ज्योतिषशास्त्र किसी भी प्रकार के रोग के कारण की उत्पत्ति को बताने में सक्षम है। वैदिक शास्त्रों में‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्ड‘का सिद्धांत प्राचीनकाल से प्रचलित है,अर्थात् जो नियम सौर जगत में जैसे सूर्य,चन्द्रमा आदि ग्रह प्रकृति का संचालन करते हैं ठीक वही नियम शरीर में स्थित सौर जगत की इकाई का संचालन करते हैं।
ज्योतिष शास्त्र में सभी बारह राशियां शरीर के किसी न किसी शारीरिक अंग का प्रतिनिधित्व करती हैं और सभी ग्रहों की भी अपने-अपने तत्त्व जैसे पृथ्वी,अग्नि,वायु जल इत्यादि होते हैं कुंडली के विभिन्न भावों का भी अपना स्वभाव यह निर्धारित करता है की उपस्थित बीमारी स्थिर,अस्थिर या आती-जाती रहेगी,क्योंकि बारह भाव स्थिर,अस्थिर व द्विस्वभाव के सूचक हैं। किसी भी रोग का निर्धारण करते समय भाव,उसमें उपस्थित राशि व उसकी प्रकृति तथा ग्रहों की प्रकृति,ग्रहों का पारस्परिक सम्बन्ध व दृष्टि संबंध को समग्र रूप से विचार करके किया जाता है कि रोग ठीक होगा अथवा नहीं या होगा तो कितने समय में ठीक होगा किसी एक अवयव का विचार करके रोग का आकलन करना त्रुटिपूर्ण होगा बारह राशियों में मेष राशि विशेष रूप से मस्तिष्क,माथा शरीर का प्रतिनिधित्व करती है। मेष राशि से विशेषत: सिरदर्द,मानसिक तनाव,उन्माद एवं अनिद्रा तथा मुख व नेत्र रोगों आदि का विचार किया जाता है।

परन्तु रोग विचार की दृष्टि से भावों का अधिक महत्त्व होता है,क्योंकि सम्पूर्ण शरीर का विचार लग्न से त्रिक भावों छठा,आठवां,व बारहवां भावों का रोग विचार से प्रत्यक्ष संबंध है। दूसरे एवं सप्तम भाव मारक होने के कारण स्वास्थ से सम्बंधित हो जाते हैं। इस प्रकार रोग का आकलन करने की दृष्टि से इन6भावों की भूमिका अधिक होती है।
- प्रथम भाव शरीर एवं स्वास्थ्य का विचार करना चाहिए व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक क्षमता का विचार इसी से किया जाता है।
- छठा भाव शत्रु का होता है जिसे रिपु भाव भी कहा जाता है,क्योंकि स्वास्थ शरीर का शत्रु होता है और रोग शरीर के प्रबलतम शत्रु होते हैं। इसलिए इस भाव से मुख्य रूप से रोगों का विचार करना आवश्यक हो जाता है।
- अष्टम भाव आयु या मृत्यु का भाव होता है आयु एवं मृत्यु एक दूसरे के पूरक होते हैं,क्योंकि आयु का पूर्ण होना ही मृत्यु है इसलिए आयु समाप्त होते ही मृत्यु हो जाती है या मृत्यु होते ही आयु पूर्ण हो जाती है रोग ठीक होगा या नहीं इसका विचार अष्टम भाव से करना चाहिए।
- कुंडली का बारहवां भाव व्यय भाव होता है इसका संबंध अस्पताल से भी होता है व्यय अर्थात् खर्चा इसलिए इस भाव से भी रोगों का विचार किया जाता है।
जिस प्रकार किसी भवन की नीव उसको चिरआयु प्रदान करने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है ठीक उसी प्रकार किसी की कुंडली उसके शरीर की नीव का आकलन करने में सहायक होती है,जो ग्रह हमारी कुंडली में निर्बल है वे ग्रहों के कम अंश,चलित अवस्था,या कुंडली में किसी नीच राशि या भाव में या शत्रु राशि आदि में होने के कारण उस राशि,तथा भाव संबंधित रोग देने की क्षमता रखते हैं।

अन्य कारण
सामान्य सिरदर्द या तनाव कभी-कभी बाह्य कारणों से भी हो सकता है जैसे-
- अधिक देर धूप में रहने से।
- अचानक वातानुकूलित वातावरण से।
- सामान्य वातावरण में जाने पर।
- किसी दैहिक रोग के कारण।
- किसी समस्या को अधिक सोचने,या तात्कालिक क्रोध आने पर।
- पेट में गैस बनने पर।
- अधिक भूख लगने पर।
- आंखों की कोई समस्या।
- अधिक निकट से कम्प्यूटर पर काम करना,अधिक टीवी देखना,कम लाइट में पढ़ना,इत्यादि किन्तु इस प्रकार के सिरदर्द सामान्यत: अल्प कालीन या क्षणिक होते हैं।
ज्योतिष संबंधित कारण
सौरजगत में स्थित ग्रह नक्षत्रों के साथ हमारा सतत संबंध ग्रहों की गति,स्थिति एवं रासायनिक परिवर्तनों के अनुरूप हमें प्रभावित करता रहता है। यह बात प्रत्यक्ष प्रमाणित है कि जलवायु परिवर्तन,ऋतुपरिवर्तन,भूकम्प तथा ज्वारभाटों का सूर्य तथा चंद्रमा की कलाओं से सीधा संबंध है। इसके कारण विभिन्न प्रकार के हो सकते हैं,जैसे- पागलपन,उन्माद,सिरदर्द,मिर्गी,बड़बड़ाना,आदि मानसिक रोगों के कारणों का आकलन केवल एक ग्रह से नहीं किया जा सकता परन्तु‘चन्द्रमा‘की भूमिका की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। चन्द्रमा का मनुष्य की भावनाओं एवं आकांक्षाओं आदि से कारक रूप में संबंध है कुंडली का चतुर्थ भाव-भावनाओं का भी प्रतिनिधित्व करता है। इसी प्रकार ग्रहों में बुध और भावों में प्रथम व पंचम बुद्धि के द्धयोतक है- जब चतुर्थ भाव,प्रथम और पंचम भाव इनके स्वामी तथा चन्द्र व बुध पापी ग्रहों द्वारा प्रभावित हों तो जातक में पागलपन व उन्माद आ जाता है। चन्द्रमा यदि सबसे अधिक भयभीत होता है तो राहु से जब राहु का प्रभाव मनरूपी चन्द्रमा पर विशेषत: पड़ता है तो इस मानसिक रोग की उत्पत्ति होती है।

जैसे चन्द्रमा की कलाएं समुन्द्र के जल को प्रभावित करती हैं उसी प्रकार शरीर में हमारे रक्त प्रवाह को भी प्रभावित करती हैं,यही रक्त की असामान्यता अन्य दिनों की अपेक्षा पूर्णिमा को मिर्गी,उन्माद,रक्तचाप,तथा मानसिक रोग अपनी पराकाष्ठा पर होते हैं।
सूर्य ग्रह से चन्द्रमा का संबंध माइग्रेन (आधासीसी) देता है।
निर्बल मंगल ग्रह से होने वाला सिरदर्द अधिक परिश्रम के कारण या तनाव के कारण हो सकता है।
वात पित्त आदि के कोप से मन मस्तिष्क में दबाव या तनाव से तथा सिर में चोट लगने से सिरदर्द होता है,वात,पित्त आदि से उत्पन्न सिरदर्द का विचार सूर्य से,मानसिक तनाव से उत्पन्न सिरदर्द का विचार चन्द्रमा से तथा चोट से होने वाले सिरदर्द का विचार मंगल आदि पाप ग्रहों से करना चाहिए। फलित ग्रंथों में सिरदर्द के निम्न योगों का वर्णन किया गया है इन योगों में उत्पन्न व्यक्ति सिरदर्द से दुखी रहता है ये योग इस प्रकार हैं-
- राहु,मंगल एवं शनि तीनों एक ही राशि में स्थित हों।
- सूर्य की दशा में शुक्र के अन्तर्दशा आने पर सिरदर्द होता है।
- तृतीयेश जिस नवांश में हो उस राशि का स्वामी जिस नवांश में हो उस राशि का स्वामी केंद्र में पाप ग्रहों के साथ हो एवं दृष्ट हो।
- कुंडली में लग्न में पाप ग्रह की राशि हो तथा गुरु एवं चन्द्रमा पाप ग्रहों के साथ हों।
- बुध की दशा में मंगल की अन्तर्दशा आने पर सिरदर्द होता है।
- शनि लग्नेश होकर लग्न में बैठा हो तथा वह पाप ग्रहों से युत एवं दृष्ट हो तो सिर में चोट की संभावना होती है।
- लग्न में राहु हो व पाप ग्रहों से युति व दृष्ट हो।
- मंगल लग्नेश होकर लग्न में बैठा हो तथा वह पाप ग्रहों से युति संबंध बनाये एवं दृष्ट हो तो भी सिर में चोट लगने की प्रबल संभावना होती है।
- सूर्य की महादशा में सूर्य की अन्तर्दशा में सिर से संबंधित रोग होते हैं।
- सूर्य की महादशा में बुध (नीच) की अन्तर्दशा में डिप्रेशन व तनाव होता है।
- चन्द्रमा की महादशा में यदि चन्द्रमा (नीच) की अन्तर्दशा हो या चन्द्रमा पाप ग्रहों से संबंध बनाये तो व्यक्ति डिप्रेशन से ग्रसित हो सकता है।
- चन्द्रमा की दशा में केतु की अन्तर्दशा मानसिक रोग देती है।
- मंगल की दशा में मंगल से त्रिक स्थान में स्थित सूर्य की अन्तर्दशा मानसिक रोग,सिर में चोट के कारण सिरदर्द देती है।
- गुरु की दशा में शनि (त्रिक स्थान में या नीच) की अन्तर्दशा मानसिक रोग दे सकती है।
- गुरु की दशा में सूर्य (गुरु से6,8,12में स्थित) की अन्तर्दशा सिरदर्द देती है।
- शनि की दशा में शुक्र (6,8,12में स्थित,नीच या अस्त) की अन्तर्दशा या पापी ग्रहों से युत शनि मानसिक कष्ट भय,व्याकुलता आदि देता है।
- शनि की दशा में शनि (8,12या अस्त या पाप ग्रह से युत)की अन्तर्दशा मानसिक कष्ट देती है।
- शनि की दशा में राहु की अन्तर्दशा मानसिक रोग प्रदान करती है।
- केतु की दशा में केतु से6,8,12में स्थित सूर्य की अन्तर्दशा घोर मानसिक कष्ट देती है।
- केतु की दशा में बुध की अन्तर्दशा जो त्रिक स्थान में बैठा हो और पापी ग्रहों से युक्त हो मानसिक संताप व उन्माद देता है।
- शुक्र की दशा में सूर्य की अन्तर्दशा जो पापी व नीच राशि में6व8भाव में बैठा हो विभिन्न प्रकार के मानसिक रोग गुस्सा सिरदर्द व माइग्रेन आदि देता है।
- शुक्र की दशा में (शुक्र से8, 11) में पापी केतु की अन्तर्दशा सिरदर्द,मनोरोग व डिप्रेशन देती है।
निदान
- ग्रहों के अशुभ प्रभाव से निदान पाने के लिए रत्न,मंत्र,औषधि,दान एवं स्नान आदि का वर्णन शास्त्रों में किया गया है जिसे ग्रह चिकित्सा कहा जाता है रत्न धारण करते समय ग्रहों के अनुकूल व प्रतिकूल प्रभावों का विचार करके ही रत्न धारण करना चाहिए।
- इसी प्रकार ग्रहों के मन्त्रों का जाप भी लाभ प्रदान करता है परन्तु स्वास्थ लाभ के लिए लग्नेश का रत्न विशेष लाभ देता है।
- सूर्य नमस्कार व गायत्री मंत्र का जाप सभी प्रकार के मानसिक रोगों का अचूक निदान है व अन्य बहुत समस्याओं का समाधान है।
- माता का आशीर्वाद प्रतिदिन प्राप्त करें तथा घर से जाते समय माता का चरण स्पर्श अवश्य करें।
- चांदी की बनी वस्तुएं किसी से उपहार में न लें तथा दूध,चीनी व सफेद वस्तुओं का दान किसी स्त्री को करें।
- सफेद कपड़े न पहने।
- नारियल पानी पिएं व पिलाएं।
- अपने अतिथि को पानी अवश्य पिलाएं स्फटिक की माला दान करें।
- ‘ओम श्राम श्रीं श्रौं स: सोमाय नम:‘मंत्र का जाप सोमवार व विशेषत: पूर्णमासी को अवश्य करें।
- घर में शंख नाद भी लाभप्रद होता है।
- पानी अधिक पियें,हरी घास पर चलें,छोटी इलायची व सौंफ का सेवन करें।
- गौ सेवा अधिकाधिक करें।
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