भगवान गणपति का आगमन
भगवान गणपति को आदिदेव भी कहा जाता है । यह मान्यता है कि हर शुभ कार्य की शुरुआत गणेश के आहवान से ही होनी चाहिए ।
भगवान शिव और माता पार्वती के सुपुत्र गणेश सर्वाधिक पूजित और प्रिय देवता माने जाते हैं । गणेश चतुर्थी या विनायक चतुर्थी को उनके जन्म दिन के रूप में मनाया जाता है । हिन्दुओं का यह एक बड़ा त्योहार है जिससे पूरे उत्साह और उल्लास के साथ पूरे देश में खास तौर पर महाराष्ट्र में मनाया जाता है ।
यह दिवस भाद्रपद (अगस्त-सितम्बर) माह की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को पड़ता है । हिन्दू पंचांग का भाद्रपद का छठा माह होता है । यह दस दिवसीय त्योहार चतुर्थी को प्रारंभ होकर शुक्ल पक्ष की अनन्त चतुर्दशी को खत्म होता है । यह माना जाता है कि इन दस दिनों में भगवान गणेश पृथ्वी पर आकर मनुष्यों को अपने वरदानों से कृतार्थ करते हैं ।

गणेश चतुर्थी का इतिहास
गणेश चतुर्थी का सम्बन्ध गणेश के जन्म से जोड़ा जाता है ।
भगवान शिव और देवी पार्वती कैलाश पर्वत पर निवास करते थे । भगवान शिव के कई सेवक थे जिन्हें गण कहा जाता था जिनमें प्रमुख था नंदी जो शिव का प्रिय बैल था । ये सारे ही गण भगवान शिव के परम आज्ञाकारी थे । शिव ने उन्हें कैलाश पर्वत पर कहीं भी जाने की अनुमति दे रखी थी ।

देवी पार्वती इस व्यवस्था से संतुष्ट नहीं थीं । हर समय गण उन्हें घेरे रहते थे, परन्तु वे सदैव शिवजी के आदेश को ही सर्वोपरि समझते थे । पार्वती चाहती थीं कि कोई ऐसा सेवक भी हो जो उनके आदेश को सर्वोपरि समझे ।
एक दिन पार्वती जी अकेली ही थीं । उन्होंने नंदी को आदेश दिया कि किसी को अन्दर न आने दे, क्योंकि वे स्नान करने जा रही हैं । नंदी दरवाजे पर ही बैठकर पहरा देने लगा ।
कुछ समय बाद वहां स्वयं भगवान शंकर ही आ गए । नंदी की समझ में नहीं आया कि कैसे अपने स्वामी को रोके । इधर नंदी संशय में ही था कि भगवान शिव अंदर चले गए । पार्वजी जी ने जब शंकर जी को अन्दर आते देखा तो वे नंदी से बहुत नाराज हुईं ।

उसी दिन पार्वती जी ने निश्चय किया कि वे एक ऐसा सेवक तैयार करेंगी, जो सिर्फ उनका आदेश माने । दूसरे दिन जब वे स्नान से पूर्व अपने शरीर पर हल्दी वाला उबटन मल रहीं थीं जब उनके शरीर से मला हुआ उबटन उतरा तो उसे उन्होंने एक तरफ रख दिया । उस ढेर को पार्वती जी ने एक बालक का आकार दे दिया ।
बाद में कुछ पवित्र मंत्रें से उस बालक की छवि में प्राण-प्रतिष्ठा कर दी और वह गोल-मटोल बालक एक जीवित बालक बन गया ।
उसने हाथ जोड़कर कहा-“हे माता! मैं आपके आदेशों का पालन करने के लिए ही जन्मा हूं । मैं आपके सभी आदेशों का पालन करूंगा ।”
पार्वती जी अपनी इस संतान को देखकर हर्ष से विह्वल हो गईं । उन्होंने कहा-“हे पुत्र! तुम्हें देखकर मुझे बहुत हर्ष हुआ है । अब तुम सदा मेरे साथ ही रहना ।”
पार्वती जी ने उस बालक को आदेश दिया कि जब वह स्नान करे तो किसी को भी अन्दर न आने दे । बालक ने ऐसा करने का प्रण लिया और द्वार पर पहरा देने लगा ।

कुछ देर बाद भगवान शंकर वहां पहुंचे । जब उन्होंने अन्दर जाने की चेष्टा की तो उस बालक ने उन्हें रोका । भगवान शंकर को रोष आ गया । वे बोले-“अरे मूर्ख बालक! तेरी हिम्मत कैसे हुई मुझे इस तरह रोकने की? क्या तू जानता नहीं कि मैं कौन हूं?”
बालक ने विनम्रता से उत्तर दिया-“मैं नहीं जानता कि आप कौन है, पर मैं आपको भीतर नहीं जाने दे सकता । यह मेरी माता का आदेश है ।”
भगवान शिव को गुस्सा आ गया । उन्होंने अपने गणों को आदेश दिया कि तुरन्त इस ढीठ बालक को दरवाजे से हटाओ, पर गणों के समवेत प्रयास भी बालक को टस-से-मस न कर सके ।

तब स्वयं भगवान शंकर उस युद्ध में कूद पड़े और अपने त्रिशूल से उस धृष्ट बालक का सिर काटकर दूर फेंक दिया ।
इस कोलाहल को सुनकर देवी पार्वती स्वयं बाहर आयीं । अपने सिर-विहीन बालक को देखकर वे चीत्कार करने लगीं । उन्होंने रोते हुए शंकर जी से कहा-“प्रभु! यह आपने क्या कर दिया? आपने हमारे पुत्र का ही सिर काट दिया ।”
“हमारा पुत्र!” भगवान ने विचलित होकर कहा-“क्या कह रही हो पार्वती?” देवी पार्वती ने उन्हें पूरी घटना सुनाई । शिवजी को जानकर बड़ा पछतावा हुआ और पार्वती से क्षमा मांगी, परन्तु पार्वती क्रोधित हो रही थीं ।
उन्होंने ऐसी तपस्विनियां पैदा कीं जो समस्त संसार की शांति भंग करने लगीं, तब देवताओं ने भगवान शंकर से कहा कि पार्वती जी को किसी प्रकार मनाएं ।


पार्वती जी को मनाने के लिए भगवान ने अनेक गणों से कहा कि बालक का कटा हुआ सिर ढूंढकर लाएं । यदि वह न मिले तो उसी आयु के किसी जीव का सिर लेकर आएं ।
गण एक बाल-हाथी का सिर लेकर आए जिसे भगवान शंकर ने उस बालक के धड़ के साथ जोड़ दिया और उस अस्तित्व में प्राण फूंक दिए । गज का सिर धारण करने वाले, गोल-मटोल शरीर वाले सुन्दर गणेश जी जीवित बालक बन गए ।
पार्वती जी अपने बालक को जीवित देखकर बड़ी प्रसन्न हुईं । प्यार से वे उसे गजानन कहने लगीं । शिवजी ने उन्हें अपने गणों का स्वामी बना दिया और गणेश नाम दिया ।
इस प्रकार सर्वप्रिय विघ्न-विनाशक गणेश जी का जन्म हुआ ।
गणेश चतुर्थी कैसे मनाई जाती है?
भारत में गणेश चतुर्थी त्योहार बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है । महाराष्ट्र में यह विशिष्ट उत्साह और उल्लास से मनाया जाता है । कहते हैं गणेश पूजन की शुरुआत छत्रपति महाराज शिवाजी ने चतुर्थी को करवा कर एक नई परम्परा का श्री गणेश आगाज़ किया था । कुछ लोगों का मानना है कि यह पहले भी होता था परन्तु शिवाजी ने एकजुटता का भाव महाराष्ट्र में पैदा करने के लिए इसको पुनर्जीवित किया था जिसे स्वाधीनता संग्राम के प्रसिद्ध सेनानी, लोकमान्य तिलक ने राष्ट्रभक्ति की भावना से 20वीं शताब्दी में ओत-प्रोत कर दिया था ।
महाराष्ट्र में दस दिनों तक चलने वाले इस त्योहार को गणेश उत्सव कहा जाता है । हर घर में गणपति स्थापित किए जाते हैं और अंतिम दिन इन मूर्तियों को एक जुलूस द्वारा समुद्र तक विसर्जन के लिए ले जाया जाता है ।

वस्तुतः त्योहार की तैयारियां 2 महीने पहले से ही होने लगती हैं । गणेश की सुन्दर और चित्ताकर्षक मूर्तियां बनाने और पंडालों को सजाने की कलाकारों में होड़ मच जाती है । इन मूर्तियों के आकार अंगूठे से लेकर विशाल पर्वत सदृश हुआ करते हैं ।
गणेश उत्सव के दौरान जीवन बेहद जीवन्त और रंगीन हो जाता है । घर-सड़क और दुकानों को मोहक ढंग से सजाया जाता है । खूब सफाई की जाती है तथा बंदनवार लटकाए जाते हैं ।
प्रथम दिन गणेश मूर्तियों की घरों में स्थापना की जाती है या अस्थायी पूजा-केन्द्रों तथा पण्डालों में गणपति बैठाए जाते हैं । मंदिरों में यह काम पूरे विधि-विधान से किया जाता है । पुजारी गण बाकायदा उनकी प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं । उसके पश्चात् षोडशोपचार (16 तरीकों से अभ्यर्थना करने का) संस्कार होता है तथा गणेश जी के सामने प्रिय पदार्थ – नारियल व गुड़ के बने मोदक, दूब, घास और गेंदे की मालाएं अर्पित की जाती हैं तथा मूर्ति के माथे पर चंदन व कुमकुम का टीका लगाया जाता है ।

ऋग्वेद से ऋचाएं तथा गणपति उपनिषद एवं गणेश स्तोत्र से श्लोकों आदि का जाप होता है । ये सारे कृत्य गणेश जी के अभिवादन में संपन्न होते हैं क्योंकि आज के दिन ही गणेश का आगमन होता है । कुछ लोग इस दिन व्रत रखते हैं और गणेश जी का स्वागत पूरी पवित्रता के साथ करते हैं ।
दस दिनों तक – भादप्रद चतुर्थी से अनन्त चतुर्दशी तक इसी प्रकार गणपति की पूजा-अर्चना होती रहती है । सुबह-शाम धूपबत्ती और अगरबत्ती जलाकर प्रतिमा के निकट का वातावरण शुद्ध रखा जाता है तथा दोनों वक्त आरती की जाती है । गणेश जी का प्रिय खाद्य मोदक (नारियल, गुड़, चावल के आटे, मेवा आदि से भरा लड्डू) भोग के रूप में अर्पित किया जाता है ।

ग्यारहवें दिन इन प्रतिमाओं का जल में विसर्जन किया जाता है । बाजे-गाजे, ढोल-नगाड़ों के साथ बड़े-बड़े जुलूसों के साथ इन प्रतिमाओं को जल में समर्पित किया जाता है । माना जाता है कि इस त्योहार के पश्चात गणेश जी कैलाश पर्वत पर जाकर विश्राम करते हैं । गणेश जी को विदा करने की इस घड़ी को गणेश विसर्जन भी कहा जाता है ।
नगाड़ों और वाद्यों के मध्य प्रतिमाओं के पीछे चलने वाले जन जोर-जोर से नारे लगाते हैं-“गणपति बप्पा मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ” तथा “मोरया रे—- बप्पा मोरया रे” की धुनों पर लोग नाचते-गाते अपने प्रिय देव को विदा करते हैं और अगले वर्ष उनके जल्दी आने की कामना भी करते हैं ।

यह हर्ष-उल्लास से परिपूर्ण त्योहार बच्चों के लिए विशेष रूप से प्रेरणादायक होता है । उनके लिए खास प्रतियोगिताएं होती हैं तथा मेले लगाएं जाते हैं । अपने घरों में गणपति स्थापना उनको बड़ा कौतुक पूर्ण एक हर्षदायक कृत्य लगता है ।
हर वर्ष गणेश जी का आगमन हमारे घरों को सुख-शांति एवं समृद्धि देता है तथा लोगों में आपसी सद्भाव एवं भाईचारे की भावना का संचार करता है । हमें यह त्योहार पूरी शुचिता, निष्ठा भक्ति एवं हर्षोल्लास के साथ मनाना चाहिए ।

