मुझे याद है दिल्ली की मेरी एक यात्रा जिसने मेरे मन में बहुत सी भावनाएं भर दीं साथ ही कई सवाल भी। दिल्ली के खाने पर जो मुग़ल साम्राज्य का जो असर है वह मेरे रूचि का विषय है और इसी विषय को लेकर मैं दिल्ली और यहां के खान पान को नए नज़रिए से देखने का प्रयास कर रहा हूँ. मेरे दिमाग में पहला प्रश्न “मुग़लिया” शब्द के बारे में उठता है।सभी मुग़ल बादशाहों का अपना ज़ायका था जो की उनके रहने की जगह पर निर्भर था। अकबर का ज्यादातर वक्त या तो युद्ध में बीतता था या वह अपना समय फतेहपुर सिकरी में बिताते थे। तो वहीं जहांगीर का वक्त कश्मीर की वादियों में बीतता था। औरंगजेब ने अपना समय डेक्कन में बिताया और उसकी पसंद सादा खाना रहा। तो वहीं सिर्फ शाहजहाँ ही ऐसे थे जिन्होंने दिल्ली और मुगलई खाने का संरक्षण किया। लाहौर ने दिल्ली से ज्यादा मुग़ल देखे और इसे इस नजरिए से देखें तो यह साफ़ पता चलता है कि उस दौर में लाहौर कि इतनी अहमियत थी कि वहां के खाने का सीधा असर मुगलिया खाने पर दिखता है। अगर हम नवाबी या निजामी खाने को देखे जो लखनऊ, मुर्शिदाबाद और हैदराबाद में पाए जाते है तो हम देखेंगे कि इन पर साफ तौर पर लाहौर का असर दिखता है। लाहौर के जायके का असर सिर्फ एक पार्ट है दिल्ली के खाने का। दिल्ली का खाना का खाना सिर्फ लाहौर से आया हुआ नहीं कह सकते. तो ऐसे में आखिर दिल्ली का खाना है क्या? शुरुआत के लिए हम यह कह सकते हैं कि ये सैनिकों का खाना है लाल किले और उसके आस पास का खाना एक बेहतरीन उदाहरण है कि आखिर कैसे अलग-अलग तरह की संस्कृति चाहे वह सूफी हो,पलायन हो। या युद्ध के दौरान यह सब मिलकर दस्तर खान ए दिल्ली जैसा कुछ खूबसूरत बनाते हैं। 1911 में दिल्ली भारत की राजधानी बनी तो ब्रिटिश राज के अपने खाने ने कनॉट प्लेस में अपनी जगह बनानी शुरू की जो की चादंनी चौक के खाने से बिल्कुल अलग थी। विभाजन के बाद लाहौर के लोग अपना खाना डेल्ही लेकर आये और दिल्ली के खाने में फिर से चंगे आया। मेरे हिसाब से मुग़लिया खाने को क्रेडिट देते हुए हमे यह नहीं भूलना चाहिये की मुग़लिया खाना सिर्फ एक हिस्सा है दिल्ली के खाने का और इसके खाने पर कई और असर भी हैं। शुरुआत में जब अफगानों ने आक्रमण किया तो उनका प्रभाव खाने में बहुत ही थोड़ा सा था क्योंकि वह कभी यहां रहे ही नहीं। अरब आक्रमणकारियों ने अपना प्रभाव सिंध प्रांत में आठवीं शताब्दी में ही बना दिया था पर 1200 में जाकर स्लावे डायनेस्टी की स्थापना दिल्ली में हुई। अमीर खुसरो और इब्न बतूता के लेखों से पता चलता हैं उस वक्त क्या हो रहा था। ये वो दौर था जब ड्राई फ्रूट्स खाने में शामिल हुए यह वही समय था जब पुलाव, कबाब राजसी खानपान का हिस्सा बना। समोसा,फालूदा,जलेबी और हरीसा का जिक्र कहीं इतिहास में नहीं। कहीं और भी खाने में भी सूफी प्रभाव देखने को नही मिला। अमीर खुसरो की माने तो सूफी खाना एक राजसी दस्तरखाने की एक रॉयल थाली मानी जाती रही है। इतना ही नहीं जाति-पाति के खानपान में भी सूफी खाने का असर दिखता है। मुगलिया खानपान का असर सुल्तानों की बजाय उनके सिपहसालारों पर ज्यादा दिखा। शाहजानाबाद की गलियों में तो आज भी बरक फूड का असर दिखता है। दिल्ली के जायके पर मेरे पिछले लेख में चर्चा के रूप मुगलिया प्रभावों ने वास्तव में हमारे देश के भोजन में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। लेकिन क्या समझने की जरूरत है कि दिल्ली की असली खाना सल्तनत, सूफी, मुगल, कायस्थ के एक मेल है लाहौर, पंजाब और एंग्लो इंडियन प्रभावित करती है और कुछ करने की जरूरत के बारे में बात करने के लिए, या दिल्ली की असली आत्मा गुमनामी में खत्म हो जाएगा।

मेरा एक अच्छा दोस्त और फूड हिस्टोरिएन पुष्पेश पंत ने इस बात को उठाया है और लिखा है। विदेशी और स्थानीय खानों के आगे दिल्ली का पुराना जायका कहीं खो गया। कोरमा,सालन और कलिया की जगह फ्लोरिड मेन्यू बनाने पर ध्यान दिया जाने लगा। शामी और सीक में भी काफी कमी आई है जब तक आप किसी घर के खास मेहमान ना हों। नर्गिसी कोफ्ता जैसी पुरानी चीज़े अब सिर्फ पुरानी दिल्ली में ही बची हैं। टके पैसे की सब्जियां तो कब की गायब हो गई हैं। बंगाली (छेना) मिठाईयां और सोहन हलवा भी अब कम दिखाई देते हैं तो वहीं फलों फालसा शरबत भी जीव जंतुओं की तरह लुप्त हो गए हैं। पनीर ने सभी मौसमी सब्जियों को देश निकाला दे दिया है। कुल मिलाकर मेरी नजर में यह है दिल्ली का खाना।