मंगल पांडे-जिसने लगाई आजादी की चिंगारी
Mangal Pandey Story

Mangal Pandey Story: भारत को अंग्रेजी जंजीरों से आजाद हुए आज कई वर्ष बीत चुके हैं। यह आजादी हमें यूं ही नहीं मिली इसे दिलाने में कई वीरों ने अपने प्राण हस्ते-हस्ते न्योछावर किए हैं उन्हीं में से एक नाम है मंगल पाण्डे का जिसने सबसे पहले आजादी का बिगुल बजाया।

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इंग्लैण्ड की रानी एलिजाबेथ प्रथम के समय में 31 दिसम्बर, 1600 को भारत में ‘ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी’ की स्थापना हुई। इस कम्पनी की स्थापना से पूर्व महारानी एलिजाबेथ ने पूर्व देशों से व्यापार करने के लिए चार्टर तथा एकाधिकार प्रदान किया। प्रारम्भ में यह अधिकार मात्र 15 वर्ष के लिए मिला था, किन्तु कालान्तर में इसे 20-20 वर्षों के लिए बढ़ाया जाने लगा। ईस्ट इंडिया कम्पनी में उस समय कुल करीब 217 साझीदार थे। कम्पनी का आरम्भिक उद्देश्य भू-भाग नहीं, बल्कि व्यापार था।

भारत में व्यापारिक कोठियां खोलने के प्रयास के अन्तर्गत ही ब्रिटेन के सम्राट जेम्स प्रथम ने 1608 ई. में कैप्टन हॉकिन्स को अपने राजदूत के रूप में मुगल सम्राट जहांगीर के दरबार में भेजा। 1609 ई. में हॉकिन्स ने जहांगीर से मिलकर सूरत में बसने की इजाजत मांगी, परन्तु पुर्तगालियों तथा सूरत के सौदागरों के विद्रोह के कारण उसे स्वीकृति नहीं मिली। हॉकिन्स फारसी भाषा का बहुत अच्छा जानकार था। कैप्टन हॉकिन्स तीन वर्षों तक आगरा में रहा।
1616 ई. में सम्राट जेम्स प्रथम ने अपना एक राजदूत जहांगीर के पास भेजा। जिसका एकमात्र उदेश्य था – ‘व्यापारिक संधि करना’। यद्यपि उसका जहांगीर से व्यापारिक समझौता नहीं हो सका, फिर भी उसे गुजरात के तत्कालीन सूबेदार ‘खुर्रम’ (बाद में शाहजहां के नाम से प्रसिद्ध) से व्यापारिक कोठियों को खोलने के लिए फरमान प्राप्त हो गया।
और इसी के चलते पहले तो अंग्रेजों ने भारत में व्यवसाय किया और फिर धीरे-धीरे अनेक भागों में अपने-अपने राज्य स्थापित कर लिए। और अंततोगत्वा संपूर्ण हिन्दुस्तान पर अपना स्वामित्व स्थापित कर लिया। इन विदेशियों के कारण ही भारत में एक ओर जहां भिन्न-भिन्न विचारों का जन्म हुआ, वहीं विदेशी धर्मों का भी विकास हुआ। अंग्रेजों के आगमन से जो एक सामाजिक तनाव उत्पन्न हुआ, उसका असर आज भी भारत पर देखने को मिलता है। उनके कारण जहां अखंड भारत खंड-खंड होकर बिखर गया, वहीं भारतीयों में ही अब धर्म, जाति आदि के नाम पर फूट पैदा हो गई।

क्रांतिकारी मंगल पांडे का जन्म 19 जुलाई, 1827 को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में हुआ था। इनके पिता का नाम दिवाकर पांडे तथा माता का नाम श्रीमति अभय रानी था।
वे कोलकाता के पास बैरकपुर की सैनिक छावनी में ’34वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री’ की पैदल सेना के 1446 नम्बर के सिपाही थे। भारत की आजादी की पहली लड़ाई अर्थात 1857 के संग्राम की शुरुआत उन्हीं के विद्रोह से हुई थी।
ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जंग और आजादी का ख्याल आते ही कई नाम और चेहरे बरबस याद आ जाते हैं। मंगल पांडे भी उन्हीं क्रांतिकारियों में से एक थे। मंगल पांडे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पहले नायक थे, जिनके विद्रोह से निकली चिंगारी ने पूरे उत्तर भारत को आग के शोले में तब्दील कर दिया। ऌ
1857 के संग्राम की नीव उस समय पड़ी जब सिपाहियों को 1853 में एनफील्ड पी 53 नामक बंदूक दी गई। यह बंदूक पुरानी और कई दशकों से उपयोग में लायी जा रही ब्राउन बैस के मुकाबले में शक्तिशाली और अचूक थी। नयी एनफील्ड बंदूक भरने के लिए कारतूस को पहले दांतों से काट कर खोलना पड़ता था।
कुल मिलाकर सैनिकों के लिये यह कारतूस काफी रोष का विषय बन गये। सेना में ऐसी खबरें फैली कि अंग्रेजों ने भारतीयों का धर्म भ्रष्ट करने के लिए जानबूझकर इन कारतूसों में गाय तथा सुअर की चर्बी का इस्तेमाल किया है। कारतूस के बाहरी आवरण में चर्बी होती थी जो कि उसे नमी अर्थात पानी की सीलन से बचाती थी। अंग्रेजी हुकूमत भारतीय सैनिकों और ब्रिटिश सैनिकों में भेद-भाव करती थी ये बात मंगल पांडे भलीभांति जानते थे कि ब्रिटिश अधिकारी, भारतीय सैनिकों और ब्रिटिश सैनिकों में भेदभाव करती है। किंतु इस बात से मंगल पांडे अंजान थे कि कारतूसों में गाय और सुअर की चर्बी का इस्तेमाल होता है इन सबके पीछे ब्रिटिश सरकार का एक ही मकसद था और वह यह कि हिंदू और मुस्लिम में वह सांप्रदायिक दंगे कराना चाहती थी।
26 फरवरी, 1857 को इस कारतूस के पहली बार प्रयोग होने का समय आने पर जब बेरहामपुर की 19 वीं नेटिव इंफैंट्री ने साफ मना कर दिया तो उन सैनिकों की भावनाओं पर ध्यान देने के बजाय उन सबको बैरकपुर लाकर बेइज्जत किया गया।

इस घटना से मंगल पाण्डेय ने 29 मार्च सन 1857 को बैरकपुर में अपने साथियों को विरोध के लिये ललकारा और घोड़े पर अपनी ओर आते अंग्रेज अधिकारियों पर गोली चला दी।
जिससे अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया। मंगल पांडे का खौफ ब्रिटिश हुकूमत के दिल में ऐसा बैठा कि ब्रिटिश हुकूमत ने मंगल पांडे को 6 अप्रैल, 1857 को फांसी की सजा सुनाई और उनकी फांसी की तारीख 18 अप्रैल, 1857 को नियुक्त कर दी यह खबर मिलते ही ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ कई छावनियों में असंतोष भड़क उठा जिसको ब्रिटिश हुकूमत को रोकना लगभग ना मुमकिन था और इसी को मद्ïदेनजर रखते हुए अंग्रेजों ने मंगल पांडे को 8 अप्रैल को ही फांसी पर चढ़ा दिया। बैरकपुर के जल्लादों ने मंगल पांडे के पवित्र खून से अपने हाथ रंगने से इंकार कर दिया। तब कलकत्ता से चार जल्लाद बुलाए गए। अप्रैल, 1857 के सूर्य ने उदित होकर मंगल पांडे के बलिदान का समाचार संसार में प्रसारित कर दिया।
मात्र 30 साल की उम्र में ही उन्होंने अपना जीवन देश के लिए कुर्बान कर दिया। सबसे पहले शहीद शब्द इन्हीं के नाम के आगे लगाया गया था। ब्रिटिश सरकार मंगल पांडे को फांसी पर चढ़ा कर शायद यही दिखाना चाहती थी कि वह कितनी क्रूर है ताकि फिर से दोबारा कोई मंगल पांडे पैदा ही ना हो सके।
मंगल पांडे ने जो आजादी की लड़ाई की चिंगारी भारत में लगाई थी, उसने धीरे धीरे भयंकर रूप धारण कर लिया और अंत में भारतीयों से हारकर अंग्रेजों को भारत छोड़ना ही पड़ा।

Mangal Pandey Story
guru ka aasan

महात्मा बुद्ध के शिष्य आनंद ने उनसे पूछा, आप जब ज्ञान बांटते हैं, तब आप हमें नीचे क्यों बिठाते हैं और स्वयं ऊपर क्यों बैठते हैं?
महात्मा बुद्ध ने उत्तर दिया, आनंद तुमने कभी झरने से पानी पिया है। उसने कहा, हां, कई बार पिया है। महात्मा बुद्ध ने फिर पूछा, तुमने झरने के ऊपर खड़े होकर पानी पिया है या नीचे खड़े होकर पानी पिया है? आनंद ने कहा, झरने का पानी तो ऊपर से ही गिरता है। पीने वाला आदमी नीचे की तरफ बैठकर ही तो पानी पी सकेगा। इस पर महात्मा बुद्ध बोले, तब तो झरने को हमेशा ऊंचाई से बहना पड़ेगा। आनंद ने गहराई से सोचा और वह नतमस्तक हो गया। थोड़ी देर बाद महात्मा बुद्ध ने कहा, इसलिए जो ग्रहण करने वाला है उसे नीचे बैठकर ही ज्ञान हासिल करना होगा। यही वजह है कि गुरु का आसन हमेशा ऊंचा ही होता है।
गुरु दक्षिणा
एक बार एक गुरु ने अपने शिष्यों को बुलाया और कहा कि अब तुम्हारी शिक्षा पूरी हो चुकी है। तुम लोगों को अब मुझे गुरु दक्षिणा देनी होगी। लेकिन ध्यान रहे कि कोई यह गुरु दक्षिणा देखने न पाए। शिष्यों ने अपने-अपने घर प्रस्थान किया। सप्ताह भर बाद वे गुरु जी के पास अनाज और पैसे आदि लेकर लौटे और उसे गुरु चरणों में समर्पित कर दिया। लेकिन एक शिष्य कोने में खड़ा रो रहा था। गुरु ने उसे अपने पास बुलाकर कहा, तुम मेरे लिए कुछ नहीं लाए?
वह बोला, आपके लिए गुरु दक्षिणा इस तरह लानी थी कि कोई उसे न देखे। मेरे घर में अनाज था। मैं उसे इस तरह चुपचाप ला सकता था कि माता-पिता भी न देखें। लेकिन ईश्वर तो मेरा यह काम देखता ही। उससे तो कुछ भी छिपाया नहीं जा सकता। इसलिए तो मैं खाली हाथ आ गया हूं।
गुरु जी ने स्नेह से उस शिष्य की पीठ थपथपाई और कहा कि तुमने मेरे आदेश का आशय समझ लिया। दूसरे नहीं समझ पाए। केवल तुम्हारी शिक्षा ही पूर्ण हुई।