शिमला गए थे, खूब घूमे, अच्छे-अच्छे रेस्टोरेंट में खाना खाया, कुफरी के स्कीईंग भी किया। एक दिन पूरा जाखू के मंदिर में बिताया। माल रोड में स्थित काली बाड़ी में दोपहर का भोग भी पालथी मार कर दोनों ने खाया और रात को आरती भी देखी। पूरे वक्त मधुरा खुश थी कल-कल झरने की तरह बह रही थी। रिंग रोड पर खूब सैर की, बाँहों में बाहें डाल, एक अलहदा, अल्हड़ मधुरा के दीदार किया प्रखर ने। वह खुश था क्योंकि मधुरा खुश थी। वे सातवें दिन लौट आये अपने शहर, माँ ने पूछा “कैसा रहा ट्रिप?”
प्रखर के जवाब देने से पहले ही मधुरा बोल पड़ी “अगली बार आप भी संग चलियेगा, सब अच्छा था पर आपके बगैर सूना था।”
माँ हलके से मुस्कुरा दी बोली “ठीक है अगली बार का तब देखेंगे।”
दिन बीते पर इधर सब वैसा का वैसा ही एक दिन अचानक प्रखर को ऑफिस पहुँचते ही बॉस ने ट्रांसफर ऑर्डर पकड़ा दिया। बात असल में यह थी की उसने मधुरा के ही मेडिकल बैकग्राउंड पर ही यह ट्रांसफर लिया था।
चारों तरफ सुन्दर दृश्य, माधवी लता गुच्छों में झूलते, साल, सागौन, अमलतास की डालियाँ आकाश तक फैली। कदम के फूल, जूही, कनेर की महकती कलियाँ महुआ से महमहाता वन, पहाड़ी पर विचरते कलरव करते पक्षियों का झुण्ड, दूर बहती झरने की कलकल चित्रकूट का मनोहारी झरना जलतरंग-सा बजता मन को मोह रहा था। फिर तीरथ गढ़ का पंचमुखी झरना, माँ दंतेश्वरी मंदिर, यह मंदिर राजा को स्वप्न में मिला था। वह पिछली दफा टूर पर आया था इस बार डॉक्टर के कहने पर ही ट्रांसफर लेकर सपत्निक आया है। सरकारी बंगला एक छोटे से टीले पर स्थित है। जीप घुमावदार पहाड़ी को काटती चलती तो वातावरण में धुली सुगंध एवं ठंडी बयार से रोमांचित होकर वह मधुरा को अपने निकट खींच लेता। वह भी थोड़ी रोमानी होकर प्रखर की गोद में ढलक पड़ती है। वह सोच रहा था कि बदल गई है मधुरा जब से वह यहाँ ट्रांसफर होकर आया है सिमटी-सिकुड़ी सी मधुरा अबाध पहाड़ी झरने की भांति मचल उठी थी वह चाह उठा की मधुरा खजुराहों की मूर्तियों की तरह उसके मन मंदिर में स्थापित हो जाये, लेकिन कामदेव के बाणों से जब-जब वह घायल होकर मधुरा की तरफ बढ़ा रति अति बाल्यावस्था में नजर आई। आसमान पर आज मेघ धमाचौकड़ी मचा रहे थे। धुंधलका होने को था और मस्त ठंडी बयार से तरंगित हो मधुरा खजुराहों की मूर्ति-सी प्रतीत हो रही थी। प्रखर महसूस कर रहा था आज रति को मनाने के लिए किसी कुचेष्टा की दरकार नहीं। सूर्य की किरण गों और मेघां की आँख मिचौली में लगता था मेघ जीत जायेंगे। सूर्य छिपने लगा था धुंधलके में शायद उसने हार मान ली थी। शायद रात्रि के आगे उसने अपने हथियार डाल दिए थे। मेघ जलपरियों के पैरों में घुघरू बांधे छुम-छनन बरस रहे थे, एक पल के लिए प्रखर ने महसूस किया कि मधुरा भी शायद बरस पड़े इसी तरह।
इस जलोत्सव के उच्छ्वास में मधुरा भीगकर तरबतर हो गई लेकिन अन्दर सूखी ही रही तपता मरुस्थल, प्रखर सोच में पड़ गया शाम जीप में उसने क्या कुछ गलत अंदाजा लगा बैठा था। मधुरा के इस नए आचरण से, घड़ी-घड़ी रोमानी होकर उसकी गोद में ढलक-ढलक पड़ना उसे रह रहकर मुग्ध कर दे रहा था, शायद सपना था सब, प्रखर का मन खिन्न हो उठा। जब-जब वह मधुरा का मरुस्थल रुपी रूप देखता क्रोध से भर उठता लेकिन दूसरे क्षण उसे उसका मधुर सौम्य रूप पिघला जाता।
डॉ. अमरीश की हिदायतें बेड़ियाँ डाल देती “सिरियस नहीं सेंसिटिव पेशेंट है, बी केयर फुल मि. प्रखर।” सुबह-सुबह मधुरा जिसे बांहों में भर वह जन्नत की सैर करता और वही मधुरा उसे नीम अँधेरे में तड़पता छोड़ बिस्तर पर उकडू बैठ जाती डरी हुई बच्चों की तरह,,, वह अचम्भित हो उठता, वही मधुरा रात में अपने मधुर अस्तित्व को पूरी तरह नकार जाती। मधुरा की इस दोहरी प्रकृति से प्रताड़ित प्रखर प्रायः मृतप्राय हो उठता। आज प्रखर के मन में सुबह से ही एक सूक्ष्म अदृश्य कोहरा जाल बुनने लगा था पर उसने उस व्यथा से उपजी शून्यता और मन के कोने के अन्धकार को चादर सा समूचा ओढ़ लिया था। प्रेम का ज्वर सुबह जितना तीव्र होता है शाम होते ही उतर भी जाता भाटे की तरह। अभिमान से भरा चेहरा म्लान पड़ जाता। हृदय की ग्रंथि टीस भरने लगती, यंत्रणा बढ़ती जाती समूची देह प्रेम अग्नि में जल कोयला होने लगती। उम्र के इस पड़ाव पर सारी ग्रंथियाँ क्षण-क्षण तपती पर मधुरा शांत नीरव-सी लगती।
मधुरा, नाम जैसी ही मधुर, देह भी उतना मधुर, नैन नक्श किसी क्लियोपेट्रा से कम नहीं, हंसी में वह उसमें मोनालिसा की छवि देखता पर हर बार हार जाता उसे मेडोना नहीं बना पाता।
उसकी हर सुबह गुनगुनी, रात ठंडी। हर दिन का अपना उजास, हर रात की काली चादर, हर दिन का मधुमास, हर रात का कमोबेश तिक्त एहसास। गर्म-गर्म सांसे, गर्म-गर्म बाहें पर ठंडी-ठंडी राते। रुक साँस, रुक जा रात, थोडा ठहर! कामदेव तुम भी सिरहाने रुक जाओ, जरा सुनो रति का विलाप, नहीं और नहीं नसे फट रही है फड़क रही है धड़कने, टूट रही है-सांसो में कीरचें, झक मार रही है-भावनाएं, टकरा रही है अबूझ प्रेम की मीनारों से और लहुलुहान हो रही है, देखो तुम भी सहो। क्या ये सब मुझे अकेले ही भोगना है कामदेव, तुम क्यों नहीं भोगोगे, रति क्या तुम्हारी कुछ नहीं, कोई नहीं ?
वह अचकचाकर उठा और मधुरा को झिझोड़ कर बिस्तर पर उठा कर बैठा देता है। मधुरा सकपका कर डर से उठ बैठी है। और टुकुर-टुकुर ताक रही है प्रखर को। भरी-भरी निगाहें टिकी है प्रखर के चेहरे पर। प्रखर जुटा है मधुरा को विलापने-कल्पाने के लिए। आज मधुरा भी मुखर दिख रही है। शायद माँ दंतेश्वरी की कृपा या फिर डॉ. अमरीश की दवाओं का असर। या तो प्रखर का अकूत प्रेम उसे उकसा रहा हो। वह अबाध गति से बह जाना चाहती है आज। वह समां जाना चाहती है समूची। पर निर्विकार-सी आंखे लिए नीम अंधकार में फिर उकडूं बैठ जाती है। गुस्से से प्रखर का गला सूख जाता है वह चीख भी नहीं पता बस हुंकार भर कर मधुरा को परे ढकेल देता है।
“सो जाओं ——— परेशान न हो” प्रखर उबर आया था।
मधुरा आहिस्ते से उठकर ईजी चेयर पर जा-ढेर हो जाती है। अपनी तेज सांसों पर काबू पाती ईजी चेयर के हत्थे पर धीमे-धीमे मुक्के मारती है। प्रखर इन मुक्कों को आज तक दिल पर झेलता रहा था वह उठ कर मधुरा के करीब आकर नीचे फर्श पर बैठ जाता है कुछ क्षण बीतते है, भारी-भारी सा।
“मेरी यंत्रणा भी समझो मधुरा, सत्ताईस साल का जवान मर्द हूँ”
……………….. चुप्पी
चलो परसों इतवार है तुम्हे मैं माँ के पास छोड़ आता हूँ यहाँ रहोगी तो मेरी बेवकूफियां तुम्हे परेशान कर देंगी। कहते वक्त प्रखर मधुरा की चूड़ियों से अहिस्ता-अहिस्ता खेलता रहा। मधुरा निश्चल बैठी रही।
फिर सफर फिर पैकिंग पर आज सूटकेस पैक करते-करते प्रखर गुनगुना रहा था —- “जो तुमको हो पसंद वही बात कहेंगें।”
मधुरा काठ बनी रही। न सांसें भर रही थी न धड़कनों की ताल ही गुन रही थी, बस मूक हो प्रखर को निहार रही थी।
माँ का कमरा। रात वह माँ के कमरे में आकर सोचता रहा माँ ने इतना लम्बा विधवा जीवन पापा की पेंशन एवं इन्हीं उपन्यासों के बल पर गुजार दिया। सारी किताबें करीने से सजी थी पर उसने कभी इन उपन्यासों को छुआ भी नहीं था। इन में उसकी कोई रुचि कभी जागृत ही नहीं हुई आज मन कर रहा था कि वह भी अपने मन का अकेलापन इन्हीं उपन्यासों में ढूंढ ले। माँ ने न जाने कब खर्राटे भरने शुरू कर दिए थे। आज माँ पर ढेरों कामों का बोझ जो आ पड़ा था। वह चेयर से उठा और हाथों से सहलाते हुए एक उपन्यास पर हाथ रोक लिए। नहीं, शायद अनायास ही रुक गए उसने वह उपन्यास बाहर खींच ली साथ काले रंग की डायरी भी खिंच आई। वह डायरी उलटने लगा काफी सारी कवितायें नजर आई। कविताओं के नीचे डेट एवं समय भी नोट था सारी कवितायें नीम अँधेरी रात में लिखी गई थी। उसने दो चार कवितायें उलटी पलटी फिर उपन्यास पलटने लगा। अचानक अंतिम पृष्ठ ने सारी दुविधा मिटा दी। “स्नेह उपहार तुम्हारा रंजन” सन उन्नीस सौ तिहत्तर। उसने गुत्थी सुलझा ली थी। वह उठता है और बुक शेल्फ में उपन्यास वापस धर कर दबे पाँव बाहर निकल आता है अपने कमरे में दाखिल होते ही उसकी नजर नीले बल्ब की रोशनी में मधुरा पर पड़ती है। वह बेरुखी से उसके पार्श्व में पीठ कर लेट जाता है। कल उसे वापस जगदलपुर जाना है। वह सोने की चेष्टा करने लगता है।
कोई आधा घंटे बाद गर्म-गर्म सांसे वह अपने नुथनों के पास महसूस करता है। देखता है मधुरा उसकी छाती से सटी उसे निहार रही है। प्रखर को अपनी बेरुखी पर गुस्सा आता है। अब मधुरा झर-झर बरस रही है। प्रखर सोखते की तरह सोख रहा है। वह कह रही है, शब्द दर शब्द वह सुन रहा है। निर्विकार होकर रति का विलाप। और आज न जाने क्यूँ वह कामदेव नहीं बन पा रहा। एक पादरी की तरह खड़ा है कन्फेशन बॉक्स की दूसरी तरफ।
“दिन में तुम्हारा चेहरा सूर्य की किरणों से जब झिलमिलाता है तब वह मेरा अपना बहुत निजी होता है। पर वही चेहरा रात के नीम अँधेरे में एक पशु-सा नजर आता है, और तो और तुम्हारे देह से उठती तीखी गंध मुझे उस दुल्हे की याद दिलाती है जो उस रात जनवासें में इक भटकती हुई रूह की तरह मुझसे आ चिमटा था। मेरी उम्र रही होगी कोई बारह बरस। सभी जनवासें में जमीन पर गद्दे चादर बिछाकर लाइन से सोये पडे थे। वह ठण्ड की ठिठुरती रात में कब मेरी कम्बल में खिसक आया जान भी न पाई। निर्दोष, निष्पाप-सी मैं एक अलहदा छुवन से जाग उठी और डरकर चीत्कार कर उठी पूरा जनवासा हंगामे से गमक उठा। चारों तरफ आवाजें टकराने लगी क्या हुआ? क्या हुआ? कोई चोर-चोर पुकारता कोई ……. क्या ले गया, क्या ले गया … किसी ने बिल्ली होगी दूध चट करने के इरादे से आई होगी कहकर बात खत्म कर दी, दूल्हा सहमा नहीं बल्कि निडर सा वह भी उनकी आवाज में आवाज मिलाने लगा, मैं डर के सहम गई माजरा थोड़ाथोड़ा समझने की उम्र हो चुकी थी मेरी, मैं बुदबुदाई पर किसी ने गौर ही नहीं किया। सब अपनी कहे जा रहे थे। अचानक निरीह-सी मैं थर-थर कांपने लगी, पास लेटी मौसी ने मुझे वापस अपनी कम्बल में खींच लिया और सीने से चिपटाकर बोली सो जा तेरे मामा-मौसा लोग देख लेंगे। कह वह मुझे थपथपाने लगी। मैं आश्चर्य में थी। इतनी अनजान भी नहीं कि इसे न समझ सकूँ। सोचा कल तो उसका ब्याह है, फिर यह सब क्यूँ? फफक रही थी मधुरा, प्रखर सोख रहा था अपने पर, जैसे ब्लाटिंग पेपर हो। सफेद झक्क कोरा प्रखर, सांत्वना का हाँथ मधुरा के माथे पर रख देता है। वह मधुरा को हौले-हौले थपथपाने लगा और बुदबुदाया —- “नरक का कीड़ा, ऐसे ही चलता रहा तो क्या हमारी कोई भी लड़की वर्जिन रह पायेगी? मैं हैरान हूँ इनके नापाक इरादों से, साले ये नारकीय कीड़े गली-गली यहाँ तक कि घर-घर में मौजूद है” कहते-कहते प्रखर हांपने लगा। रक्त आँखों में उतर आया। पर हौले-हौले मधुरा की पीठ सहलाता रहा न जाने कब मधुरा निष्पाप बच्चे की भांति नींद की आगोश में चली गई।
सुबह उठा तो देखा मधुरा हर सुबह की तरह नहा धोकर गीले बाल पीठ पर फैलाएं चौड़ी मांग में सिन्दूर डाले और माथे पर लाल रंग की बिंदी लगाये चाय का प्याला लिए खड़ी है, प्रखर उसके हाथों से चाय का प्याला टी टेबल पर रख कर मधुरा को समूचा अपने वक्ष पर खिंच लेता है मधुरा जरा भी आनाकानी नहीं करती। अचानक खट की आवाज पर दोनों चौंक पड़ते है, दरवाजे पर नजर पड़ती है। देखते है कि माँ ने दरवाजे पर सांकल डाल दी है और पर्दा खींच दिया है। और मधुरा धरा से बिछुड़ी धूल की तरह प्रखर पर जम जाना चाहती है जिस पर प्रखर उँगलियों से उकेर सके एक नई मधुरा। इजाद कर सके खजुराहो की वो नृत्य करती प्रतिमा।
प्रखर सरगोशी के आलम में पूछ बैठता है “डॉ. जब तुमसे सवाल कर रहा था तुमने तब बताया क्यों नहीं”
————- चुप्पी
“बोलो क्या हुआ चुप क्यों हो?”
कानों के पास मुंह ले जाकर मधुरा फुसफुसाई ——–
“वह मेरा कौन लगता है जो उसे बताती”
आहिस्ते-आहिस्ते मधुरा प्रखर के सीने में कडवी यादों को दफना रही थी, वह दफन कर रही थी हर वो अपराध जिसे उसने नहीं किया सिर्फ झेला वही अपराध अँधेरे में उजागर होकर न जाने कितनी अँधेरी रातों के गवाह बने। हर अँधेरी रात आँखों में कटी। जब कभी नींद में खुद की बालियाँ, चूड़ियाँ या सलवार ही हुलास जाती देह से तो वह तिलमिलाकर उठ बैठती, फिर कोई डरावनी याद पसलियों में रेंग कर धडकनों की रफ्तार बढ़ा जाती। आज उन पसलियों को प्रखर के हवाले कर गुम हो जाना चाहती है। पतझड़ के मौसम की तरह अपने सूखे पीले, काले चकत्तों वाले पत्तों को झाड़ कर बगैर काले चकत्तों वाले कोमल पत्तों की ललाहट लिये कोपलों में बदल जाना चाहती हैं। “रिलैक्स मधुरा रिलैक्स” जकड़न कसती चली जाती है……।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
