Summary: राजकुमार राव छा गए हैं 'मालिक' में लेकिन फिल्म कमजोर है
फिल्म में पैसा वसूल केवल राजकुमार का काम देखने से होता है वरना ये कहानी तो पचासों बार सुन चुके हैं...
Maalik Film Review: एक बात नई नहीं दिखेगी यहां… नए हैं तो बस राजुकमार राव। ‘मालिक‘ में आप वो सब देखेंगे जो आज तक किसी ना किसी गैंगस्टर फिल्म में देखते आए हैं। निर्देशक पुलकित सबसे ज्यादा इंप्रेस लगते हैं ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ से। कम से कम दस बार आपको अनुराग कश्यप की उस फिल्म की याद इसे देखते हुए आती है। गैंगस्टर सिनेमा बना रहे हैं तो राम गोपाल वर्मा से भी बच नहीं सकते। रामू की ‘शिवा’ को उन्होंने पसंद किया है। पति और पत्नी वाले सीन में तो साक्षात अमला और नागार्जुन यहां दिख रहे हैं। कई फिल्मों से गुजरते हुए ‘मालिक’ का सफर पूरा होता है तो ना खुश होते हैं, ना दुखी… बस ऐसा लगता है जैसे पुरानी फिल्मों का रिवीजन किया है।
राजकुमार राव हर बार अपने अभिनय से चौंकाते हैं और इसमें भी उन्होंने वही किया है। इस बार वह एक ऐसे आम आदमी के रोल में हैं, जो हालात के थपेड़ों में फंस कर माफिया बन जाता है। 1990 के दशक के इलाहाबाद को यहां देखना अच्छा लगता है। इस शहर में एक्शन और खून-खराबे से भरपूर है और कहानी भी पुरानी पटरियों पर लुढ़क रही है।
राजकुमार ही फिल्म की जान
राजकुमार राव का स्क्रीन प्रेजेंस जबरदस्त है। वे एक साधारण किसान के बेटे में भी उतने ही अच्छे हैं और गैंगस्टर बनकर तक कमाल कर जाते हैं। सौरभ शुक्ला और प्रसन्नजीत चटर्जी जैसे अद्भुत कलाकार स्क्रीन को जीवंत करते रहते हैं। सौरभ शुक्ला अपने चिर-परिचित अंदाज में हैं। गंभीरता में मजाक का सही अनुपात उन्हीं के पास है। सौरभ सचदेवा का होना डर बढ़ाता है। मानुषी छिल्लर की मौजूदगी फिल्म की भारी दुनिया में थोड़ी राहत देती है। मानुषी ने काम ठीक-ठाक कर लिया है। ऐसी फिल्मों में वो टिक सकती हैं। इतने अच्छे कलाकारों की भीड़ में भी वो नजर आती हैं, यह बड़ी बात है।
कहानी गायब है…
सबसे बड़ी कमी कहानी है। यह ‘सत्या’, ‘वास्तव’ जैसी फिल्मों से शुरू होती है और ना जाने कहां-कहां जाती है। कई सीन्स और डायलॉग्स देजावू महसूस होते हैं। स्क्रिप्ट कमजोर है और कई जगह कन्फ्यूज कर देती है। एक्शन सीन तेज हैं, लेकिन कहानी में कसावट नहीं ला पाते। फिल्म का फर्स्ट हाफ बिल्कुल बेकार है। दूसरे हिस्से में भी सिर्फ कुछ हिस्से ही पकड़ बना पाते हैं।
निर्देशक भूल गए अपना ही काम
पुलकित ने इससे पहले ‘बोस’ में राजकुमार राव के साथ बेहतरीन काम किया था, लेकिन इस बार वो जादू गायब है। पुलकित को बस इस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि वे माहौल बना देते हैं। उस जमाने के यूपी उन्होंने वैसे ही जिंदा किया जैसा प्रकाश झा जैसे निर्देशक करते हैं। अफसोस कि यह सब इस फिल्म के लिए काफी नहीं था। सचिन-जिगर का म्यूजिक औसत है और फिल्म को कुछ भी नहीं दे पाता। एक गाना आप याद नहीं रख सकते।
देखने जाएं या नहीं…
अगर आप राजकुमार राव के फैन हैं और उनका अलग अंदाज देखना चाहते हैं, तो ही इसे देखें। राजकुमार की ईमानदारी और मेहनत के लिए इसे देखना बनता है। यदि आप कहानी में कुछ नया ढूंढ रहे हैं, तो इसे भूल जाइए।
