darvaaja kisne khola
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

“अल्लाह.! अम्मी माथे पर हाथ ठोकती हुई बोली, “बैठक में यह उथल-पुथल किसने मचाई है? दीवान की सारी चादर समेटकर रख दी, कुशन इधर-उधर कर दिए।”

“मुझे क्या पता? मैं तो उधर गया भी नहीं,” रेहान सहन में ही खड़ा-खड़ा बोला। क्योंकि घर में कोई भी शरारत हो, नाम उसी का आता था।

अम्मी बड़बड़ाते हुए चादर समेटने लगीं। अचानक वह जोर से चीख पड़ीं। आवाज सुनकर रजिया और रेहान घबराकर बैठक की ओर लपके । इससे पहले कि वे बैठक तक पहुँचते, एक बिल्ली निकलकर बाहर भागी। रजिया उससे टकराते-टकराते बची।

“बैठक किसने खुली छोड़ दी थी?” रजिया ने अम्मी से पूछा।

अम्मी हैरत से रजिया की ओर देखने लगीं, क्योंकि फजिर के वक्त उठकर सारे दरवाजे खोलने की जिम्मेदारी उसी ने ले रखी थी।

“लेकिन मैं जब उठी तो बैठक खुली थी?” अम्मी के आँखों में सवाल देखकर रजिया अपराधी भाव से बोली, “..हो सकता है अब्बू ने खोली हो”

“कमबख्त मारी बिल्ली ने सब गड़बड़ कर दिया। पूरी बैठक में गंदगी फैला दी। अब इस सर्दी में सब धुलना पड़ेगा।”

अम्मी चादरें और कुशन लेकर बाहर निकल आईं और गुसलखाने में ले जाकर डाल दीं। नल पर हाथ धोते हुए बड़बड़ाने लगीं, “सोचा था आज चच्चीबी के घर हो आऊँगी। पर अपनी तो किस्मत ही खराब है। बावर्चीखाने का काम खत्म हो तो इसमें जुटो। और बस दिन खतम । आजकल दिन होता ही कितना बड़ा है।”

हाथ धुलकर अम्मी वापस बावर्चीखाने में जा पहुँचीं। अचानक कुछ याद करके दादी से कहने लगीं, “अरे अम्मा, गुसलखाने में गंदे कपडे डाल रखे हैं। रजिया से कहकर किनारे करवा दूंगी, तब उधर जाइयेगा।”

अम्मी जानती थीं कि दादी बहुत सफाई पसंद हैं। अगर कपड़े जरा-सा छू भी गए तो कड़ाके की ठंड में नहाने को उतारू हो जाएँगी । बात भी सही थी, बिल्ली जाने कहाँ-कहाँ गंदगी और कूड़े में फिरकर आई हो।

दादी कुछ न बोली। लिहाफ ओढ़े बैठी तस्बीह के मनके फिराते रहीं। कुछ देर बाद कहने लगीं, “बिछी रहने देती चादर । आजकल जाड़े में कौन बैठता है वहाँ । धूप निकलने लगती तब धुलतीं। वैसे भी बिल्ली अगर सूखे पैरों हो तो कोई हर्ज नहीं है।”

अम्मी समझ रही थीं कि दादी उनकी मेहनत बचाने के लिए ऐसा कह रही हैं।

“कोई बात नहीं अम्मा, जैसे सब काम होते हैं, वैसे ही यह भी हो जाएगा। चादरें वैसे भी बहुत दिनों से धूल खा रही थीं।” अम्मी बावर्चीखाने से ही बोलीं।

बात आई-गई हो गई। सब फिर से अपने-अपने कामों में मसरूफ हो गए।

अगली भोर जब रजिया रोज की तरह बैठक खोलने पहुंची तो दरवाजा फिर से खुला दिखा। बैठक में अंधेरा था। अब्बू होते या कोई बैठा होता तो लाइट जल रही होती। आखिर कौन हो सकता है? किसने इतनी पहले उठकर बैठक खोल दी। रजिया ने धड़कते दिल से आगे बढ़कर ज्यों ही कमरे की लाइट ऑन की वैसे ही बिल्ली लगभग उसके ऊपर कूदते हुए भागी।

“अल्लाह,” रजिया इतनी जोर से चीखी कि पूरा घर जाग गया।

“क्या हुआ..?” अम्मी भागी आई।

अब्बू भी अपनी लाल-लाल आँखें मलते हुए निकल आए और सोई-सोई-सी आवाज में बोले, “क्यों इतना शोर मचाया जा रहा है?”

“बिल्ली थी…” रजिया काँपती आवाज में बोली।

“चीखीं तो ऐसा जैसे शेर देख लिया हो!” अब्बू खीझकर बोले ।

“बैठक आपने खुली छोड़ी थी?” अम्मी ने शिकायत भरी निगाहों से अब्बू की ओर देखा।

अब्बू, जो नींद की खुमारी बचाए दोबारा सोने की योजना में लौट रहे थे, अम्मी के सवाल पर ठिठक गए, “मैं क्यों खोलूँगा? आजकल में मेरा कोई मिलनेवाला भी नहीं आया।”

अब्बू अपनी लापरवाही के लिए अक्सर अम्मी और दादी का निशाना बनते थे। भुलक्कड़ भी ऐसे थे कि चश्मा माथे पर चढ़ाए घर भर में ढूँढते रहते। अम्मी समझ गईं कि वह देर रात तक लिखते-पढ़ते रहते हैं। किसी काम से आए होंगे और दरवाजा बंद करना भूल गए होंगे।

सबकी निगाहें अपने ऊपर उठती देख अब्बू जोर देकर बोले, “मैंने नहीं खोला भई, मेरा यकीन करो। भुलक्कड़ हूँ, यह मानता हूँ। पर इसका यह मतलब थोड़े है कि सारे इल्जाम मेरे ही ऊपर मढ़ दिए जाएँ।’

अब्बू की बात से अम्मी के माथे पर लकीरें गहरा गईं। पर उन्हें यकीन था कि दरवाजा अब्बू ने ही खोला होगा और भूल गए होंगे। वह खीझते हुए बुदबुदाइँ, “कल ही बदली थीं चादरें। अब फिर से धुलो। जाड़े में अँगुलियाँ गलाओ।”

अब्बू अपने कमरे की ओर बढ़ चले। रात बारह तक उनका लिखना-पढ़ना चलता रहता था, इसलिए सुबह आठ के पहले नहीं उठते थे। उन्हें कमरे की ओर जाता देख अम्मी बोली, “वक्त पर उठ गए हैं तो नमाज ही पढ़ लीजिए। सोना तो रोज का है।”

अब्बू खिसियाकर ठिठक गए। चादर लपेटते हुए कहने लगे, “अरे जाड़ों में नमाज का टाइम पौने सात तक रहता है। अभी तो साढ़े पाँच हो रहा है। बहुत वक्त है।” और धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए कमरे तक पहुँच गए। दरवाजे पर रुककर बोले, “रजिया बेटा, नमाज पढ़ना तो मेरे लिए भी दुआ कर लेना।”

चाय के वक्त अम्मी दादी को यह घटना बताने लगी तो दादी बोली, “सर्दी भी तो कितनी पड़ रही है। बेचारी छिपने के लिए आ जाती होगी। ये बे-बोल जानवर बेचारे कितना कुछ सहते हैं। हम लोग तो सर्दी-गर्मी-बारिश से राहत पाने की तरकीबें निकाल लेते हैं। पर ये बेचारे मुँह सिए सब सहते रहते हैं। तकलीफ इन्हें भी होती है। बस, कह नहीं पाते। कह भी पाते तो इनकी कौन सुनता?” दादी ने लंबी साँस भरी।

अम्मी गंदी चादरें समेटकर गुसलखाने की ओर बढ़ चलीं।

“क्या इन्हें फिर से धोने जा रही हो? कल को बिल्ली ने फिर से गंदा कर दिया तो?” दादी ने टोका।

“कैसे गंदा कर देगी?” अम्मी थोड़ा गुस्से में बोली, “एक दिन हो गया, दो दिन हो गया। रोज-रोज थोडे ही होगा।”

पर तीसरी रात को फिर बैठक का दरवाजा खुला मिला। सबने मिलकर अब्बू को घेर लिया कि यह सब उन्हीं की भुलक्कड़ी का नतीजा है। सबके बार-बार कहने से अब्बू ने भी बात खत्म करने की गरज से गलती अपने ऊपर ले ली। रजिया ने सलाह दी कि बैठक में रात को ताला लगा दिया जाए । अकेले दादी ने प्रतिवाद किया, “ताला लगाने की क्या जरूरत। याद करके दरवाजा बंद कर लिया जाए बस ।’

पर सबने ताला लगाने का समर्थन किया। खासतौर पर अब्बू ने क्योंकि सारा घर उन्हीं को दोष दे रहा था।

उस रात सबके लेट जाने के बाद अम्मी ने बैठक में ताला लगा दिया और चाबी आले पर रख दी।

पर सुबह को जब रजिया उठी तो हैरत की बात कि बैठक का ताला खुला हुआ था और बिल्ली अंदर दीवान पर मजे से सिमटी सो रही थी। इस बार अम्मी को बिल्ली की कारस्तानी पर गुस्सा नहीं आया, बल्कि वह डर गईं। मन में तरह-तरह के उल्टे-सीधे ख्याल आने लगे। अब्बू भी पहली बार इस मसले पर गंभीर हए।

“यह तो मुझे कोई और ही मसला लग रहा है?” अम्मी डरी हुई आवाज में कहने लगीं।

“और कौन-सा मसला?” अब्बू झुंझलाए। वह अम्मी की बात का कुछ-कुछ मतलब समझ रहे थे।

“तो आप ही बताइए, बंद ताला अपने आप कैसे खुल गया?”

“कहना क्या चाहती हो कि जिन्न-जिन्नात आकर खोल गए?”

“आपने नहीं खोला, रजिया ने नहीं खोला, मैंने नहीं खोला तो आखिर किसने खोला? मैं तो कहती हूँ, किसी झाड़-फूंकवाले को बुलाकर दिखवा लीजिए।” अम्मी ने जोर देकर अपनी बात कही।

“फिजूल बातें मत करो, झाड़-फूंक करने वाले पाखंडियों को तुम जानती नहीं हो। तिल का ताड़ और राई का पहाड़ बना देते हैं। झूठमूठ जेबें कतर के चलते बनेंगे।’ अब्बू तैश में बोले ।

अम्मी खामोश हो गई। उन्हें पता था कि इस मसले पर अब्बू से उलझना ठीक नहीं है।

अब्बू काम पर चले गए तो अम्मी दादी से कहने लगीं। पर दादी ने भी मामले को गंभीरता से नहीं लिया। कहने लगीं, “बेटा, इंसान खुदा की सबसे आला मखलूक है। उसे किसका डर? तुम नाहक घबरा रही हो। आज के दौर में जिन्न-भूत कौन मानता है? किसी से कहोगी तो हँसी उड़ाएगा। मैं तो कहती हूँ, बैठक खुली ही रहने दिया करो। आजकल कैसी घनघोर सर्दी पड़ रही है। हम लोग दो-दो रजाई ओढ़कर भी काँपते रहते हैं। ये बेसहारा बेबस जानवर कैसे रात काटते होंगे? बेचारी बिल्ली कितनी उम्मीद लेकर इस घर आती होगी। उसे इस तरह भगाना ठीक नहीं है।”

पर अम्मी के मन में खलबली मची हुई थी। जब रेहान को पढ़ानेवाले मौलवी साहब आए तो अम्मी ने उनसे अपनी बात कही। उन्होंने कुछ दुआएँ बताईं और कहा, “रात में लेटने से पहले आँगन में खड़ी होकर जोर-जोर से पढ़ लिया करें। इंशाअल्लाह घर सारी बलाओं से महफूज रहेगा।”

पर अम्मी को सुकून नहीं मिला। दुआएँ तो वह रोज पढ़कर लेटती थीं। पर यह मसला कुछ ज्यादा ही गंभीर था। उन्होंने बुर्का ओढ़ा और लंबे-लंबे डग भरती अलीमन बुआ के घर जा पहुँची। अलीमन बुआ झाड़-फूंक करती थीं और ऐसे लोगों से उनकी जान-पहचान भी खूब थी। सारी बात सुनकर वह बोली, “देखो बहन, मुझे तो यह साफ-साफ जिन्नाती मामला लग रहा है। तुम्हीं बताओ भला बंद ताला खोलकर बिल्ली कमरे में कैसे घुस सकती है? ये बिल्ली नहीं उसकी शक्ल में कुछ और है। पर तुम घबराओ मत । मैंने बड़े-बड़े अड़ियल जिन्नातों को भगाया है, इसकी क्या मजाल । यह तो मेरे लिए चुटकियों का काम है।”

अलीमन बुआ ने खर्च काट-काटकर बचाए हुए अम्मी के दो हजार रुपए हड़प लिए और बदले में नींबू, काजल, लाल रंग का कपड़ा और एक चिराग देकर बोलीं, “नींबू पर काजल चुपड़कर और उसे लाल कपड़े में बाँधकर दरवाजे पर लटका देना और कमरे में घी का चिराग जला देना। एक दिन में सारी मुसीबत हल हो जाएगी।”

अम्मी छिपते-छिपाते वापस लौटीं। उन्होंने किसी को कुछ नहीं बताया। रजिया और दादी को भी नहीं। अब्बू को बताने का तो सवाल ही नहीं उठता था।

रात को जब सब खा-पीकर लेट गए तो अम्मी चुपके से उठीं और अलीमन बुआ का बताया अमल पूरा करके बिस्तर पर आ लेटीं। आज उन्हें बड़ा सुकून था। उन्हें पूरी उम्मीद थी कि इस अमल से जरूर मुसीबत से छुटकारा मिल जाएगा। जल्द ही गहरी नींद ने उन्हें आ दबोचा।

सुबह रजिया की बड़बड़ाहट से नींद खुली तो पता चला बिल्ली कमरे में फिर से घुसी बैठी थी। अम्मी परेशान हो गईं। अब बैठक में कदम रखते भी उन्हें डर महसूस होने लगा। बड़ी-बड़ी धन्नियों के सहारे लटकी ऊँची छत का अंधेरा उन्हें खौफ में डालने लगा। उघड़े पलस्तर की अनजानी आकृतियाँ मन में भय पैदा करने लगीं। वातावरण का सूनापन किसी साए की मौजूदगी की गवाही देने लगा। पर अम्मी भी थीं मलिहाबादी पठान । डर भी आखिर कितना डराता? उसकी भी तो कोई हद है। अम्मी ने आज वह हद पार कर ली थी। उन्होंने तय कर लिया कि आज रात वह चुपचाप नजर रखेंगी और इस राज का पता लगाकर रहेंगी।

जाड़ों में दस बजे आधी रात हो जाती है। सब जल्दी ही लेट गए। रोज की तरह दादी के कमरे में अंगीठी रखकर, अब्बू के कमरे में चाय का थर्मस पहुँचाकर अम्मी बिस्तर पर आ लेटीं। रेहान और रजिया उनके कमरे में ही लेटते थे। उन्होंने कनखियों से देखा, दोनों गहरी नींद में सो रहे थे। अम्मी ने बैठक की ओर खुलने वाली खिड़की का एक पट खोल दिया और दुआएँ बुदबुदाते हुए आँखें उधर गड़ा दीं। नीम उजाले में बड़ा-सा आँगन रहस्यमय लग रहा था। जामुन का पेड़ काले दानव-सा लहरा रहा था। पत्तों से हवा की छेड़छाड़ चुडैलों की खनखनाहट भरी हँसी का भ्रम पैदा कर रही थी। पर अम्मी को आज कोई डर नहीं डिगा सकता था। वह पूरी तरह से मुस्तैद थीं।

बैठक पर नजर गड़ाए हुए काफी देर हो गई थी। दिन भर काम की थकन भी थी। अम्मी की आँखें रह-रहकर झपक जा रही थीं।

तभी अचानक आँगन में किसी के चलने की आहट पाकर अम्मी की नींद टूट गई। उन्होंने बाहर की ओर निगाह दौड़ाई तो साँस अटक गई। आँगन में सफेद कपड़े पहने एक आकृति धीरे-धीरे बैठक की ओर बढ़ रही थी। अम्मी को काटो तो खन नहीं। उनके रोंगटे खड़े हो गए। सारा शरीर थरथरा उठा। उस आकृति ने आगे बढ़कर बैठक की कुंडी उतार दी और दरवाजा हल्का-सा खोल दिया। इतना कि बिल्ली आसानी से कमरे में घुस सके । काम पूरा करके वह आकृति जैसे ही मुड़ी कि उसका चेहरा देखते ही अम्मी चौंक पड़ी। उन्हें अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ। वह आकृति और कोई नहीं बल्कि दादी थीं। वह सर्दी से सिमटी दबे कदमों से अपने कमरे की ओर बढ़ी जा रही थीं।

अम्मी ने गहरी साँस भरी और कमरे की खिड़की बंद कर बिस्तर में सरक गईं।

उस दिन के बाद जाड़े भर उन्होंने बैठक का दरवाजा बंद नहीं किया।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’