भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
अगनी चौराहे की चौतरी पर सिमटी बैठी थी। डोर टूटी निस्पंद कठपुतली सी उसकी दशा थी। भंवर में कीट, वक्त के घेर अगनी। ना दिखाई दे, ना सुनायी दे, ना आवाज दे सके, ना बिलख सके। भांय भांय करता, जंगल।
उसने कनखी से देखा। लड़खड़ाते हुए वे दोनों उधर ही बढ़े आते थे। एक सड़क के इस कोर था। दूसरा सड़क के उस छोर था। एक पेड़-पेड़ छाया खोजता जड़ों तक निगाह मारता था, दुबकी हो। दूसरा रूख रूंख लाठी मारता था, टहनी से चिमटी हो, झर पड़े।
एक हरजी था। दूसरा मरजी था। दोनों दारू के काबू थे। गुस्से से बेकाबू थे। दोनों की बांछे खिल गई थीं। बगल में छोरा, गांव में ढिंढोरा। हाथ से फिसला, जेब से निकला, मानो फिर पा गया हो, उन्हें।
चौतरी के पास आ खड़े, हरजी ने आंखें चढ़ाई, घुमाई, मिचमिचाई। लाठी ठोकी उसने-‘मील हंक आये। जंगल छान मारा और एक यह है, चाँद के नीचे बीच चौराहे बैठी है, हाली (साली)।”
हरजी ने मूंछे बल कर होंठ काटा- “हुं, बोल मेरी मच्छी कितना पानी।” उसने अगनी की ओर ऐसे देखा, बहेलिया जाल में आये शिकार को देखता है, आंख चढ़ाये।
घिघियाती अगनी खुद में लुकी जाती थी।
बीसेक की अगनी। ना ज्यादा सांवली, ना ज्यादा गौरी। ना ज्यादा लंबी, ना ज्यादा अदनी। बस बीच सी थी। बात-बात पुलकना। बात-बात ठहाका लगा कर हंस पड़ना। पतले-पतले उसके होंठों पर मुस्कान पंख फड़फडाती तितली सी आलोड़ती। हंसमुख चेहरे पर मासूमियत रहती।
दीतवार (रविवार) अगनी की मंगनी है, ना। वह दो दिन की छुट्टी लिए आज गुरूवार को ही उदयपुर जा रही थी, अपने घर। बस तेज दौड़ रही थी या अगनी की खुशी। आकलन नामुमकिन।
बस ने एक खड्ड में जोरदार धचका खाया। सवारियों के पेट का पानी छलक मुंह तक आया। रीढ़ दर्द कर बैठी थी। बस खड़ी हो गई थी। कंडक्टर नीचे उतरा बस के नीचे झांक-झूक की। फिर बस में चढ़ गया था वह। उसके चेहरे पर बेबसी और निराशा की परत उभरी थी। विवश कंठ सवारियों से मुखातिब हुआ, -“हुनो (सुनो) बस की कमानी टूटी है। कमानी आएगी। मिस्त्री आएगा। कमानी जुडेगी। बस चलेगी। जिसे उदयपुर की बस पकड़नी हो, चौराहे पहुँच जाए।”
अगनी का जैसे जी निकल गया था। विदना की मार कि कुदरत का कहर। शुभ नेग, कसोन की टेग। बस की कमानी टूटी कि अगनी की हृदय कलिका। कली सी अगनी को एकाएक थरथरी छूटी और रूलाई आ गई थी- “अब!”
आठ बजे हैं। बस सवा आठ चौराहे आती है। न सवारी। न साधन। विकट है। बस से नीचे आ गयी थी, अगनी। वह एक हाथ से कलेजा और दूसरे हाथ से बैग थामे थी। अगनी ने सामने देखा, सड़क के दोनों किनारे खड़े सागवान और खांखरों की टहनियां एक दूसरे की गलबहियां लिये थीं। जितनी दूर उसकी आँखें गईं, लंबी सुरंग सी दिखाई दी। पहाड़ काट कर उसकी रीढ़ निकाल ली गई हो। लाइटें फेंकता आता वाहन अग्निपुंज सा लगता। धैर्य टूट टूट जुड़ता था, उसका। और सवारियां आसपास के मगरों की थीं। वे बस में बैठी रह गई थी। बस ठीक होगी, चली चलेगी।
अगनी ने हिम्मत गांठ ली थी, शिक्षित को साहसी होना चाहिये। गुलाबी रंग की साड़ी पर बैठता वैसा ही ब्लाउज। पैरों में सैण्डल। हाथ में काला बैग। सुनसान सडक पर अकेली अगनी।
ट्रक वालों के दुष्कर्म छुपे कहाँ है यहाँ। वे रात बेरात राह चलती आदिवासी महिलाओं को जबरन ट्रक में बैठा ले जाते हैं। दूसरे दिन छोड़ जाते हैं। मरी। अधमरी। चेतन। अचेतन। जंगल में छुपेगी, जानवर हड्डियां तक चिंचौड़ डालेंगे। शिकारी, बहेलियों उठाईगीर भी है। इधर कुआं, उधर खाई। न इधर दया, न उधर रहनुमाई। ओ मेरी आई (माँ)।
आई हगना। पचासेक की वय। पति की मृत्यु के बाद बच्चों को ऐसे रखती, पक्षी अंडे सेता हो। लाइट नहीं थी। हुगना बेटी अगनी के इंतजार में देहरी पर बैठी थी, दीया लिये। दोनों बेटे भीतर पढ़ रहे थे। हुगना की आंखें राह से हटती न थीं। मोरनी सी चलती, अब आई मेरी अगनी। अब आई। चिंता आँखों में नमी, होंठों पर पपड़ी बनी थी। कलेजा उठ-उठ बैठता था। दो दिन बाद हगाई (सगाई) है मेरी अगनी की। हुगनी ने बड़ी जिज्ञासा से आहट की ओर देखा, बिल्ली थी।
शाम पांच बजे आया फोन वैसा ही बार बार सुन रहा था, जैसा उसके कानों ने सुना था। “मां कपड़ों की तुरपाई करते टेलर ने टेम बिगाड़ दिया है। अब मैं आखिरी बस में आऊंगी। हाँ, आऊंगी आज ही। रोटी-सब्जी बनाये रखना।”
हुगनी ने माथा पीटा -“मना किया था, बेटी ये बेस राजपूत महिलायें पहनती हैं। पात में छेद मत कर। अपनी जात जी, रीत निभा”। जन्म की जिद्दन द्रोहिणी अगनी ने दो टूक जवाब दिया था, “मां दुनिया अंतरिक्ष में डोल रही है। हम है कि कपड़े लत्तों की जात से चिपके है। मैं बेकार के बंधन नहीं मानती। वह बेस मेरी चाह है। मंगनी पर पहनूंगी।”
बेटी की चिंता अतीत हुगना की स्मृति में आया। हुगना का हट्टा-कट्टा पति तीन बरस पहले चिकनगुनिया की चपेट में आ गया था। शिक्षा विभाग में नौकरी करते उस पुर में ही मकान बना लिया था। हुगना का परिवार उस समय जंगल में रहता था। पहाड़ की तलई में केलू का घर था। पांच बीघा जमीन की। पथरीली। खांखरों ठकी। खंदक पडी। ऊबड़-खाबड। ना कुछ उपजे। ना कुछ निपजे। कुएं में पानी हो, घर में दाने आयें। सूखा कुआं, बंजड़ खेत निरख आंखों में पानी तिलमिलाये।
जंगल हुगना का जीव, जिजीविषा, खाता-पूंजी, माई-बाप। हुगना ने अपने पति के हठ पर जंगल छोड़ा, मानो प्राण देह छोड़ रहे हों।
बाप का साया सिर से उठा, अगनी बी.ए. में थी। अगनी को अनुकंपा कोटे से लिपिक की नौकरी मिली जरूर, लेकिन शहर से बाहर 90-95 किलोमीटर दूर, सुदूर एक गांव में।
मदारी की डोर से बंधी बंदरिया की तरह समय की डोर से जुड़ी अगनी भयभीत मन और कातर दृष्टि से आयें-बायें, आगे-पीछे देखती दुबकी-दुबकी चली जा रही थी। बस पकड़ लूं, मां फिकर में मरती होगी।
हांफती-कांपती अगनी भागमभाग चौराहे पर पहुंची थी। दो आदमी पेड़ की छाया से निकल कर उसके सामने आ डटे थे। वहीं तो थे, जो उससे मुकाम पूछ बस से उतर कर तेज कदमों जंगल में निकल गये थे। पहाडी रंग। बित्ता बदन। अधबंही कमीजें। चढ़ी खुसी धोतियां। मूंछे मुड़ी हुई। दोनों के हाथों में गिल्ट के कडे थे। उम्र तीस से टपी न होगी। कद काठी, रंग, चाल, ढाल में दोनों जुड़वा लगते थे। दोनों के हाथों में लोहबंध लाठियां थीं। आँखों में कलुष था। मुंह से महुआ (हथकढ़ दारू) उठ रहा था।
हरजी अगनी से सट कर खड़ा हो गया था। उसने इस हकूक से उसकी ओर आंखें मटकाईं मानों वह उसकी जेबी हो। कहने लगा, “उदयपुर जाएगी न, तू। बस तो गई।” और वह हंस पड़ा था, खामखाह।
हरजी-मरजी अगनी के पतले पतले हाथों पर गुदे गोदना पढ़ गये थे, मानो वे इतिवेत्ता हों।
15 बरस पहले अगनी की आई ने उसे गोदी में बैठा कर गोदने गुदवाये थे। गोदना आदिवासी संस्कार था कि मां का लाड़ था। उस दिन सुई ने इतना दर्द नहीं किया था जितनी कि आज।
आखेटक की निगाहें शिकार पर सध जाती हैं। मरजी की आंखें घात घाघ से वहशी हुई जाती थीं। लाठी की टो पर ठुड्डी टिकाये वह कहने लगा-“ट्रक रूकवाया है। उदयपुर चलेंगे, हम भी।”
उसने हरजी को हड़क दी -“हरजी, सींग सा ऊबा (खड़ा) है। ट्रक ले आ। देर हो रही है।”
हरजी हथेली खुजलाता आगे बढ़ गया था। मरजी आंखों-आंखों में अगनी की देहयष्टि नाप-जोख रहा था।
बेजान सी खड़ी अगनी ने नि:सहाय सांस मारी। मर्द कनक और कामिनी पर मरते हैं। कनक में शुद्धता की चमक और कामिनी में यौवन की दहक आग में घी बन जाया करती है अकेले में।
टक आ खडा हआ था। अगनी की काया धज रही थी। सिर घम गया था। आंखें फिरने लगी थीं। वही ट्रक था, जिसका ड्राइवर अगनी को बैठाने के लिये आग्रह की जद तक चला गया था। अगनी के हाथ सैण्डल तक बढ़ गये थे। ड्राइवर, उसका खलासी और हरजी-मरजी तयदारी में मशगूल थे।
“अरी, अगनी, बिकी न, तू!”
घबराई अगनी चांदनी से निकल कर ट्रक की छाया में आ गई थी, चुपके से। ट्रक की छाया से निकल कर वह पेड़ों के झुरमुठ में चली गई थी।
अगनी जंगल में जन्मी है। वह जंगल की काया-माया जानती है। रात पड़े, जंगल जानवरों के हवाले हो जाता है।
बावजूद, अगनी भीरू नहीं थी। एक सूझ, सौ उपाय। डूबते को तिनके का सहारा। दुबकती बिल्ली की तरह अगनी दुकानों की आड़ में चली गई थी। ………. ट्रक चला गया था। हरजी-मरजी हाथ मलते रह गये थे।
हरजी-मरजी मदिरा में पगलाये थे। मद में मदियाये थे। लोभ में ललचाये थे। चौतरी पर बैठी महिला को लक्ष्य बनाये थे।
अगनी ने सांस मारी-“ओ मेरी, आई।”
देहरी पर बैठी हुगनी ने अकस्मात बाहें फैलाई – ‘मेरी बेटी अगनी।”
हरजी-मरजी की आंखें काइया से वक्र हुई जाती थीं। धैय बंध नहीं रह पा रहा था। प्यादों की तरह दोनों एक साथ उसके नजदीक सरके।
“ले ऊबी (खडी) हो। खेल बिगाड़ दिया सब।” मरजी का स्वर था।
“ना अबे। तोक (उठा)।” वह मरजी के हुक्म में गुंथी हेकड़ थी। वे आदिवासी बोल रहे थे। अगनी की ग्राम्य भाषा शहर रहते हिन्दी में घुलती मिलती गई थी। उसे चुप रहने में होशियारी लगी।
बोली, बिलखी, बर्बाद हुई।
मरजी के हाथ उसकी ओर बढ़े।
“थू -थू।” अगनी ने थुथकार के साथ हाथ की फटकार दी।
फटकार के साथ ही उसके हाथ का चूड़ा और राजपूती बेस (लिबास) दिख गया था। वे कांच पर पड़ी बूंद की तरह छिटक कर चौतरी से नीचे गये।
हरजी ने सांस रोकी। होंठों पर उंगली रख कर उसने भय और प्रायश्चित के भाव से कहा-“मूर्ख मरजी।”
“हुं।”
“यह आदिवासी नहीं, किसी रजपूत की बीनणी है। बेस देख। लहंगा काचली, कुरती लूगड़ी, चूड़ा। तू खुद तो मरेगा ही, मुझे भी मरवाएगा।”
जमीन पर आड़े बैठे मरजी ने आंखों पर हथेली की छज्जी सी बना कर भडैती सी की -“मै तो मूर्ख हूँ। अकल का दुश्मन हूँ। तुम अकल के घोड़े दौड़ा रहे हो, ना। मैं वही, बेस बदले है।”
“ना-ना। राजपूत है। बाई का साथ वाला दिसा फरागत गया होगा।”
मरजी ने आंखें मींह मीह की-“हम आदिवासी हो कर भी जात की गंध नहीं साधते। मैं कहूं वही है। तोक।”
“ना, नहीं है। राजपूत है। कोहनी तक चूड़ा पहने आदिवासी!”
“अरे भई है।”
“कतई नहीं।”
“उसे चांदनी चर गई या जंगल निगल गया?”
“दुकानों के पीछे दुबकी हो।”
और इसी जिब-बिद में दोनों स्वप्नमयी की खोज में आगे बढ़ गये थे। अगनी ने सुखद सांस ली। धरती को चुमकारा। चांद को दुहाई दी। वह है, वरना अभी का अभी कुछ घट गया होता। उसने मां के याद किया, “ओ मेरी आई।”
हुगनी के अवचेतन ने हुंकारा, “बेटी अगनी।”
एक ट्रक चौतरी के ऐन सामने आ कर रूक गया था, चर्र-चूं-चर्र-चूं-चर्र-चूं। ट्रक भीमकाय था। उसमें लोहा भरा था, ठसाठस।
ड्राइवर ने खलासी की ओर संकेत किया -“जीवन।”
“जी।”
“उधर देख, देर मत कर, कोई आ निकलेगा। भाग हैं अपने।”
“जी।”
“कंबल ले। लपेट कर उठा ला झट।”
कर्मचारी चाहे अफसर का हुक्म ना माने, ड्राइवर का ओढ़ाया काम खलासी नहीं मोड़ पाता है। गांठ सी गठी देह का खलासी दो मन वजन पंसेरी की तरह उठा लेता था। वह कंबल ले कर गाड़ी से कूदा और दौड़ कर चौतरी पर चढ़ गया था।
अगनी की गर्दन झुकी थी। डर के मारे उसका रोम-रोम खड़ा था, खतरे के समय सेही खुद में दुबक जाती है और उसका कांटा-कांटा खड़ा हो जाता है।
“दूर-दूर-दूर……।”
अगनी की वेदना सुन कर हरजी मरजी उल्टे दौडे।
खलासी काल भुसण्ड हब्शी सरीखा था। उस पर आदिवासी लट्ट तडातड़ पड़े। “अरे मार दियो, ओर मार दियो”, कहता वह कंबल छोड़ कर भाग छूटा था, मार खाया कुत्ता कू-कू करके दौड़ा करता है।
हरजी-मरजी के मान सम्मान छलके पड़ते थे, उसकी बड़ी जात के नाम पर। उन्होंने उसे इस सिफ्त से कंबल ओढ़ाया कि उसके पैरों की उंगली तक नजर नहीं आये। आते जाते सोचे भिखारी, पगला, कंगला या बीमार बैठा है कोई।
चलते हुए वे दोनों उसकी ओर नत हुये – “चिंता फिकर मती कर बाई। हमारी औरत कहीं गुम गई है, उसे खोजते ढूंढते आते हैं।”
अगनी उन्हें धन्यवाद देना चाहती थी, लेकिन दिया नहीं। वह स्वांग में न होती।
चांद सिर पर आ गया था।
कठोर घड़ी कुदरत के कहर की कड़ियां बन जाया करती हैं। परात जैसी एक बदली आकाश में फिर रही थी। वह छोटी-छोटी बदलियों को अपने आगोश में समेटती सुरसा सी बढ़ती गई थी। देखते-देखते उसने नभ के छत्रप को निगल लिया था, समूचा।
चोर को एकांत, सियार को अंधेरा, अगर रात हो आधी, दोनों के पौ बारह।
गीदड़ भक्षण के लिये गांव के छोर, सड़क के कोर और डोले डाकरों के ठोर आ बैठते हैं। ओले-डोले, खेत-क्यार, छोर-किनार मरा हुआ जानवर पड़ा हो।
अगनी अपनी मां और दो भाइयों के साथ जंगल में रहती। केलू की छत का उनका टापरा (झौंपड़ी) हुआ करता। भूखे प्यासे भटके सियार बाहर रखे उनके मटकों में मुंह मार देते। गीदड़ों के आये दिन दीदार होते थे, अगनी को। अगनी लाठी लेकर उन्हें भगा आती पहाड तक। कई बार तो वह उन पर तीर चला देती थी।
सड़क के बाई छोर आ बैठे गीदड़ों की तीव्र होती हुकियाहट, रिरियाहट के साथ अगनी में खौफ भरता गया था। सांसें टूट-टूट जुड़ती थीं। देह थर-थर कांपती थी। आंखें पथराई थीं। मलेरिया चढ़े मरीज की तरह कांपनी छूटी थी।
झीनी चादर जैसी पतली बदली। छन कर आती चांदनी। कंबल ठकी अगनी। सियारों को सूझा, चौतरी पर काले रंग का मृत जानवर पड़ा हुआ है।
भड़कती भूख। तीन चार सियार चौतरी पर चढ़ गये थे, दुबकते-दुबकते। सियारों ने कंबल खींचना लिया। कंबल अगनी के बदन से उतर कर चौतरी से लटक गया था। कोने अगनी के पैरों तले दबे थे।
कंबल हटते ही, जैसे अगनी के सिर से अभिभावक का साया उठ गया हो।
असहाय होते कायरता शूर हो जाया करती है। अगनी हाथों के फटकारे मारे जाती थी, सियार निष्ठुरता गांठे थे। आततायियों से कैसे निबटे इस हाल?
विप्लव देख वहां से गुजरती एक बाइक को ब्रेक लग गये थे, चाणचक।
“अरे-अरे बेचारी अकेली औरत को मार ही न डाला गीदड़ों ने।”
शिकारी था।
उसके कंधे से बंदूक लटकी थी। उसने बाइक पर बैठे-बैठे गोली दाग दी थी। एक सियार तड़प कर वही ठण्डा हो गया था।
जंगल की नींद उड़ गई थी। रात्रि की तंद्रा टूट गई थी। सन्नाटा चिर गया था। अगनी के पैरों तले धरती धूज रही थी।
चढ़ी बदली को हवा ले गई थी। चांद ज्यादा खुला खिला था। निडर। चांदना सुई में धागा डाल लो। कांपती अगनी ने डरी आँखों से निहारा। छह फीटा, भरे बदन, बड़ी बड़ी मूंछों वाला पैंतीस-चालीस का कोई मर्द है। उसकी एक आंख आधी, दूसरी पूरी थी। चेहरा खुर चीथे गोबर के चोत सा लगता था। ऐसा कुरूप वह पहली दफा देख रही थी।
अगनी और शिकारी। बकरी और कसाई।
सियारों से बच कर बाघ के मुंह में चली अगनी तू। अगनी में न जीव है, न जान है। न आभ है, न आत्मा है। मांस की लोथड़ भर है।
अंगनी के गौर वर्ण पर चांद स्वर्ण पर कुंदन सा जड़ा था। एक से बढ़ कर एक, शिकार खेले थे, शिकारी ने। आज अलौकिक था।
उसने बंदूक बाइक के हैण्डल से टांग दी थी। मंसूबा लिये वह अगनी की ओर बढ़ा। अगनी के हाथ कलेजा थामे थे। उसने एक हाथ झटक कर, कहा “रूको।”
चपल से चपल, जबर से जबर शिकार को धराशायी कर देने वाला आखेटक महिला की पतली सी आवाज से वहीं ठिठक गया था। राजपूतों में उसकी अच्छी उठ-बैठ है। उसके आसामी हैं। शिकार खरीदते हैं। बाई आसपास के किसी गांव की है। मर्द इसे यहां बैठा कर दारू या अफीम की पीनक में पड़ा होगा, यही कहीं। बदनीयत होते, बदजात होऊंगा।
सम्मान का भाव लिये उसने पूछा “बाई नाम क्या है आपका?”
रात सांय-सांय कर रही थी। जंगल भांय-भांय कर रहा था। पल-पल संकट और त्रास से गुजर रही अगनी की जुबान तालू से लगी थी।
शिकारी ने फिर पूछा – “बाई गांव या मगरा आपका?”
अंबर अकेला था। अवनी अकेली थी। दोनों के बीच निष्प्राण सी अगनी बैठी थी। जुबान उपड़ी, बात उखड़ी।
शिकारी का विश्वास मजबूत हुआ। ठिकानेदार है। औरत चाहे दुनिया नाप रही हो, आकाश चाप रही हो। इनके यहां औरत के कदम न चारदीवारी के बाहर निकलते हैं और न गैर मरद के सामने धूंघट-जुबान खुलते हैं।
चांद उतर रहा था। चांद के साथ-साथ रात उतर रही थी। शिकारी अपनी बाइक पर पहरूआ सा बैठा था। बाई को जंगली जानवर उठा ले जाए। कोई ट्रक बैठा ले जाए। वहशी जब्र कर जाये। इसका आदमी आएगा, ऐसा ध मकाऊंगा उसे, जिंदगी भर समरण रहेगा।
अगनी ने कलई पर बंधी घड़ी देखी। रात तीन बजे थे। उसने घड़ी की सुई पर हाथ रखा, छह किये देती हूँ। घड़ी की सुई घुमाये धरती थोड़े न घूम जाएगी अगनी कि दिन निकल आएगा। बस आ जाएगी। घर पहुंच जाएगी आई के पास।
शिकारी अगनी की ओर देखता बार बार उद्वेलित होता था। उसका यकीन डगमगाने को होता, कदम बहकने को होते, एक निश्चय के साथ उसका भरोसा जुड़ जाता-“ना-ना, राजपूत ही है।”
उसने नल पर जा कर हाथ धोये। वह अगनी के लिये पानी की बोतल भर लाया, कब से प्यासी है, बाई! वह बोतल को उसके पास रख कर कहने लगा- “हाथ और बोतल धोये हैं। नल का साफ पानी है। मुंह फेर, पी ले बाई।”
अगनी का गला, सूखी तलैया। मन हुआ, पूरा पानी पी जा, प्यासी आंतें भभक रही हैं। अगनी ने बोतल छई तक नहीं, स्वांग अनावृत हो जाये।
शिकारी में आक्रोश भरा- “जान चली जाएगी, जात की “मैं” नहीं जाएगी।”
पहर से बाइक पर बैठे शिकारी को तलब लगी। वह पेड़ों के झुरमुट की ओर बढ़ गया था, औरत बैठी है।
अगनी को यहां बैठे तीन पहर बीत गये थे। शनैः शनैः चार बजने को आये थे। भूख प्यास दूर वह ………….। बैठी। गीली रेत आंटी। वह थोड़ा आगे सरक कर बैठ गई थी, जैसे बैठी थी।
तेज दौड़ती एक जीप को ऐसे ब्रेक लगे पहियों की रड़क, सड़क पर काली पट्टी सी बिछ गई थी। उसमें ड्राइवर और उसका सहयोगी था। ये लोग सवारी कम ढोते थे, उठाईगीरी उचक्की ज्यादा करते थे, रात बेरात। ड्राइवर ने अपने सहयोगी की ओर इशारा किया। वह आदिवासी था। उसने विनतीपूर्वक गर्दन झटक दी- “बना, यह औरत आदिवासी नहीं, राजपूत है। पांव पंडू। हाथ लगाऊं, पाप पाऊं।”
डाइवर उसके मंह से पहली बार “ना” सन रहा था। अगर वह उससे कहता सांड को सिर मार आ, वह नहीं चूकता।
ड्राइवर ने बुरी तरह दांत किटकिटाये- “मूर्ख, औरत का क्या आदिवासी, क्या राजपूत, औरत औरत है। जल्दी कर।”
दारू का नशा, ऊपर से हवश की होश, ड्राइवर को होश न था।
ड्राइवर ने जेब से एक गोली निकाली। उसने गोली अगनी के नाक की ओर बढ़ाई, सूंघते बेहोश हो जाएगी। अगनी ने फटकारी मारी। गोली कहीं की कहीं जा गिरी थी।
पच्चीस छब्बीस के मुस्टण्ड ड्राइवर का तन बदन झुलस कर रह गया था। उसने आंखें तरेर कर बांहें संगवा ली थीं। अगनी की कांखों में हाथ खोंस कर उसे उठाने के लिए उसने हाथ बढ़ाये।
पीछे से डाइवर के गाल पर जोरदार तमाचा पडा। उसे दिन में तारे नजर आने लगे थे। जबड़े से खून बह निकला था।
शिकारी और ड्राइवर की आंखें मिली। उसी सड़क दोनों की चर्या थी। शिकारी ने उसे गाली बकी-“साले अपनी जात बिरादरी पर भी हराम करता है। भग जा, नहीं गोली मार दूंगा।”
चित हुआ पहलवान हाथ झड़काता चला जाता है। ड्राइवर हाथ मलता जीप की ओर बढ़ गया था, अपने सहयोगी के साथ।
अगनी की बोटी-बोटी कांपनी छटी थी। धरती फट जाये. वह धरती में चली जाए। पंख लग जाये वह मां के आंचल में जा छुपे। उसका एक एक पल कट रहा था, फांसी चढ़ता हो। डरी सहमी अगनी अपने कपड़े समेट कर और सिकुड़ बैठी थी।
बाइक पर बैठे शिकारी के रोम रोम थकान थी। आंखों में नींद थी। उसे मालूम नहीं, पूर्व दिशा में लालिमा बन गई है और उजास फैलने लगा है। अगनी ने जांघों के बीच दबा अपना बैग निकाला। वह चुपके से चौतरी से नीचे उतरी। लंबे कदम दुकानों के पीछे चली गई थी, वह।
……बस होर्न मारती आ रही थी। सवारियों के बीच खड़ी अगनी उन्हीं कपड़ों में थी, जिनमें पहले देखी गई थी।
निराश हताश हरजी-मरजी चौतरी पर आ बैठे थे। वे कभी हाथ मलते थे कभी अपनी लाठी पर थपक मारते थे।
बस में चढ़ती अगनी को उनकी आँखें इलमगार कह रही थीं।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
