kookh ki hook
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Hindi Best Story: कालांतर ने इतिहास की पुनरावृत्ति की। दो-तीन वर्षों में वैवाहिक जीवन का तिलिस्मी चांद मंद पड़ गया। शनै:-शनै: संतान की चाहत ने कुसुम की खुशियों को ग्रसना शुरू कर दिया। एक-एक करके परिवारी जन व रिश्तेदार ताने कसने लगे।

‘वह इसी की पात्र है। उसके साथ यही होना चाहिए।’ रंजना फोन को डिस्कनेक्ट कर बुदबुदाने लगी। भोजन-पानी, चौकाबासन करे वह, सास-ससुर और घर के पुरुषों के सामने थाल सरकाकर मिनट भर में प्रशंसा की महफिल लूट लें जेठानियां। कपड़े-लत्ते, झाड़ू-बुहारे में हथेली घिस जाए उसकी, घर की कर्ताकाजियों में नाम हो जेठानियों का। सास-ससुर का हाथ-पैर दबाए वह, सगे-संबंधियों और पड़ोसियों के सम्मुख यशगान हो उनका। व्यक्ति जब स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारता है तो उसका परिणाम भी वही झेलेगा, दूसरा तो नहीं! कितना समझाया था कुसुम को कि इतना मत सह कि
परछाइयों को भी मुगालता हो जाए कि सामने वाला घूर (कूड़े-करकट का ढेर) है। इतना सरल न बन कि हवाएं भी सिर पर चपत लगाकर चली जाएं।

कितनी बार उससे कहा, वे लोग इतना प्रताड़ित करते हैं तुझको, विरोध क्यों नहीं दर्ज कराती? न हो तो महिला हेल्पलाइन में ही कम्पलेन कर दे, सारी मर्दानगी झड़ जाएगी उनकी! घरेलू हिंसा कानून इन्हीं प्रताड़नाओं के लिए ही तो बना है! लेकिन नहीं, उसका तो रट्टू तोते की भांति एक ही उत्तर रहता, क्या दीदी! कांटें चुभना नहीं छोड़ते तो फूल महकना थोड़े ही छोड़ देते हैं।

उसके दिमाग में तो महात्मा और बिच्छू की कहानी बसी थी। उसका कहना था कि यदि बिच्छू डंक मारने का अपना स्वभाव नहीं छोड़ने को तैयार है तो हम अपनी मनुष्यता क्यों तज दें? उसके मस्तिष्क में तो आदर्श भारतीय नारी बनने का कीड़ा घुसा था। लाख उसको समझाया कि अब
वह समय नहीं है। अब क्या कभी वह समय नहीं था? हर युग में उसी की जयकार हुई है जिसमें पौरुष था, जिसमें प्रतिकार लेने का सामर्थ्य था। समुद्र राम की तभी वंदना करता है, जब वह हाथों में
धनुष उठा लेते हैं। उससे पहले तो तीन दिन तक वे हाथ-पांव जोड़ते रहे किन्तु अहम् में डूबा वारिधि यही सोचता रहा कि उनके वश की बात कहां? वे तो पत्नीविरह में गए-गुजरे, कंकाल-शेष हैं।

‘हां, कुसुम हां! तुम मेरा कहना क्यों नहीं मानती?’ रंजना का हृदय पिहंक उठा। नत उनके सामने हुआ जाता है, जो उस नमनीयता का सम्मान करना जानते हैं। तुम…तुम किस बात से डरती हो? कमी? कमी तो सारे संसार में है। दिन में कमी है कि उसमें अंधेरा नहीं है। रात में कमी है कि उसमें उजाला नहीं है। पानी में ज्वलनशीलता नहीं है, आग में शीतलता नहीं है। तब भी, तब भी उनका महत्त्व है, उनका सम्मान है। किसी एक गुण के न होने पर वे अपने को हीन नहीं समझते।
फिर तुम क्यों अपने को अयोग्य समझती हो।

केवल संतति ही स्त्री को स्त्री नहीं बनाती। बिना फल के भी आलू सब्जियों का राजा है। गन्ना बिना फल के भी माधुर्य शिरोमणि है। और पारिजात? पारिजात तो फलहीनता के कारण ही चराचर में
पूज्यनीय है। तो संतान! संतान नारीत्व को विस्तार देते हैं लेकिन बिना उसके भी नारी का अस्तित्व है। विनोद बहुत देर से कपड़े पहनकर डाइनिंग रूम में तैयार बैठा था। उकताकर बोला, ‘अजी, चाय है कि बीरबल की खिचड़ी हो गई, पकती ही नहीं! उसकी आवाज सुनकर रंजना का विचार-प्रवाह भंग हो गया। रसोईघर में बहुत देर से केतली में चाय पक रही थी। वह फोन रिसीव कर सीढ़ियों पर चली गई थी। हड़बड़ाते हुए दौड़कर आई और कप में चाय छानने लगी, खल्…खल्…खल्… विनोद चाय का प्याला उठाकर चाय पीने लगा, सुड़ुप…सुड़ुप! ‘क्या हुआ? किसका फोन था? चाय का घूंट लेते हुए उसने पूछा।
‘मम्मी का। वही कुसुम के ससुराल वाले उसको फिर से प्रताड़ित कर रहे हैं।’ ‘पापी हैं साले! मैंने तो विवाह के पहले ही उनकी सीरत भांप ली थी। मैंने मना… रंजना ने एक ऊष्ण दृष्टि उसके चेहरे पर
डाली। चाय के चक्कर में पहले से ही ऑफिस के लिए देर हो रही थी, इसलिए बात अधूरी छोड़कर विनोद चुपचाप बाहर निकल गया।रंजना के हिस्से की चाय बाकी थी। कप उठाकर उसने होठों से
लगाया किन्तु दो घूंट सुड़कते ही उसका मस्तिष्क विचार के दूसरे भंवर में डूबने- उतराने लगा।
कुसुम करे भी तो क्या? कहना आसान है लेकिन पुरातन से बंधी-बंधाई मर्यादाओं से बाहर निकलना इतना सरल भी तो नहीं है। ससुराल से वह पीहर चली जाए तो क्या उसकी वंध्यता का कलंक धुल जाएगा! क्या वहां भावजें, अड़ोसीपड़ोसी, रिश्तेदार उस पर ताना नहीं कसेंगे? मात्र स्थान बदलने से सोच की संस्कृति तो नहीं बदल जाती। मस्तिष्क तो सबका एक ही पूर्वज से उत्पन्न हुआ है। सोच का उद्गम तो सबमें, सब जगह एक ही है। बस अंतर है तो अपने और पराये का। नियमों अथवा मान्यताओं से यदि किसी स्वजन का अहित होता है, उस क्षण व्यक्ति क्रांतिकारी सोच वाला हो जाता है।
परंतु स्वजनों से आंख हटते ही विचारों को फिर वही रूढ़ियां जकड़ लेती हैं। अपनी संस्कृति और परम्पराओं के नाम पर हम पुन: उसी संकीर्णता से ग्रसित हो जाते हैं।

पीहर चली जाए कुसुम तो क्या पापा में सामर्थ्य है सुकून से प्राण त्यागने का? भावजों के उलाहनों से मम्मी उसे महफूज रख पाने में समर्थ हैं? कुसुम को मायके में रख लेने से भैया की ऊंची नाक न कट जाएगी? नहीं…नहीं! वहां तो अधिकारों का अगला महाभारत छिड़ जाएगा, मर्यादाओं की चूलें हिलने लगेंगी, जिसको नियंत्रित करना मम्मी-पापा, भैया-भाभी किसी किसी के वश में नहीं होगा।
चाय समाप्त कर रंजना ने कप ले जाकर वॉश बेसिन पर रखा। वहां पहले से और भी जूठे बरतन पड़े थे। उसने विम उठाया और सारा क्रोध, सारी असमर्थता उन बेजान धातुओं पर रगड़कर निकालने
लगी। कुसुम का विचार एक बार फिर कौंध गया मस्तिष्क में।

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जीवन नरक हो गया बेचारी का। समूचा सुसराल सम्राटों की भांति आज्ञा देता है और वह चेरी की तरह दौड़-दौड़कर सबका काज निपटाती है। सुबह अखबार उठाते ही ससुर चीखते हैं,
‘कुसुम, मेरी चाय! कुसुम सारे काम छोड़कर दौड़ती है, ‘आई पापा।
‘मेरी दवा? कहां मर गई करमजली? सास फुंकारती हैं। ‘अभी मम्मी…! वह फिर अपना काम
छोड़ देती है।

‘महारानी, टिफिन? बच्चों को स्कूल जाना है, मटरगश्ती बाद में कर लेना। जेठानियों का जुबानी कोड़ा फड़कता है। वह तवे पर नई रोटी पलटकर, दूसरे पर रोबोट की तरह घी चभोड़ते हुई मुस्कराती है, ‘बस दीदी, तैयार हो गया। कितनी दुर्भाग्यशाली है कुसुम! शायद दु:ख झेलने के लिए ही पैदा हुई है वह। जन्म हुआ तो पापा वैश्विक मंदी के शिकार हो गए और उन्हें अपनी नौकरी गंवानी पड़ी। कुछ लोगों ने दबे जुबान इसका दोष उस पर मढ़ा। विवाह योग्य हुई। बड़ी मुश्किल से एक जगह विवाह तय हुआ। अंत में लड़का पीसीएस में सेलेक्ट हो गया, फिर वह लड़के के अयोग्य ठहरा दी गई। बाद में
पापा के बहुत पापड़ बेलने के उपरांत इस नीच परिवार में फंस गई। प्रारंभ में सब ठीक रहा। मम्मी-पापा लम्बे समय से दबे कंधों को खाली कर शांतिपूर्वक सामाजिक गर्व की अनुभूति करने में खो गए। कालांतर ने इतिहास की पुनरावृत्ति की। दो-तीन वर्षों में वैवाहिक जीवन का तिलिस्मी चांद मंद पड़ गया। शनै:-शनै: संतान की चाहत ने कुसुम की खुशियों को ग्रसना शुरू कर दिया। एक-एक करके परिवारी जन व रिश्तेदार ताने कसने लगे। ‘बहू, कोई आगे की पढ़ाई-लिखाई की तैयारी कर रही है? मायके आई बुआ सास ने एक दिन कुसुम से पूछा।

अपनी सास का निशाना समझकर कुसुम तड़पकर रह गई। उस दिन से ननद, जेठानियां सब खुलकर मैदान में आ गईं। सभी ने कुसुम को उलाहने देने शुरू कर दिए।

‘नहीं तो। क्यों? वह आश्चर्य बोली। ‘फिर तो बच्चा हो जाना चाहिए। तीन वर्ष से अधिक हो गए विवाह को। कुसुम से पहले ही उसकी सास बोल उठीं, ‘यह क्या बच्चा जनेगी दीदी! हर वृक्ष पर फूल थोड़े ही लगते हैं! अपनी सास का निशाना समझकर कुसुम तड़पकर रह गई। उस दिन से ननद, जेठानियां सब खुलकर मैदान में आ गईं। सभी ने कुसुम को उलाहने देने शुरू कर दिए। बांझ, बन्ध्या, निपूती जाने कितनी उपमाएं उसका सत्कार करने लगीं। अपने बच्चों को सभी उससे दूर रखनें लगीं। एक दिन कुसुम जब बड़ी जेठानी के लड़के को भोजन करा रही थी। दरवाजे के उस पार छोटी जेठानी ने उनसे कहा, ‘दीदी बच्चों को उसके हाथ का खाने से मना कर दो! पता नहीं कब उसके मन में पाप बस जाए। ‘हां बहन, तुम सत्य कहती हो। बिल्ली तो यही चाहती है कि गुसैंया अंधी हों ताकि हम मिल में खाए। जेठानियों का वार्तालाप सुनकर कुसुम बहुत रोई। शाम को सारी बात उसने पति को बताया तो उल्टा उन्होंने उसको ही बांझिन कहकर मारा-पीटा।

‘हाय! मेरी बहन। बड़ी भोली है तू। कैसे हत्यारों के हत्थे चढ़ गई! रंजना जल से बाहर पड़ी मछली की भांति छटपटाने लगी। कितनी सहजता से सारी पीड़ा पी लेती है कुसुम! कितना सरल है दर्शन उसका! कितनी आसानी से उस दिन स्त्रियों की दुर्दशा के लिए ब्रह्मï को दोषमुक्त कर दिया था उसने। मायके में सहेलियों की महफिल थी। वे दोनों बहनें भी जुटी थीं। स्त्री-पुरुष के गुण-अवगुण, समानता-असमानता पर चर्चा हो रही थी। होते-होते स्त्री-पुरुष के सुख-दु:ख पर चर्चा की सुई अटक गई। ‘पुरुष की तुलना में स्त्री को अधिक पीड़ा झेलनी पड़ती है।

‘और नहीं तो क्या! माहवारी, गर्भ, प्रसव आदि कितने भयानक और मृत्यु तुल्य दर्द केवल हम स्त्रियों को झेलने पड़ते हैं। ‘परमपिता ने स्वयं ही महिलाओं के साथ अन्याय किया है। सब जगह से घूम-फिरकर अंत में सखियां ब्रह्मï को कोसने लगीं। तभी बड़ी विनम्रता से कुसुम ने कहा, ‘विधाता दोषी नहीं हैं। सभी उसका मुंह ताकने लगीं। वह आगे बोली, ‘ब्रह्मï ने पहले नर और मादा बनाया। फिर सुख और दु:ख बनाया। सुख दोनों में बराबर बांट दिया। रह गया दु:ख! सोचा कि शायद इसे भी स्त्री-पुरुष बराबरी से बांट लेंगे। बाद में पुरुषों ने इस साझेदारी से मना कर दिया। परमपिता के सामने दुविधा खड़ी हो गई। उन्होंने याचक दृष्टि लिए स्त्रियों की ओर देखा। स्त्रियों ने पुरुषों के हिस्से की भी पीड़ा स्वीकार कर ली। इसलिए हम विधाता को दोषी नहीं कह सकते। सहेलियों ने प्रतिवाद किया। यह मनगढंत कहानी है। इसे सही मान लें तो भी विधाता ने धोखा दिया है हमें क्योंकि वे भी थे तो पुरुष ही। उन्होंने चालाकी दिखलाई, मर्दों की तरह! चापलूसी में दो-चार शब्द सहनशीलता की प्रशंसा में कहके, स्त्रियों को सदा के लिए अपने जाल में फांस लिया।
वह खिलखिलाकर हंसने लगी। हंसती हुई बोली, ‘यार जिस बात पर अपना कोई नियंत्रण नहीं, उस पर सोचने या कोसने से क्या लाभ! सखियां उसकी प्रत्युत्पन्नमति और सहृदयता की कायल हो गईं।
रंजना ने वॉश-बेसिन से धो-पोछकर बर्तन किचन में रखा। अमूमन इस समय तक वह खा लेती थी, किन्तु आज उसका मन न हुआ। बहन है न सगी! मिलहिं न जगत सहोदर…

मन हल्का करने के लिए वह सीढ़ियों से चढ़कर बालकनी में चली गई। वहां भी मन शान्त न हुआ तो जाकर बेड पर चादर से मुंह मूंदकर लेट गई। परंतु कुसुम पर हुए अत्याचार ने आज उसका पीछा नहीं छोड़ा।

संकष्टी चतुर्थी के दिन कैसे उन लोगों ने उसको रुलाया था। सायं गोधूलि के उपरांत सास और जेठानियां आंगन में तिल भून रही थीं। भोजन तैयार करके, बच्चों को खिलाने के बाद कुसुम भी उनके पास पहुंच गई। जेठानियों को गरम तिल में गुड़ को मसलती हुई देखकर वह भी हथेलियों
से गुड़ मसलकर उसके चूरे बनाने लगी। इतने में खपरी से भूजे हुए तिल का घान डालने के लिए सास उधर मुड़ीं। उसके बाद आग बबूला होकर वह ऐसा गरजीं कि एक चौथाई कच्चे रह गए तिल स्वर सुनकर ही फट गए, ‘हां…
हटा हाथ, हाथ हटा! बांझ कहीं की! तुझ अपशकुन को शुभ काज में किसने बुलाया था। इतना कहकर वे जेठानियों को डांटने लगी। बड़ी जेठानी उस दिन उनकी डांट को प्रसाद समझकर बोली, ‘मैं तो पहले ही रोकना चाहती थी कि अपना पतित हाथ डालकर पुत्रवतियों के पवित्र तिल को
अपवित्र न करो, किन्तु आपकी नाराजगी के डर से कुछ न बोली।

सास ने फिर उसको ललकारा, ‘कान खोलकर सुन ले मनहूस! आइंदा से हल षष्ठी और संकष्टी चतुर्थी के दिन तू वहां अपनी बंजर सूरत मत दिखाना। कुसुम रोती हुई अपने कमरे में चली गई। रात को उसने पति से डॉक्टर को दिखलाने का अनुरोध किया। किन्तु सपोला सॢपणी से कम न था। उसने
उसको झिटक दिया। बेल्ट फटकारते हुए बोला, ‘डॉक्टर को दिखाने से अमरबेल में फल नहीं आते। गोस्वामी जी ने कहा है, फूलहिं फलहिं न बेंत, जदपि सुधा बरसहिं जलद।

केवल संतति ही स्त्री को स्त्री नहीं बनाती। बिना फल के भी आलू सब्जियों का राजा है। गन्ना
बिना फल के भी माधुर्य शिरोमणि है। और पारिजात? पारिजात तो फलहीनता के कारण ही चराचर में पूज्यनीय है। तो संतान! संतान नारीत्व को विस्तार देते हैं लेकिन बिना उसके भी नारी का अस्तित्व है।

कुसुम तन और मन के घावों को छिपाती हुई सबेरे मायके चली गई। वहां वह आंसुओं को पीकर मुस्कराने लगी। कोई कुछ न जान पाया। आमतौर पर दो दिन भी पीहर में न रहने देने वाले ससुराल से जब सप्ताह बीत जाने पर भी कोई उसको लेने नहीं आया, तब मां का मन छिनका। उनको शंका हुई तो उन्होंने उसे कुरेदकर पूछा। मां का दुलार पाकर कुसुम का बोझ रिस गया। उसने रो-रोकर सारी घटना मां से बता दी। मां ने उसके आंसू पोछकर डॉक्टर को दिखाया। डॉक्टर ने तीन-चार दिनों तक जांच-पड़ताल किया। सारा रिजल्ट नेगेटिव निकला। डॉक्टर ने पति में कमी की संभावना जताकर अगली बार उन्हें भी साथ लाने को कहा।

पंद्रह दिन और बीते। लौंडी पास से हटी तो बेगम को जुकाम हो गया। सास बीमार हो गई। ससुर के हस्तक्षेप से कुसुम ससुराल लौट गई। सेवा-सुश्रुषा पाकर सूखी लता पुन: हरी हो गई। मां को स्वस्थ देखकर, पति का मन उसके प्रति कुछ साफ प्रतीत हुआ। उचित अवसर जानकर पति से कल उसने एक बार पुन: डॉक्टर को दिखलाने को कह दिया। बस… इस बात पर पति का नाकाम पौरुष जाग उठा। बूढ़ी घोड़ी पर लाल लगाम लगाना, दीनता छिपाने का समाज का सबसे पुराना नुस्खा है। पति से बच्चा तो हो नहीं पा रहा था किन्तु औरत को पीटने की कूबत थी उसमें। लाठी में हनकर सारी
हताशा उसने कुसुम पर जड़ दिया।

‘साली, मुझे नपुंसक समझती है! नामर्द मैं नहीं तू…तू बांझ है।’ कसाई के प्रहार से कुसुम के अंग-प्रत्यंग से लहू रिसने लगा। सिर लहुलुहान हो गया उसका।
‘मन करता है, हरामी का मांस नोच डालूं।’ लेटी हुई रंजना के दोनों जबड़े भिंच गए। वह दूसरी करवट हो गई।

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अचानक रंजना का मोबाइल बजा। जाकर जेहि पर सत्य सनेहू…स्क्रीन पर कुसुम का ही नम्बर फ्लैश हो रहा था। उसने झटपट फोन रिसीव किया। ‘हेलो, दीदी!’
‘हां, बोल कुसुम! ‘मैं इनके साथ नहीं रहूंगी।
‘अच्छा! तलाक ले रही है? मैंने तो पहले ही कहा था, ऐसे जालिमों से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहिए।
‘नहीं, मैं कोई तलाक नहीं ले रही। ‘क्या? विस्मय से रंजना का मुंह फैल गया।

‘मैं अलग रहूंगी किन्तु तलाक नहीं लूंगी। तलाक देकर मुझे इस भेड़िये को दूसरा विवाह करने की स्वतंत्रता नहीं देनी है। यह किसी और लड़की का जीवन बर्बाद करे, ऐसा मैं मरते दम तक नहीं
होने दूंगी। मैं दूर से ही इसकी छाती पर मूंग दलूंगी। कुसुम का निश्चय सुनकर रंजना का खुला हुआ मुंह, और खुल गया।