Kids story in hindi: भोलू यानी मूर्खराज। न-न, यह नाम नहीं था उसका। और न भोलू सच्ची-मुच्ची मूरख ही था। बस, इतनी सी बात है कि वह बिल्कुल भोला-भाला था, सीधा था, इसलिए जंगल के सारे जानवर उसे बुद्ध समझते थे। हालत यह थी कि भोलू जंगल में किसी से भी मिलता तो वह हँसकर ऐसे देखता, मानो मन ही मन कह रहा हो कि अभी यह मूर्खराज कोई निहायत बुद्धूपने की बात करेगा। लिहाजा उसके कुछ बोलने से पहले ही सब हँस पड़ते और भोलू के चेहरे पर पसीने की बूँदें छलछला उठतीं।
ऐसे में भला क्या करे भोलू? घबराहट के मारे वह मुश्किल से अटक-अटककर अपनी बात पूरी कर पाता और फिर मुँह लटकाकर आगे चल देता।
उसके चेहरे की मनहूसियत थोड़ी और बढ़ जाती। सो जंगल के बाकी जानवरों को एक तमाशा और मिल जाता। सब मिलकर खूब हो-हो करके हँसते और भोलू की खूब खिल्ली उड़ाते।
बेचारा भोलू! वह बहुत ज्यादा दुखी था। बहुत परेशान। पर उसकी मुश्किल हल होने में आ ही नहीं रही थी। जितना-जितना वह सोचता, उतना ही और उलझता जाता।
फिर एक दिन की बात। भोलू इसी तरह धीरे से बुद-बुद करता, कुछ हैरान-परेशान सा रास्ते पर जा रहा था। उसके पैर उसको कहीं से कहीं ले जा रहे थे और उसे कतई पता नहीं चल पा रहा था कि आखिर वह जा कहाँ रहा है। जब वह घर से बहुत दूर आ गया तो चौंका। उसने घबराकर मन ही मन कहा, अरे, मैं कहाँ आ गया? मुझे तो यह भी नहीं पता कि अब घर जाने का रास्ता क्या है?
परेशान भोलू एक पेड़ के नीचे अधलेटा सा पसर गया और दुखी स्वर में बड़बड़ाया, मेरे जीने से क्या फायदा? मुझे तो सभी बुद्ध कहते हैं। अगर मुझे जरा भी अक्ल नहीं आ सकती तो…!
भोलू इतना दुखी था कि उसकी बड़बड़ाहट उस पेड़ पर बैठे मुलू ने भी सुन ली। मुटलू बंदर एकदम गोलमटोल और सुंदर था। इसलिए उसे सब मुलू कहते थे।
भोलू की अजीब सी बड़बड़ाहट सुनकर मुटलू चौंका। सोचने लगा, ‘भला कौन ऐसा दुखी प्राणी यहाँ आ गया?’
तभी फिर भोलू की बड़बड़ाहट सुनाई दी। इस बार आवाज ज्यादा साफ थी। वह मानो रोता हुआ अपने आप से कह रहा था, “नहीं-नहीं, अब घर लौटने से फायदा क्या? अब मैं घर नहीं जाऊँगा। ऐसी जिंदगी किस काम की, जिसमें सभी हँसी उड़ाएँ।”
इस पर मुटलू रह नहीं पाया। हलके व्यंग्य के साथ बोला, “बस, इतनी ही हिम्मत है तुममें कि मरने की सोचने लगे! आखिर ऐसी क्या मुसीबत आ गई, मेरे प्यारे भाई? इतने लंबे-चौड़े तो हो। क्या जरा सी मुसीबत से हार मान जाओगे?”
भोलू चौंका, ‘अरे, यह कौन बोल रहा है, कौन… कौन?’
ऊपर देखा तो पेड़ पर बैठा मुटलू नजर आ गया। “उड़ा लो, तुम भी उड़ा लो मजाक…!” उसने रोनी आवाज में कहा। लग रहा था, अब जल्दी ही वह रोना शुरू कर देगा।
सुनते ही मुटलू टप से पेड़ की डाल से नीचे कूदा। भोलू के एकदम पास आकर बोला, “भाई, तुम इतने टूट गए? ऐसी क्या बात है, मुझे भी तो बताओ।”
अब भोलू के लिए अपने दुख को जज्ब करना मुश्किल हो गया। वह जोर से रो पड़ा, बुरी तरह भाँय-भाँय करके। आँसू गालों पर दुलक आए। रुँधे गले से बोला, “सब मुझे बुद्ध समझते हैं। बताओ, ऐसी जिंदगी से फायदा?”
सुनकर पहले तो मुटलू एकदम चुप रहा, फिर मुसकराकर बोला, “अगर सब तुम्हें बुद्ध मानते हैं तो मानने दो। कम से कम अपनी नजरों में तो बुद्धिमान बनो। मगर मैंने जो तुम्हारी बातें सुनी हैं, उनसे तो मुझे भी लगने लगा कि तुम तो पक्के बुद्ध हो!”
इस पर भोलू कट के रह गया।
उसकी हालत देख, मुटलू थोड़ी सहानुभूति के साथ बोला, “यह न समझना कि मैं तुम्हारा मजाक उड़ा रहा हूँ। पर ऐसा शख्स तो बुद्धू ही कहलाएगा न, जो बस रोता ही रहता है। अपने बुद्धूपन को दूर करने की जरा भी कोशिश नहीं करता।”
“हैं, तो क्या यह बुद्धूपना दूर भी हो सकता है? क्या मुझे थोड़ी-बहुत अक्ल मिल सकती है। कौन सी दुकान पर मिलती है, मुटलू भाई?” भोलू ने उसकी ओर बिटर-बिटर देखते हुए कहा।
मुटलू मुस्कराया। बोला, “भाई, मैं ज्यादा तो नहीं जानता, पर टप-टप उछलता एक दिन एक स्कूल में मैं जा पहुँचा था। वहाँ एक भले से मास्टर जी थे, गीताराम मास्टर जी। उन्होंने मुझे पढ़ाया बड़े प्यार से। सचमुच बहुत अच्छे थे गीताराम मास्टर जी।”
“अच्छा, उन्होंने तुम्हें पढ़ाया? सच्ची!” हैरानी के मारे भोलू की आँखें फटने को हो आईं।
“हाँ, तो और क्या मैं झूठ बोल रहा हूँ?” मुटलू ने थोड़ी नाराजगी से कहा, “असल मैं तो अपनी मौज में स्कूल में कूदते-फाँदते पहुँचा था। थोड़ी शरारतें करने के खयाल से। देखा कि वहाँ मास्टर जी बच्चों को बड़े प्यार से पढ़ा रहे हैं और बच्चे इतने ध्यान से सुन रहे हैं कि उन्हें पढ़ाई के अलावा कुछ होश ही नहीं है। देखकर मुझे अच्छा लगा। पर तभी मन में एक शरारती खयाल भी आया कि अगर मैं बीच में अभी टप से कूद पड़ तो कितना मजा आए! और मैं झट से कूद पड़ा, भरी क्लास में। मैं सोच रहा था कि बच्चे खूब शोर मचाते हुए भाग खड़े होंगे। कुछ बच्चे उठकर इधर-उधर भागे भी, पर मास्टर गीताराम उसी तरह शांत बैठे मुसकरा रहे थे। देखकर सब लड़के शार्मिंदा होकर अपनी-अपनी जगह बैठ गए। मास्टर जी उठकर मेरे पास आए। उन्होंने प्यार से मुझे पुचकारा और हाथ आगे बढ़ाया तो मैं झट से उनकी गोदी में जाकर बैठ गया।
“अब तो भैया भोलू, बच्चों का कौतूहल और बढ़ा और वे मुझे घेरकर खड़े हो गए। सब मुझे देखकर हँस रहे थे और तरह-तरह की बातें कर रहे थे। उधर मैं अपनी बेवकूफी पर शार्मिंदा हो रहा था। मास्टर जी हँसकर बच्चों से बोले, ‘भई, तंग न करो इसे। सब अपनी-अपनी जगह जाकर बैठो। यह भी तुम्हारा नया साथी है। देखा नहीं, पढ़ने की चाह में कहाँ से कूदकर क्लास में आ गया।’ फिर उन्होंने बच्चों से कहा, ‘एक सीट इस प्यारे मुलू के लिए खाली करो।’
“और वहाँ मैं बैठा तो मास्टर जी फिर उसी लगन से पढ़ाने लगे, जैसे कुछ हुआ ही न हो! मैं बोर न हो जाऊँ, यह सोचकर उन्होंने मुझे एक किताब पकड़ा दी, चुनमुन की पहली किताब। उसमें फूलों, फलों, पेड़ों और जानवरों के चित्र छपे थे। मास्टर जी का पढ़ाया हुआ तो मेरी समझ में नहीं आया, पर किताब में छपे चित्रों को देखकर मुझे बड़ा मजा आया।”
“सचमुच तुम सच कह रहे हो न मुटलू भाई।” भोलू ने हैरान होकर अपनी बड़ी-बड़ी आँखें फैलाते हुए पूछा।
“हाँ भाई, सच, एकदम सच। तुमसे गलत क्यों कहूँगा?” मुटलू बोला, “अब इतना और सुन लो कि उस दिन बच्चों की छुट्टी हो जाने के बाद मास्टर जी मुझे अपने साथ अपने घर ले गए। वे स्कूल के पिछवाड़े बने अपने छोटे-से सुंदर घर में रहते थे। वहाँ उन्होंने मुझे फल खाने को दिए। प्यार से पुचकारा और बातें कीं। और उस दिन के बाद मैं उसी स्कूल में रहने लगा। स्कूल में पढ़ता और मास्टर जी के साथ रहता। वे प्यार से मुझे सिखाते कि बोलो मुटलू, अ से अनार, आ से आम…! धीरे-धीरे मुझे चित्र देखकर पढ़ना आ गया, तो मास्टर जी ने मुझे किताब भेंट करते हुए कहा कि लो, इसे ले जाओ और जंगल में जाकर फुर्सत से पढ़ना। किताब पूरी पढ़ लो, तो आकर दूसरी ले जाना।”
भोलू चकित सा मुलू की बात सुन रहा था, जैसे यह दूसरी दुनिया की बात हो।
मुटलू बोला, “अरे, इसमें हैरान होने की कौन सी बात है? कोई चीज प्यार से समझाई जाए तो भला कौन नहीं समझेगा? गीताराम मास्टर जी ने इतने प्यार से सिखाया था कि अटक-अटककर ही सही, मैंने आखिर पूरी किताब पढ़ ली। किताब मैं मास्टर जी को लौटाने जा ही रहा था कि आज अचानक तुम मिल गए। मेरा खयाल है, तुम्हें किताब पसंद आएगी। देखोगे?… इसी पेड़ पर रखी है।”
सुनते ही भोलू की आँखों में चमक आ गई। बोला, “अच्छा, जरा दिखाओ तो!”
मुटलू उछला और झट पेड़ से किताब उतारकर लाया। उत्साह से पन्ने पलट-पलटकर दिखाता रहा। भोलू अचरज से भरकर आँखें फाड़े देखता रहा, जैसे किताब नहीं, किसी और दुनिया की झाँकी वह देख रहा हो।
*
किताब सचमुच खूबसूरत थी। बड़ी रंग-बिरंगी। उसमें परियों और जंगल के जानवरों के बड़े-बड़े चित्र देखकर उसे बहुत खुशी हुई। और जब उसने भालू और मदारी वाले पाठ में बच्चों की भीड़ के बीच मगन होकर नाचता हुआ भालू देखा, तब तो वह किलकारी मारकर इतना हँसा, इतना हँसा क हँसते-हँसते उसकी आँखें मुंद गई और वह जमीन पर फैल गया।
यह देख, मुटलू भी खुश होकर खी खी करने लगा।
इसी तरह किताब में बना लाल-लाल पका हुआ अनार, केले और आम देखकर… और मधुमक्खियों के छत्ते से टपकता शहद देखकर भालू का मन उसे खाने को तरस उठा और वह होंठों पर जीभ फेरने लगा। फिर पेड़ पर बैठी चिड़िया, कबूतर, बुलबुल, मैना और गौरैया….!
भोलू ने देखा तो उसका मन हुआ कि वह झट पास जाकर उनका हालचाल पूछ ले। पर फिर याद आया कि अरे, यह तो किताब में बने चित्र हैं। यह कोई असली की चिड़िया थोड़े ही है!
भोलू खुश होकर बोला, “अरे मुटलू, यह किताब तो बड़ी मजेदार है। इसमें तो जंगल के इतने सारे जानवर है और ऐसे बढ़िया पके हुए फल कि सच मुँह में पानी आ जाए।”
मुलू बंदर हँसा, बोला, “पर भाई, खाली ये जानवर और फल ही नहीं, बड़ी काम की चीजें हैं इस किताब में। अगर सीख लो तो भोलूराम, तुम बुद्धू नहीं रहोंगे।”
“सच…! भोलू अवाक् रह गया। बोला, “फिर तो मेरी मुश्किल मेरी मुश्किल नहीं रहेगी।”
“हाँ, और क्या?”
“अच्छा मुटलू, जरा पढ़कर सुनाओ तो यह किताब।” भोलू ने आग्रह किया।
इस पर मुटलू ने कुछ छोटी-छोटी कहानियों वाले पाठ निकाल लिए और एक के बाद एक दो-तीन कहानियाँ खासे नाटकीय अंदाज में सुना डालीं।
सुनकर भोलू को बड़ा मजा आया।
मुटलू बोला, “तुम खुद पढ़ो तो तुम्हें और भी ज्यादा अच्छा लगेगा। और इसमें मुश्किल कुछ नहीं है, लाओ मैं सिखाता हूँ।” कहकर मुटलू ने भोलू को अ-आ, इ-ई, क ख ग सब सिखाया। शुरू में भोलू अटका, पर फिर उसे भी मजा आने लगा।
भोलू ने अटक-अटककर पढ़ना शुरू किया। बार- बार गलतियाँ करता और मुटलू बिल्कुल मास्टर जी की तरह उसकी गलतियाँ सुधारता। बीच-बीच में प्यार भरी डाँट भी पिला देता कि “अरे बुद्धूराम, ऐसे नहीं, ऐसे।”
मुटलू का ऐसा प्यार देखकर भोलू का दिल भर आया। उसे वह डाँट भी प्यारी लगी। सोचता, ‘शायद इसी तरह कोई राह मिले। मैं इतना पढ़-लिख जाऊँ कि लोग मुझे बुद्धू न कहें।’
इस तरह भोलू पढ़ता गया और तमाम बातें सीखता गया। अब तो वह इतनी जल्दी-जल्दी पढ़ने लगा कि जब वह मुटलू को पढ़कर सुनाता तो वह अचरज से भर उठता।
कोई हफ्ते में भोलू ने वह किताब पूरी पढ़ डाली। मुटलू बोला, “अरे, तुम तो मुझसे भी तेज निकले। मैं तो अभी तक अटक-अटककर पढ़ता हूँ पर तुम तो सरपट भागने लगे अरबी घोड़े की तरह।”
इस पर भोलू बड़े जोर से खुदर-खुदर हँसा। आज पहली दफा उसके चेहरे पर खुशी और आत्मविश्वास की झलक दिखाई दी। मुटलू ने पूछा, “अच्छा बताओ तो, पूरी किताब में तुम्हें क्या अच्छा लगा?”
सुनते ही भोलू को प्यासे कौए की कहानी याद आ गई, जो किताब के आखिर में छपी थी। एक कौए को प्यास लगी थी, तो घड़े में उसने ढेर सारी कंकड़ियाँ डाल दीं। पानी पीने का क्या अनोखा तरीका खोज निकाला उसने।…वाह खूब!
सुनकर मुटलू को हँसी आ गई। फिर भोलू ने और भी चतुराई की कहानियाँ सुनाईं जो उसने किताब में पढ़ी थीं और उसे खासी पसंद आई थीं। मुलू मान गया कि भोलू ने पढ़ा ही नहीं, सचमुच समझा भी है। लेकिन जब भोलू ने कहा कि “मुटलू भैया, कोई नई किताब तो दो!” तो मुलू चकराया। भला वह भोलू को नई किताब कहाँ से दे?”
उसने झेंपते हुए कहा, “भई, बुरा न मानना, भोलू। मेरे पास तो एक यही किताब है, जो गीताराम मास्टर जी ने दी थी।… उन्हें लौटाने जाऊँगा, तो शायद वे कोई दूसरी किताब दे दें! हाँ, कहो तो आज ही उस स्कूल में चलते हैं…!”
सुनकर भोलू चकराया। बोला, “पर क्या मेरा जाना ठीक रहेगा? तुम तो मजे में पेड़ों पर उछलते-कूदते पहुँच जाओगे, पर मैं? अगर बच्चे मेरे पीछे पड़ गए तो…?”
मुलू बोला, “तो क्यों न रात के समय चलें? अँधेरे में किसी को पता न चलेगा।”
भोलू को बात जँच गई।
*
आखिर रात के समय भोलू और मुटलू दोनों स्कूल जा पहुँचे।
उस समय गीताराम मास्टर जी स्कूल में अपने निवास के सामने वाले लॉन में टहल रहे थे। वे मन ही मन कोई गीत सा गुनगुना रहे थे।… दोनों एक पेड़ की ओट में छिपकर बैठ गए। कुछ देर में भोलू ने मुलू को इशारा किया तो मुटलू पेड़ पर चढ़ा और टप से मास्टर जी के आगे कूद पड़ा। मास्टर जी पहले चौंके और फिर खिलखिला उठे। बोले, “मैं समझ गया कि यह अदा तो मुटलू की ही हो सकती है।” फिर कहा, “हाँ बताओ मुटलू, किताब पढ़ी कि नहीं?”
मुटलू बोला, “पढ़ ली मास्टर जी। मैंने और भोलू दोनों ने।”
“भोलू… भोलू कौन?” मास्टर जी ने पूछा तो मुटलू बोला, “वह जरा शरमा रहा है। पेड़ के पीछे छिपा है।” मास्टर जी मुटलू के साथ बरगद के उस विशाल पेड़ की तरफ गए तो भोलू झिझकता हुआ बाहर निकला। मास्टर जी को देखा तो एकदम स्कूली बच्चों की तरह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। बोला, “नमस्ते मास्टर जी!”
मास्टर जी ने भोलू के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “अच्छा, तो तुमने भी पढ़ी किताब? कोई मुश्किल तो नहीं आई!”
इस पर भोलू तो झेंप गया, पर मुटलू ने जवाब दिया, “मास्टर जी, भोलू ने तो मुझसे भी पहले किताब पढ़ ली। मैं तो अटक-अटककर पढ़ता था, पर यह तो फर्राटे से पढ़ना सीख गया।”
गीताराम मास्टर जी ने बड़े प्यार से भोलू की ओर देखा। उनकी आँखों में शाबाशी वाला भाव था।
अब भोलू की थोड़ी झिझक खुली। बोला, “असल में मास्टर जी, हम इसलिए आए हैं कि आप मुटलू को नई किताब दें। हम दोनों उसे मिलकर पढ़ेंगे।”
“अच्छा, मगर तुम्हें कैसी किताब चाहिए, जरा बताओ तो?” मास्टर जी ने पूछा।
भोलू कुछ सोच में पड़ गया। तब मुटलू बोला, “मास्टर जी, भोलू को इस तरह की किताब चाहिए, जिसमें सूझबूझ और हिम्मत की कहानियाँ हों, ताकि जंगल के जानवर उसे बुद्ध कहकर मजाक न उड़ाएँ।”
“अरे, जंगल के जानवर क्या मजाक उड़ाते हैं इसका? यह तो बुरी बात है।” मास्टर जी ने कहा।
“हाँ, मास्टर जी, खूब मजाक उड़ाते हैं।” अबके भोलू दुखी स्वर में बोला, “मैं तो घर से भाग आया था। यह तो अच्छा रहा कि, मुटलू मिल गया, वरना मैं तो…।” कहते-कहते भोलू को वे दुख और अपमान याद आए, जिनकी वजह से वह जंगल छोड़कर आया था। गला रुँध गया, आँखों में पानी भर आया। उसने रुक-रुककर पूरी कहानी सुना दी।
सुनकर मास्टर जी गंभीर हो गए। बोले, “तो तुम हफ्ता भर मेरे पास रहोगे। मैं तुम्हें अच्छी तरह पढ़ा-लिखाकर लायक बना दूँगा।”
“नहीं मास्टर जी, यहाँ तो हो सकता है, स्कूल के बच्चों को परेशानी हो। मुझे आप किताब दे दीजिए। हम दोनों उसे मिलकर पढ़ेंगे, फिर लौटा जाएँगे। फिर आकर कोई और किताब ले लेंगे।”
मास्टर जी ने कुछ सोचा, फिर अपनी किताबों की अलमारी खोली। उसमें से रंग-बिरंगे चित्रों वाली किताब निकाली, ‘जंगल की कहानियाँ’। उसे भोलू के हाथ में देते हुए कहा, “लो, इसे खुद भी पढ़ना और मुलू को भी पढ़कर सुनाना। तब तुम्हें दूना आनंद आएगा। और हाँ, जब पढ़ लो तो आकर बताना जरूर कि कैसी लगी किताब?”
भोलू ने बड़े आदर से किताब ली। फिर भोलू और मुटलू मास्टर जी को नमस्ते करके जंगल की ओर चल दिए।
मास्टर जी बड़े प्यार से उन्हें जाते हुए देखते रहे।
अब तो भोलू की यह हालत हो गई कि जैसे उस पर पढ़ने-लिखने का नशा ही सवार हो गया हो! दिनभर भोलू जोर-जोर से बोल-बोलकर किताब पढ़ता और मुटलू सुनता।
कहानियाँ थीं भी बहुत मजेदार। ज्यादातर कहानियों में जंगल के जानवरों के बड़े अजीबोगरीब कारनामे थे। उनके खूब बड़े- बड़े चित्र भी छपे थे। शेर, चीता, हाथी, हिरन, खरगोश, भेड़िया, लकड़भग्गा सभी उसमें छपे थे।
भोलू और मुलू उन्हें देखते और मिलकर खिल-खिल-खिल हँसते।
एक दिन मुटलू ने कहा, “चलो, तुम्हारे घर चलते हैं। वहाँ सबको इसी तरह अपने किस्से-कहानियाँ सुनाना। लोग मान जाएँगे कि भोलू आखिर बुद्धू नहीं रहा। भोलू पंडित हो गया।”
भोलू झिझक रहा था, पर मुटलू ने उसका हौसला बढ़ाया। आखिर वे चल पड़े और चलते-चलते शाम होने तक उसी जंगल में पहुँच गए, जिसमें भोलू का घर था।
मुटलू ने भोलू को एक टीले के पीछे बैठने के लिए कहा और खुद जंगल में जगह-जगह मुनादी करता हुआ सा घूमने लगा। एक कमल के पत्ते को मोड़कर उसने लाउडस्पीकर जैसा बना लिया था। उसे मुँह के आगे लगाकर जगह-जगह रुक-रुककर कहता, “सुनिए, सुनिए, साहेबान! जंगल में एक बड़े भारी विद्वान आए हैं जो बड़ी ज्ञान की बातें बताते हैं। मजेदार किस्से-कहानियाँ सुनाते हैं। उनके पास एक अनोखी किताब भी है जिसमें जंगल के जानवरों के सुंदर-सुंदर चित्र छपे हैं-शेर, चीता, भालू सभी के।”
“हैं ऐसा! वे महाज्ञानी भला कहाँ है?”
मुटलू बोला, “अभी नहीं, वे आज चाँदनी रात में आपके सामने आएँगे। बस, कुछ ही देर बाद!”
मुलू के यह कहते ही जंगल के सब जानवर उस अनोखे ‘मेहमान’ के स्वागत की तैयारी में जुट गए।
रात को मुटलू ने एक पेड़ के नीचे एक लालटेन लाकर रख दी। ज्ञानी जी के स्वागत के लिए गेंदे और गुलाब के सुंदर महकते हुए फूल लाकर रखे गए। पेड़ों पर रंग-बिरंगी झंडियाँ टाँग दी गईं। हाथी ने अपनी सूँड़ में भरकर जगह-जगह जल छिड़का था।
थोड़ी देर बाद मुटलू सुंदर फर की टोपी लगाए भोलू को साथ लेकर आया। भोलू के चेहरे पर चमक थी। टोपी लगाने के कारण उसकी शक्ल भी कुछ बदल गई थी। पर फिर भी जंगल के जानवरों ने उसे पहचान लिया।
“अरे भोलू…! भोलू तुम?” सब जैसे एक साथ चीख उठे।
“नहीं भई, भोलू नहीं, भोलूराम कहो। क्योंकि इस बीच इन्हें ज्ञान हासिल हो गया है और ये महापंडित हो गए हैं। भोलू कहने से हो सकता है ये रूठ जाएँ!”
सुनकर सभी के चेहरे पर अचरज का भाव नजर आने लगा।
अब मुटलू ने ‘भोलूराम शास्त्री’ कहकर नया परिचय कराया। और उसके गुणों का बखान किया। फिर बोला, “अब भोलूरामजी खुद अपने मुँह से ज्ञान की कुछ अनोखी बातें बताएँगे।”
भोलूराम ने सभी को नमस्कार करके विनम्रता से कहा, “साहेबान, मैं तो आपका वही भोलू हूँ। हाँ, थोड़ा पढ़-लिख जरूर गया हूँ। और जो कुछ पढ़ा, आपको भी उसके बारे में कुछ बताऊँगा।”
कहकर भोलू ने जंगल में प्यार और शांति लाने की बहुत सी नई और समझदारी की बातें बताईं। फिर उसने जंगल के जानवरों के मनोरंजन के लिए एक के बाद एक ऐसी मजेदार कहानियाँ सुनाईं, जिन्हें सुनकर सब लोटपोट हो गए। हालाँकि भोलू की सब कहानियों में अच्छा बनने और जंगल की भलाई का संदेश भी छिपा हुआ था, जिससे सब अपना वैर भूलकर जंगल को सुंदर बनाने की कोशिश करें।
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अंत में भोलू ने किताब को उलट-पुलटकर उसमें बने जंगल के जानवरों के बड़े-बड़े चित्र दिखाए तो जैसे सबको हँसी का दौरा पड़ गया हो। शेर, हाथी, चीता, लोमड़ी सब हँसते-हँसते बेहाल थे। असल में लालटेन की रोशनी में किताब में बने चित्र इस तरह जगमग कर रहे थे कि लगता था कि हाथी, चीते, शेर, भालू, खरगोश किताब में से झाँक रहे हैं।
“अरे भोलू, तुम्हें यह जादू वाली किताब कहाँ से मिली? और फिर इतनी ज्ञान की बातें!” शेर ने आखिर पूछ ही लिया।
इस पर भोलूराम ने पूरा किस्सा सुनाया और कहा, “मुटलू ने मुझे बड़ा सहारा दिया। आज मैं जो कुछ भी हूँ, मुटलू के कारण हूँ। और गीताराम मास्टर जी…! वे तो जैसे मेरे लिए फरिश्ता ही बन गए।”
सुनकर सन्नाटा छा गया। जंगल के जानवरों को बड़ा पछतावा हुआ कि उन्होंने भोलू को इतना क्यों सताया! पर भोलूराम का कहना था, “अरे भाई, तुम्हें दोष क्यों दूँ? बल्कि तुमने तो बड़ा उपकार किया। आखिर तुम्हारे कारण ही तो मैं किताबों की नई-निराली दुनिया में पहुँच पाया।”
उसके बाद तो रोज-रोज उसी पेड़ के नीचे लालटेन की रोशनी में जानवरों की सभा जुड़ती और भोलू सबको किताब पढ़कर सुनाता। खासकर कहानियाँ तो वह आवाज के उतार-चढ़ाव के साथ इतने नाटकीय अंदाज में सुनाता कि जानवरों की तबीयत होती कि भोलू सुनाता रहे और हम सुनते रहें। उनका मन होता, भोलू की कहानी कहीं खत्म ही न हो!
होते-होते यों ही कई दिन बीत गए। जंगल के जानवरों की तो अब रोज की आदत बन गई थी। बिना भोलू से कहानी सुने उन्हें नींद ही नहीं आती थी।
पर भोलू…! वह बेचारा क्या गीताराम मास्टर जी से जो किताब ‘जंगल की कहानियाँ’ माँगकर लाया था, वह तो अब पूरी हो चुकी थी। फिर कहाँ से लाए नई कहानियाँ?
‘क्यों न मास्टर जी को यह किताब वापस कर दूँ और नई ले आऊँ?’ उसने सोचा, ‘फिर जाकर उनका धन्यवाद भी करना चाहिए। आखिर उनके कारण ही तो मुझे इतना मान सम्मान मिल रहा है।’
भोलू ने जब मुटलू को बताया तो वह उछल पड़ा। मास्टर जी से मिलने की उसे भी इतनी ही बेसब्री थी। फिर उसके दोस्त भोलू को जंगल में जो प्यार और इज्जत मिली थी, उससे भी उसका मन खुश था।
आखिर एक दिन भोलू ने जंगल के जानवरों को बताया कि वह गीताराम मास्टर जी को यह किताब वापस करने और नई किताब लेने जा रहा है। इस पर जंगल के जानवरों ने तालियाँ बजा-बजाकर और नाच-नाचकर अपनी खुशी प्रकट की। सभी भोलू और मुटलू को आदर से जंगल की सीमा तक विदा करने पहुँचे।
मुटलू बड़ा मगन होकर यह देख रहा था। आखिर उसके प्यारे दोस्त का अच्छा-खासा रोब जम गया था। अब भला उसे कौन बुद्ध कहने की गुस्ताखी करता?
अब भालू मन ही मन कह रहा था, ‘देखो, पिछली बार इस जंगल से गया था, तो मैं कितना दुखी थी और इस बार …? सच अच्छी किताबें पढ़कर ही आदमी जान पाता है कि हर मुश्किल का कोई न कोई रास्ता तो निकलता ही है।’
भोलू और मुटलू, दो अलबेले दोस्त, इस तरह प्यार से एक-दूसरे के कंधे पर हाथ रखे हुए जा रहे थे, जैसे वे जंगल के जानवरों के लिए नई रोशनी लाने और नई खुशी का द्वार खोलने जा रहे हों।
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