Logout Review: बॉलीवुड और स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म खुद इस स्थिति में नहीं हैं कि किसी को डिजिटल लत से सावधान कर सकें, फिर भी ‘लॉगआउट’ एक कोशिश करती है। इसे एक गंभीर टेक्नोलॉजी पर बनी फिल्म की तरह नहीं, बल्कि एक मजेदार और कभी-कभी मजेदार थ्रिलर की तरह देखना ज्यादा अच्छा रहेगा। फिल्म का निर्देशन अमित गोलानी ने पौने दो घंटे तक स्क्रीन पर बांधने की कोशिश की लेकिन बिस्वपति सरकार के लिखे अंत को वो भी समेट नहीं पाए। इस फिल्म का एकमात्र हासिल बाबिल खान हैं। उनके लिए ही इसे देखा जा सकता है।

प्रत्युष (बाबिल खान) एक युवा कंटेंट क्रिएटर है जो अकेला एक बड़े शहर में रहता है। उसने यूट्यूब पर मजाकिया और बेहूदे स्केच वीडियो बनाकर अच्छी खासी पहचान बना ली है। जल्दी ही वो 10 मिलियन फॉलोअर्स के आंकड़े को छूने वाला है और इसी पर उसकी एक बड़ी ब्रांड डील भी टिकी है। एक रात प्रत्युष का फोन चोरी हो जाता है। वह अगली सुबह ब्लैकआउट की हालत में उठता है, उसे कुछ भी याद नहीं रहता। वह अपने बड़े और खाली फ्लैट में घूमता है। तभी उसका कंप्यूटर स्क्रीन झपकता है। एक ऐप के ज़रिए उससे एक लड़की या कहें लड़की की आवाज़ संपर्क करती है। वह आवाज़ शुरुआत में बहुत शांत और आदर से बात करती है, लेकिन धीरे-धीरे वह ज़रूरत से ज्यादा “प्यारी” हो जाती है। वह प्रत्युष से कहती है कि वह उसे “तुम” कहकर पुकारे… उसकी आवाज़ में एक डरावना एहसास छिपा होता है। अपना फोन और निजी डेटा वापस पाने की बेताबी में प्रत्युष उसे एक वन टाइम पासवर्ड दे देता है। और बस यहीं से सब कुछ हाथ से निकल जाता है।

इसे “स्क्रीनलाइफ थ्रिलर” कहा जा सकता है। हालांकि यह पूरी तरह उस कैटेगरी में नहीं आती। आमतौर पर स्क्रीनलाइफ फिल्मों में सारा एक्शन स्क्रीन के भीतर ही सीमित रहता है (जैसे फिल्में CTRL या LSD 2), लेकिन यहां कैमरा कुछ ज़्यादा आज़ादी से चलता है। एडिटिंग बहुत फ्लो में है, न ज़्यादा चकाचौंध, न सुस्त। फिल्म के मैसेज बेहद सीधा है- जैसे एक सीन में हम देखते हैं कि एक चूहा फंदे में फंस गया है, ये सीन डिजिटल ट्रैप को दिखाता है।

बीच-बीच में फिल्म में कुछ स्मार्ट और मजेदार पल आते हैं। एक शानदार सीन आपको डरा कर रख देता है। इस सीन में प्रत्युष, जो एकदम हाईटेक गैजेट्स से भरे फ्लैट में रहता है, एक मोबाइल नंबर को याद करने और उसे लैंडलाइन पर डायल करने की कोशिश करता है लेकिन कर नहीं पाता। याद है वो ज़माना जब लोगों को नंबर याद रखने पड़ते थे? वाकई यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि हमें अपने ही घर वालों के नंबर याद नहीं हैं क्योंकि उन्हें केवल नाम से डायल करने की आदत जो हो गई है।

बाबिल खान ने अब तक अपने सभी किरदारों में कुछ न कुछ चमक दिखाई है। वह अपनी उम्र और माहौल के किरदार निभाने में सबसे ज्यादा सहज लगते हैं। वह पैनिक, हताशा, गुस्सा और शंका जैसे भावों के बीच बहुत आसानी से शिफ्ट कर लेते हैं। फिल्म का अंत कुछ ज्यादा ही अजीब और नाटकीय है। यह एकदम “over the top” है। झूठी भावुकता से भरा और थोड़ी हंसी वाला भी। फिल्म का यह अंत थोड़ा भड़काऊ सा लगता है और ऐसा लगता है जैसे यह उस बात को उल्टा साबित कर रहा हो, जिससे यह फिल्म खुद शुरू हुई थी। फिल्म एक विचार की आलोचना करती है कि “लोगों का ध्यान किसी भी कीमत पर खींचो”, आखिर में उसका ही समर्थन करती नज़र आती है।

ढाई दशक से पत्रकारिता में हैं। दैनिक भास्कर, नई दुनिया और जागरण में कई वर्षों तक काम किया। हर हफ्ते 'पहले दिन पहले शो' का अगर कोई रिकॉर्ड होता तो शायद इनके नाम होता। 2001 से अभी तक यह क्रम जारी है और विभिन्न प्लेटफॉर्म के लिए फिल्म समीक्षा...