मधुरा थरथर काँप रही थी भूकंप से कांपती धरती की तरह थरथरा रही थी, लावा भटकता छाती छेद कर निकलने को विकल दिख पड़ता था, झर-झर झरते, कंप-कंपाते, चूर-चूर होते क्षण झर रहे थे। थामे तो कोई क्या थामे — टूटे क्षण, क्षत-विक्षत कण, धरा से बिछुड़ी धुल की तरह वह सतह पर जम जाना […]
