गृहलक्ष्मी पारिवारिक पत्रिका
Author Views: गृहलक्ष्मी को मधुर स्नेह। सबसे पहले तो कहना चाहूंगी कि बीते जमाने की बात कही जाने वाली चिठ्ठी की विरासत को अक्षुण्ण बनाये रखने हेतु गृहलक्ष्मी नि:सन्देह प्रशंसा की पात्र है। आज के तकनीकी युग में जहां चिठ्ठी की महत्ता लगभग लुप्त प्राय: है वहां पत्रिका के माध्यम से उसे सामाजिक सरोकार देना किसी भी स्तरीय पत्रिका का अनिवार्य कर्त्तव्य है, यहां गृहलक्ष्मी खरी उतरी है। आज ये ही माध्यम बनी है कि मैं अपनी भावनाएं साझा कर पा रही हूं। पत्रिका की बात कहूं तो गृहलक्ष्मी ने एक पारिवारिक पत्रिका के रूप में अपने आपको बीते कई दशकों से स्थापित किया
हुआ है। गृहलक्ष्मी मुख्य रूप से महिलाओं की चर्चित एवंं प्रिय पत्रिका है जो अपने-आप में जाने कितने ही पहलुओं को समेटे हुए हुए है और इस माध्यम से आधी-आबादी कही जाने वाली महिलाओं का उचित दिशा-निर्देशन कर उन्हें सशक्त बना रही है। पत्रिका प्रारंभ करने से कहीं अधिक आवश्यक होता है, उसे स्थायित्व प्रदान करना। इस पुनीत प्रयास में गृहलक्ष्मी शत-प्रतिशत सफल हो सकी है और इस सफलता का सेहरा इसके संपादक के अनुभवपरक दिशा-निर्देशन में अकूत परिश्रम कर रही पूरी टीम को जाता है। मैं हृदयांगन से पूरी टीम का अभिनंदन करती हूं और शुभकामनायें प्रेषित करती हूं कि गृहलक्ष्मी यूं ही हर घर-परिवार की दुलारी बनी रहे और
महिलाओं का हाथ थामे महिला सशक्तिकरण के महत्वपूर्ण प्रयास में कदमताल कर सके।
- कोमल सोनी
उदयपुर (राजस्थान)
बचपन को सरल ही बनाए रखें
गृहलक्ष्मी का मई इशू ‘पेरेंटिंग स्पेशल’ पढ़ते वक्त एक विचार मन में आया- पहले जहां मां-बाप के इतने सारे बच्चे हुआ करते थे जबकि इतनी सुख सुविधा भी उपलब्ध नहीं थी, वहीं आज एक या दो बच्चे ही 10 के बराबर होते हैं। कहीं हमने पेरेंटिंग को कॉम्प्लिकेटेड तो नहीं कर दिया है। आज
पेरेंट्स बच्चों को इतने सुख सुविधा देते हैं कि वह छोटी-छोटी चीजों में आनंद लेना ही भूल
जाते हैं। बच्चों को जितना हो सके सरल बनाएंगे वह उतने ही संतुष्ट रहेंगे।
लक्ष्मी आहूजा गांधीनगर, कोल्हापुर
अपनी सी आती है ‘गृहलक्ष्मी’
मन मुग्ध हो, प्रसन्न हो, जब आ जाए ‘गृहलक्ष्मी’ मां की ममता सी, बहनों की लाड सी, सखियों के सुझाव सी हमारी प्यारी सी ‘गृहलक्ष्मी।
दाम्पत्य सुख की बात हो या रिश्तों की बगिया हर रिश्ते महकाने आती है ‘गृहलक्ष्मी।’
लजीज पकवान हो या आए मेहमान हो हर घड़ी काम आए ‘गृहलक्ष्मी।
करियर की बात हो, आधुनिकता की सौगात हो सुगृहणी बनाने को आती है ‘गृहलक्ष्मी।
सुंदर, सफल, जीवनशैली सिखाने को, सूने अंतर्मन को बहलाने को, हर बार अपनी सी आती है ‘गृहलक्ष्मी। हर पाठिका समझती है खुद को खुश किस्मत, बनती है घर की गृहलक्ष्मी, क्यों कि उसे
परफेक्ट बनाने हर महीने आती है ‘गृहलक्ष्मी।
- डॉ. श्वेता श्रीवास्तव
मिर्जापुर, (उ.प्र.)
हिंदी पर गर्व है
क्या बताऊं तुम मुझे कितना भाती हो जैसे मां भाती थी ना वैसे ही, जब से बोलना सीखा तब से मेरी जुबान पर बस तुम ही तुम हो, ना जाने कैसा रिश्ता है तुमसे मेरा कि तुम्हारे अलावा कोई और भाषा मुझे ना अच्छे से आई ना भायी है, बचपन से लेकर आज तक बस हिंदी ही मेरी जुबान पर समायी है, भले ही नई पीढ़ी ने अंग्रेजी को ज्यादा महत्व दे दिया हो लेकिन तुमसे हमारी जड़ें जुड़ी हुई है, इसलिए तुम्हारी जगह कोई और भाषा नहीं ले सकती, जैसे मां की जगह कोई और नहीं ले सकता वैसे ही तुम्हारी जगह भी कोई और नहीं ले सकता। तुम हमेशा हमारे दिलों-दिमाग में मां की तरह समाए रहोगी, हिंदी पर गर्व है हमें आने वाले दिनों में तुम केवल राजभाषा ही नहीं राष्ट्रभाषा
कहलाओगी।
- लता उप्रेती
प्रयागराज (उ.प्र.)
आज का इंसान

माना कि इंसान को समय के साथ चलना चाहिए, बढ़ना चाहिए, पर आज का इंसान चल नहीं रहा, सिर्फ भाग रहा है, दौड़ लगा रहा है, आधुनिकता की दौड़ में, दिखावे की दौड़ में और इस दौड़ में वो अपना सुकून, अपना अस्तित्व, अपना सब कुछ पीछे छोड़ता चला जा रहा है। और जब वो दौड़ते-दौड़ते थक कर रुकता है, तो तब तक उसके हाथों से बंद मुठी की रेत की तरह सब कुछ निकल
चुका होता है, जो चाह कर भी उसे वापस नहीं पा सकता। उसी अनेकों बीमारी, चिंताएं चारों तरफ से घेर लेती है और जो साधन, रुपये पैसे उसने जीवन भर कमाए हैं वह सभी इन्हीं सब पर खर्च होना शुरू हो जाते हैं। जीवन का पहिया आकर उसी जगह रुक जाता है, जहां से हम शुरुआत करते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि अब हम वापस उस दौड़ में शामिल नहीं हो पाते। मेरा मानना है कि जिंदगी में आगे बढ़ना जरूरी है लेकिन उससे भी कहीं ज्यादा जरूरी है जिंदगी को सुकून और संतुष्टि के साथ हर पल को खुशी के साथ महसूस करते हुए जीना। देखना एक दिन हमारे हिस्से का आसमान
हमारी खुशियां हमें स्वयं ही मिल जायेगी।
ना चल इतना तेज मुसाफिर,
दो पल तो सांस ले।
सांस ले तू दो पल यहां पर,
अगल-बगल में झांक ले।
खूबसूरत बहुत जिंदगी,
बस नजर का फेर है,
फेर है बस नजर का,
बस तेरे एक नजरिये की देर है।
- रीना कंसल
खुर्जा-बुलंदशहर (उ.प्र.)
पुरस्कृत पत्र
कोमल सोनी, उदयपुर (राजस्थान)
