Rehmat Chacha Ka Lattu
Rehmat Chacha Ka Lattu

Kids story in hindi: काली-ऊदी बदलियों वाली शाम थी। बड़ा ही खुशनुमा मौसम। क्या मस्त हवा चल रही थी! जैसे दुनिया के सारे बच्चों को घरों से निकालकर खेल के मैदान में उछाल देने के लिए चली हो। कुक्कू ने होमवर्क पूरा करने के बाद घर की चहारदीवारी के ऊपर से गरदन उचकाकर देखा, सामने वाला मैदान एकदम गुलजार था। मोहल्ले के बच्चों की पूरी सेना जमा हो चुकी थी। और खूब हो-हल्ला हो रहा था। एक तरफ गेंदतड़ी का जोश था, दूसरी ओर कबड्डी-कबड्डी का शोर।

मगर उसका ध्यान तो कहीं और था। और लो, एक कोने में उसे नजर आ गए उसके मनपसंद लट्टू और चकई। उसके दिल-दिमाग में कुछ दिनों से बस लट्टू और चकई ही छाए हुए थे। मैदान के एक कोने में अपना नीले रंग का लट्टू नचाता मोहना था और उसका दोस्त आशु, जिससे सब मटकन्ना कहते थे। इसलिए कि अपनी गरदन वह हमेशा हिलाता रहता था। खासकर मोहना का लट्टू जब बिजली की तरह तेजी से चक्कर पर चक्कर काटता तो आशु की गरदन भी उसी तरह तेजी से मटकने लगती थी।

इस पर आसपास खड़े बच्चे हँसकर कहते, “ओ रे मटकन्ने! लट्टू चला… गरदन नहीं!” पर आशु को तो मोहना के लट्टू ने ही लट्टू कर लिया था। उसी का कमाल देख-देखकर उसकी गरदन खुद-ब-खुद नाचने लगती।

इधर कुक्कू को भी नया-नया शौक चढ़ा था लट्टू नचाने का। पर अभी हाथ तो सधा नहीं था। एक-दो दोस्तों से जरा सी देर के लिए लट्टू या चकई लेकर उसने भी थोड़ा दिल बहला लिया था। पर इसमें क्या मजा आता? अब उसने सोच लिया था कि ऐसे नहीं। अब तो अपना लट्टू लेकर ही चलाना होगा। तब आएगा मजा।

उसी समय वह दौड़ा-दौड़ा मम्मी के पास गया। बोला, “मम्मी…मम्मी, बाहर सब बच्चे लट्टू चला रहे हैं। मुझे भी लट्टू खरीदकर दो ना।”

मम्मी किसी काम में लगी थीं। बोलीं, “कुक्कू, ले ये पैसे। जा, रहमत चाचा की दुकान से खरीद ला।”

कुक्कू ने गिने, पूरे आठ आने। वाह, इतने में तो खूब बढ़िया लट्टू आएगा! वह दौड़ा-दौड़ा गया। रहमत चाचा की दुकान पर जाकर बोला, “चाचा, चाचा, जल्दी से एक अच्छा सा, प्यारा-सा लट्टू दे दो। लो ये पैसे।”

रहमत चाचा की दुकान पर उस समय काफी भीड़ थी। बिसातखाने की दुकान थी उनकी, जिसमें टीन के कनस्तर, संदूक, बरतन, कपड़े से लेकर बच्चों के खेलने के गुट्टे, गुड्डे-गुड़िया के छोटे-छोटे बरतन, खिलौने और रोल्ड गोल्ड के जेवर तक सब कुछ मिल जाता था। किस्म-किस्म की चीजें, किस्म-किस्म के ग्राहक। बच्चे भी बड़े भी। औरतें, आदमी, बूढ़े सभी। पर कितनी भी भीड़ हो, बच्चों की बात वे कतई अनसुनी न करते थे। बोले, “देखो कुक्कू, सामने रंग-बिरंगे लट्टू पड़े हैं, छोटे-बड़े हर साइज के। तुम अपनी पसंद का छाँट लो।”

कुक्कू ने देखे, लाल, पीले, हरे, गुलाबी, नीले, फिरोजी किस्म-किस्म के लट्टू। कुछ बड़े, कुछ छोटे। एक-दो पर तो डिजाइन भी बने थे। उसे लगा, हर लट्टू हाथ उठाकर बुला रहा है, “मुझे लेना कुक्कू… मुझे! देखो न, मैं कितना अच्छा हूँ। तुमसे मेरी दोस्ती खूब जमेगी।”

कुक्कू को हँसी आ गई। हँसते-हँसते बोला, “ओह, मेरे कितने सारे दोस्त! पर मेरे पास इतने पैसे कहाँ हैं? आठ आने में तो बस एक ही लट्टू आ सकता है।”

उसने लाल रंग का एक बड़ा-सा लट्टू पसंद किया। बोला, “रहमत चाचा, मैं यह लूँगा।”

रहमत चाचा बोले, “ठीक है कुक्कू, थोड़ा इंतजार करो। मैं इसे अभी तैयार करके देता हूँ।”

रहमत चाचा ने दो-एक ग्राहक जल्दी-जल्दी निबटाए। फिर दुकान के चबूतरे से उतरकर नीचे आए, जहाँ टीन का लट्टुओं वाला बड़ा सा टोकरा रखा हुआ था। उन्होंने कुक्कू के हाथ से लट्टू लिया। उसे उल्टा करके, एक पत्थर पर रखकर धीरे से कील ठोंकी। फिर उस कील की टोपी काटकर उस सिरे को खूब नुकीला किया। इसके बाद लपककर अंदर गए। बढ़िया सी सफेद सूतली निकालकर लाए। सूतली लपेटकर उन्होंने लट्टू को चलाया तो लट्टू ऐसे नाचने लगा, मानो उसमें बिजली भर गई हो और अब वह कभी रुकेगा ही नहीं।

कुक्कू का जी खुश हो गया, “वव्वोह…!” रहमत चाचा वहाँ न होते तो वह सचमुच तालियाँ बजाकर नाचने लगता। कुछ देर बाद लट्टू थमा तो चाचा बोले, “कुक्कू, अब तुम खुद चलाकर देख लो।”

कुक्कू ने कसकर सूतली लपेटी और लट्टू चलाया। मगर लट्टू सधा नहीं, एक ओर जा पड़ा। रहमत चाचा हँसे। बोले, “सीखना पड़ेगा, कुक्कू। ऐसे थोड़े ही सधेगा!”

रहमत चाचा ने फिर दो-तीन बार लट्टू चलाकर दिखाया। कुक्कू को सिखाना भी चाहा। मगर कुक्कू परेशान, उससे लट्टू सध ही नहीं रहा था। शर्मिंदा होकर बोला, “रहने दो, चाचा। घर जाकर बार- बार कोशिश करूँगा। कभी तो चलेगा।”

रहमत चाचा एक पल के लिए सोच में पड़ गए। फिर पूछा, “अच्छा कुक्कू, सच्ची बताओ, तुमने पहले कभी नहीं चलाया लट्टू?”

“नहीं चाचा!” कुक्कू बोला, “सीखने के लिए ही तो ले रहा हूँ।”

तभी रहमत चाचा को एक तरकीब सूझ गई। बोले, “कुक्कू, मेरी मानो तो यह लट्टू अभी छोड़ो, चकई ले जाओ। यह आसानी से तुमसे सध जाएगी, गिरेगी नहीं। चकई सीख लो तो कुछ दिन बाद लट्टू चलाना भी सीख जाओगे।”

कुक्कू को बात जँच गई। उसने चकई वाले टोकरे में छाँट-बीन की और पीले रंग की एक चकई पसंद कर ली। गोल-गोल चकई। उसकी टिलटिल गुड़िया के गोल-गोल फ्रॉक की तरह फैली हुई। बोला, “ठीक है रहमत चाचा, मैं यह चकई ले लेता हूँ।”

रहमत चाचा अपनी काली काली दाढ़ी-मूँछों में मुसकराए। चेहरे पर तृप्ति भरा सुख। कुक्कू का पहली बार ध्यान गया, सिर एकदम खल्वाट था उनका। मगर इसके बावजूद अपनी काली-काली दाढ़ी-मूँछ में वे क्या खूब जमते थे। और बच्चों से बात करते समय तो उनका पूरा शरीर बोलता हुआ लगता था। लगता था, प्यार उनके अंदर घुल गया है।

उन्होंने चकई में कील ठोंककर उसे तैयार किया। डोरी लपेटकर उसे खूब तेजी से चलाकर दिखाया। चकई खूब मजे में चलने लगी। चलने क्या, पूरी मस्ती में नाचने लगी। वह ऊँची कम, चौड़ी ज्यादा थी। इसलिए मजे से चलती थी, गिरती न थी। कुक्कू ने चकई चलाई तो उससे भी बड़े मजे में चल गई। रहमत चाचा से वह सुंदर चकई लेकर कुक्कू उछलता-कूदता घर आ गया।

*

मैदान में अब हलका अँधेरा उतर आया था। पर बच्चों का जोश तो बिल्कुल वैसा ही था। कुक्कू ने मोहना और आशु को अपनी चकई दिखाई। बोला, “मोहना, तुम लट्टू चलाओ, मैं चकई। मेरी चकई तुम्हें हरा देगी।”

पहली बार तो कुक्कू की चकई ही हारी। पर फिर उसने कमाल दिखाए तो मोहना बोला, “अरे, वाह रे कुक्कू…!”

कुक्कू हँसा। बोला, “मेरा नहीं, रहमत चाचा का कमाल है। उन्होंने मुझे ऐसी चकई बनाकर दी है, जो सबसे अनोखी है।”

चलाते-चलाते कुक्कू का हाथ इतना सध गया कि एक दिन मोहना का लट्टू लेकर उसने चलाया तो लट्टू खूब बढ़िया चलने लगा। फिर तो उसने मोहना का लट्टू बार-बार चलाकर देखा। मम्मी से पैसे लेकर दौड़ा-दौड़ा गया रहमत चाचा के पास। बोला, “चाचा… चाचा, मुझे लट्टू दो। वही मेरा लाल-लाल लट्टू।”

रहमत चाचा ने वाकई उसका लाल लट्टू सँभालकर रखा था। हँसकर बोले, “मुझे पता था…मुझे पता था कुक्कू, तुम यह लट्टू लेने जरूर आओगे।”

रहमत चाचा की हँसी मीठी थी और प्यार भरी। उन्होंने कुक्कू को अंदर से वही लाल लट्टू निकालकर दिया तो कुक्कू इतना खुश हो गया मानो दुनिया का सबसे बड़ा खजाना उसे मिल गया हो।

कुक्कू नाचता-नाचता घर आया। अब तो रात-दिन उसका एक ही काम था, कभी चकई चलाता, कभी लट्टू। अकसर सपनों में भी वह लट्टू ही चला रहा होता और उसके मुँह से ‘वो जीता’ की आवाज सुनकर मम्मी चौंक जाती।

कुछ दिन बाद शहर के खूब बड़े वाले बाबा खजानसिंह पार्क में लट्टू चलाने की प्रतियोगिता हुई, तो उसमें मोहना के साथ-साथ कुक्कू ने भी हिस्सा लिया। एक से एक बड़े उस्ताद थे। खेलने वाले और देखने वाले भी। कुक्कू डर रहा था। मन ही मन बोला, “मैं भला कहाँ टिकूँगा….?”

पर फिर उसे अपने लाल वाले लट्टू का खयाल आया। और रहमत चाचा का भी। ‘ओह, उन्होंने कितने प्यार से मुझे यह लाल वाला लट्टू बनाकर दिया था। और जब मैं दोबारा उसे लेने गया, उनकी हँसी कितनी मीठी और प्यार भरी थी। रहमत चाचा ने कोई हारने के लिए मुझे यह लट्टू थोड़े ही दिया था!’ कुक्कू ने सोचा।

मैदान में ठसाठस भीड़। सबके बीच कुक्कू ने जोर से डोरी खींचकर लट्टू चलाया तो उसमें पता नहीं कौन सा ऐसा मटकन्ना भूत घुस गया कि वह थमने का नाम ही न लेता था। पहले राउंड में कुक्कू जीता, दूसरे में भी। और लो, आखिरी राउंड में भी उसी का लाल लट्टू गर्व से अपनी जीत की पताका लहरा रहा था।

कुक्कू जीता तो उसे खूब बधाइयाँ मिलीं। छोटे-बड़े कितने ही उस्ताद। सबने उसे बाँहों में भर लिया। एक अखबार के रिपोर्टर ने उसका इंटरव्यू भी लिया। कुक्कू बोला, “मुझे तो बस एक बात कहनी है। रहमत चाचा ग्रेट हैं। हम बच्चों के वे दोस्त भी हैं, चाचा भी। भगवान ने उन्हें हम बच्चों को प्यार करने के लिए भेजा है। उन्हीं की बदौलत मैं लट्टू चलाना सीख पाया हूँ।”

अगले दिन अखबार में कुक्कू की तसवीर छपी और उसका छोटा सा इंटरव्यू भी। रहमत चाचा ने अपने बारे में पढ़ा, तो सुबह-सुबह कुक्कू के घर चले आए। उसे गोदी में लेकर चूम लिया। रहमत चाचा की आँखें उस समय भीगी हुई थीं। और कुक्कू…? उसे तो होश ही क्या था!

ये कहानी ‘इक्कीसवीं सदी की श्रेष्ठ बाल कहानियाँ’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानी पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं 21vi Sadi ki Shreshtha Baal Kahaniyan (21वी सदी की श्रेष्ठ बाल कहानियां)