Hindi Immortal Story: “स्वतंत्रता की माँग करना कोई गुनाह नहीं है। देश की आजादी के लिए संघर्ष करने वाले वीरों पर गोली और लाठियाँ चलाना घोर अन्याय और बर्बरता है। मैं इस अन्याय का विरोध करती हूँ। और इसके लिए जेल जाना पड़े, तो भी मैं हिचकूँगी नहीं।”
यह आवाज थी इंग्लैंड से आई उस महिला की, जो खुद अंग्रेज होते हुए भी भारतीयों पर हो रहे अत्याचारों से इतनी दुखी और मर्माकुल हुई कि देखते ही देखते खुद भारत के स्वाधीनता संघर्ष में शामिल हो गई। वह जगह-जगह जाकर भारतीय जनता के बीच जोशीले भाषण देती और लोगों को अंग्रेजी शासन के अत्याचारों के खिलाफ खुलकर आवाज उठाने के लिए प्रेरित करती। उसने भारतीय जनता का आह्वान किया कि वह निहत्थों पर लाठियाँ चलाने वाले अन्यायी शासन को उखाड़ फेंके। सुनकर अंग्रेजी सत्ता के हाथ-पाँव फूल गए। उसे कतई उम्मीद नहीं थी कि आयरलैंड से आई एक अंग्रेज महिला भी इस कदर खुलकर स्वाधीनता सेनानियों का साथ दे सकती है। उन्होंने उसे गिरफ्तार किया तो देश में चारों ओर विरोध की लहर पैदा हो गई। इससे अंग्रेजी शासन को और भी शर्मिंदगी झेलनी पड़ी।
आयरलैंड से आई यह महान विद्रोही महिला थी एनी बेसेंट, जिसे देश की जनता भारत की सच्ची बेटी कहकर सराहती थी। और गाँवों के सीधे-सरल लोगों ने तो अपनी इस प्यारी और दुलारी बेटी का नाम बीबी बासंती रख दिया था, जिसमें लाखों लोगों का प्यार और भावनाएँ छिपी थीं।
एनी बेसेंट ने भारतीय संस्कृति और यहाँ के लोगों से प्रभावित होकर भारत को अपना कर्मक्षेत्र बनाया और भारत के स्वाधीनता संग्राम में इस कदर बढ़-चढ़कर भाग लिया, कि उससे चारों ओर विद्रोह की लहरें पैदा हो गईं। भारत ही नहीं, विदेशों में भी इससे सभ्य और शालीन नजर आते अंग्रेजों के अन्यायी शासन की कलई खुल गई। अंग्रेज अधिकारी मुँह छिपाते घूम रहे थे, क्योंकि उनके के लिए एनी बेसेंट की एकदम सीधी और सच्ची बातों का जवाब देना मुश्किल हो गया। वे भारत में आकर भारत की ही पुत्री बन गई थी और भारतीय जनता के दुख-दर्द से इस कदर एकाकार हो गईं थीं कि न सिर्फ महात्मा गाँधी उनसे बड़ा स्नेह करते थे, बल्कि भारत की जनता ने भी उन्हें सिर-आँखों पर बैठाया। यहाँ तक कि अंग्रेजी शासन को उन्हें गिरफ्तार भी करना पड़ा। तो भी एनी बेसेंट ने मानवता और सच्चाई के लिए संघर्ष की अपनी राह को नहीं छोड़ा।
1 अक्तूबर, 1847 को लंदन में जनमीं एनी बेसेंट शुरू से ही स्वाधीन प्रकृति की थीं। हर चीज के बारे में अपने ढंग से विचार करके काम करना उन्हें अच्छा लगता था। बचपन में एनी बेसेट का नाम वुड था। बड़े होने पर सन् 1867 में पादरी फ्रेंक बेसेंट से उनका विवाह हुआ। पति धार्मिक मामलों में कट्टर थे। एनी बेसेंट को यह बात अच्छी न लगती थी। अपनी बेटी की घोर बीमारी के कारण तो उनके हृदय में ऐसी उथल-पुथल मची कि वे नास्तिक बन गईं। उधर पति अत्यंत कट्टर धार्मिक विचारों के थे। लिहाजा कुछ वर्ष बाद वे अलग रहने लगीं। अब एनी बेसेंट ने लिखने का क्षेत्र अपनाया। वे विद्रोही स्वभाव की तो थी ही। रूढ़ियों और अंधविश्वासों का विरोध करने वाले उनके लेखों ने पूरे समाज में हलचल मचा दी। बहुत से लोग उनके विरोधी हो गए, पर एनी बेसेंट पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वे निर्भीकता से अपने विचारों को प्रकट करतीं। यहाँ तक कि वहाँ रहते हुए उन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का समर्थन किया।
एनी बेसेंट शायद जीवन भर नास्तिक ही बनी रहतीं, अगर थियोसोफिकल सोसायटी की संस्थापक मैडम ब्लैवेत्सकी से उनकी मुलाकात न होती। मैडम ब्लैवेत्सकी के कारण उनके विचार बदले और उन्हें कर्मकांड से अलग सच्ची आस्तिकता की राह मिल गई। अब वे अधिक से अधिक परमात्मा के बारे में अध्ययन और चिंतन-मनन करतीं। यहाँ तक कि मैडम ब्लैवेत्सकी के निधन के बाद वही थियोसोफिकल सोसाइटी की प्रधान बनीं और उन्होंने भारत सहित पूरे संसार में इस संस्था और उसके विचारों को फैलाया।
सन् 1893 में एनी बेसेंट थियोसोफिकल सोसायटी का प्रचार करने के लिए भारत आईं तो इस महान देश की जनता और उसकी प्राचीन संस्कृति ने उन्हें इतना अधिक प्रभावित किया कि वे हृदय से भारत से प्रेम करने लगीं। धीरे-धीरे भारत ही उनका प्रिय कर्मक्षेत्र बन गया। भारत को प्राचीन गौरव को जगाने के काम में वे जुट गईं। उनका कहना था कि प्राचीन धर्म और संस्कृति के जरिए ही भारत अपनी पुरानी शान और खोए हुए गौरव को फिर से हासिल कर सकता है।
धीरे-धीरे एनी बेसेंट भारत के स्वाधीनता संग्राम से भी जुड़ीं। भारतीय जनता पर अंग्रेजी शासकों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों को देख, उनका हृदय रोता था और उन्होंने प्राण-पण से उसका विरोध करने का निश्चय कर लिया। उन्होंने ‘कॉमनव्हील’ तथा ‘न्यू इंडिया’ नाम से पत्र निकाले जिनमें उनके विद्रोही और क्रांतिकारी विचारों से भरे लेख छपते तो सारी जनता और नेताओं का ध्यान उधर जाता। यहाँ तक कि अंग्रेजी सत्ता भी चौकन्नी होकर एनी बेसेंट की गतिविधियों पर नजर गड़ाए हुए थी। एनी बेसेंट का कहना था कि कि भारत को स्वतंत्रता को कोई भीख नहीं माँगनी चाहिए। बल्कि स्वतंत्रता को भारत और यहाँ की जनता का स्वाभाविक अधिकार है। यहाँ तक कि उन्होंने लोकमान्य तिलक की तरह ही स्वराज्य और होमरूल यानी स्वयं अपना शासन करने की नीति को भरपूर समर्थन दिया। अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व और तेजस्विता के कारण वे कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गईं और पूरे देश में घूम-घूमकर उन्होंने स्वाधीनता का अलख जगाया। घबराकर अंग्रेज सरकार ने 15 जून, 1917 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया, जिससे पूरे देश में क्रोध और उत्तेजना की लहर फैल गई। आखिर अंग्रेजी शासन को उन्हें छोड़ना पड़ा।
भारतीय जनता की इस प्यारी और दुलारी ‘बीबी वासंती’ ने भारत के स्वाधीनता सेनानियों के कंधे से कंधा मिलाकर आजादी की जो लड़ाई लड़ी, उसने अंग्रेजी शासन को कँपा दिया। इस बहादुर स्त्री ने अपनी आखिरी साँस तक भारत की आजादी की लड़ाई का साथ दिया।
ये कहानी ‘शौर्य और बलिदान की अमर कहानियाँ’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानी पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Shaurya Aur Balidan Ki Amar Kahaniya(शौर्य और बलिदान की अमर कहानियाँ)
