आज रविवार था। पापा की सख्त हिदायत थी कि रविवार को एक घंटे का श्रमदान कॉलोनी की सफाई के लिए देना है, सो हम भाई बहन श्रम दान से थक कर दोपहर को गहरी नींद सो रहे थे। तभी किसी ने घंटी बजाई हम अचकचा कर उठ गए। दरवाजा खोला तो देखा कि पड़ोस वाली दादी खड़ी थी। बोली, ‘अरे बिटिया, मम्मी कहां है। मैंने बिना मम्मी को आवाज लगाई ‘मम्मी…मम्मी… देखो दादी बुला रही हैं।
मम्मी उनके पास पहुंच भी न पाई थी कि आवाज लगाते हुए दादी बोली, ‘बच्चों की ड्रेस प्रेस हो गई क्या? हम एक दूसरे का मुंह ताकने लगे। मम्मी असमंजस में उन्हेें देखते हुए बोली, ‘नहीं अम्मा, बोलो क्या काम है? ‘अरे कुछ नहीं, जब तुम प्रेस करना तो दरी के ऊपर हमारी साड़ी बिछा लेना। वो क्या बहुत सिकुड़ गई है और जब तुम बच्चों के कपड़े प्रेस करोगी तो हमारी साड़ी भी प्रेस हो जायेगी। ये कहते हुए दादी ने साड़ी मम्मी को थमाई और चली गई। मम्मी ने शाम को साड़ी प्रेस कर दादी को दे दी।
अब तो हर रविवार दादी आती और कहती साड़ी बिछा लेना। हम सब उनके आते ही मम्मी को चिढ़ाते और मम्मी मुस्कुराते हुए कहती, ‘ऐसे नहीं बोलते, वो बुजुर्ग हैं। दादी को कुछ भी चाहिए होता तो ऐसे ही बोलती। एक दिन रात में आईं और बोली, ‘सब्जी बची हो, तो हमें दे दो, खराब हो जायेगी, हम ही खा लेंगे, वो क्या है ना कि सूखी रोटी खाई नहीं जाती। क्या करें बुढापा है न बेटा, तो सब्जी बनाने का मन नहीं करता। मम्मी बोली, ‘आप चलो अम्मा हम गुन्दो बिटिया से सब्जी भेजते है। मै नाक-मुंह सिकोडते हुए सब्जी देने गई।
मम्मी और दादी के बीच पैबस्त रिश्तों के द्वन्द को मैं समझ नहीं पा रही थी। हमें उनके नेचर से चिढ़ हो गई। मैं हमेशा मम्मी से कहती, ‘सीधे क्यों नहीं मांगती? वो एक संपन्न घर की थी, भरा पूरा परिवार था, बेटे-बहू और नाती-पोतों वाली दादी थी। दो बेटों में एक तो बाहर रहता था और दूसरा बेटा वहीं पास में रहता था, जहां दादी एक झोपड़ी में अलग रहती थी।
हमारे मम्मी-पापा उनका बहुत सम्मान करते और मुझे हमेशा अपने व्यवहार के प्रति डांट पड़ती रहती। जब मैं बड़ी हुई तो मां ने समझाया, ‘बेटा वो इसलिए बोलती हैं कि किसी को यह न लगे कि उनकी बहू उनकी सेवा नहीं करती और यहां तक कि खाने को नही देती। दादी किसी तरह अपना खाना बनाती। उसके छह लड़कियां थी, जिनकी शादी हो गई थी और एक बेटा बाहर रहता। बची एक बहू जिस पर आसरा था, वो ऐसी…।
मगर उनकी हमेशा यही कोशिश रहती कि बाहर वाला यह ना समझे कि बहू उनका खयाल नहीं रखती। वो हमेशा अपनी बहू की तारीफों के पुल बांधती, ताकि घर की बात मोहल्ले में ना जाए। यह बात मुझे जब समझ में आई तो हमारी नजर में उनका सम्मान बढ़ गया। आज वो इस दुनिया में नहीं हैं पर रिश्तों की नई इबारत को रेखांकित कर गई हैं कि ऐसे रिश्तों की मिसाल इस पढ़े-लिखे आज के समाज में शायद ही कोई दूसरी हो।
जब तक वो जिन्दा रहीं, मम्मी से रिश्ता जुड़ा रहा। मम्मी ने भी उनकी बहुत सेवा की, मगर फिर भी वो अपनी बहू की तारीफ ही करती रही, मगर कब तक, एक दिन सबके सामने सच्चाई आ ही गई, लेकिन तब तक दादी इस दुनिया को छोड़ कर जा चुकी थी। उनके दुखों का अंत हो गया था। मम्मी और दादी के रिश्ते अंत तक साथ बने रहे। मैं आज भी परिपक्वता की दहलीज पर खड़े होकर समझ नहीं पा रही हूं कि सांसारिक रिश्ते भी क्या बिना किसी पारिवारिक संबंधों के इतने सच्चे और मजबूत हो सकते है…?
