Environmental Issues: हमारे शास्त्र केवल भक्ति और संस्कार ही नहीं सिखाते, अपितु प्रकृति के प्रति प्रेम करना भी सिखाते हैं। भगवान श्री कृष्ण की गोवर्धन कथा इसका साक्षात उदाहरण है, जहां भगवान कृष्ण मनुष्यों को प्रकृति से प्रेम करने की सीख दे रहे हैं।
मानस के उत्तरकांड में गोस्वामी तुलसीदास एक स्थान पर लिखते हैं कि पर संपदा बिनासि नसाहीं, जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं। अर्थात् दूसरों की संपत्ति को नष्ट करने वाले स्वयं नष्ट हो जाते हैं जैसे खेती का नाश करने के बाद ओला स्वयं भी नष्ट हो जाता है। आज के संदर्भ में तुलसीदास की ये पंक्ति अत्यंत प्रासंगिक व विचारणीय है। बात आज के बिगड़ते हुए भौतिक परिवेश अथवा पर्यावरण प्रदूषण की हो अथवा हमारी जीवन शैली अथवा उदात्त जीवन मूल्यों की हम आत्मघाती होते जा रहे हैं। हम जिस डाल पर बैठे हैं उसी को काट रहे हैं। अपने लाभ के लिए ही नहीं दूसरों को हानि पहुंचाने के लिए भी हम दूसरों का अहित करने में कम आनंद नहीं लेते लेकिन वास्तविकता ये है कि हमारा इस प्रकार का आचरण दूसरों के साथ-साथ हमारा भी उतना ही अहित कर रहा है जितना दूसरों का। दूसरों का अहित करने या होने देने के प्रयास में कई बार तो हम अपना सर्वनाश ही कर बैठते हैं।
Also read: पर्यावरण की सुरक्षा के लिये, ये सब कर सकतें हैं हम
एक कहानी याद आ रही है। एक माली और कुम्हार पास-पास रहते थे। माली सब्जियां उगाता था तो कुम्हार मिट्टी के बरतन बनाता था। उन दोनों के पास एक ऊंट था जिस पर वे दोनों ही अपना सामान लादकर पास के कसबे में ले जाकर बेच देते। एक बार दोनों ऊंट पर सामान लादकर कसबे की ओर जा रहे थे। ऊंट की पीठ पर एक ओर माली की सब्जियां लदी हुई थीं तो दूसरी ओर कुम्हार के बरतन लदे हुए थे। माली ऊंट की रस्सी को पकड़े हुए आगे-आगे चल रहा था तो कुम्हार ऊंट के पीछे-पीछे। तभी अचानक ऊंट ने अपनी लंबी गरदन पीछे की ओर घुमाई और सब्जियां खाने लगा। कुम्हार ने ऊंट को सब्जियां खाते हुए देखा पर रोका नहीं। उसने अपने मन में कहा कि ऊंट माली की सब्जियां खा रहा है तो इससे मुझे तो कोई नुकसान नहीं होगा। ऊंट मेरे बरतन तो खाने से रहा फिर मैं क्यों इसे सब्जियां खाने से रोकूं।

कुछ ही देर में ऊंट काफी सब्जियां खा गया जिससे ऊंट पर लदे हुए सामान का संतुलन बिगड़ गया और सारा सामान नीचे गिर गया। गिरने से शेष सब्जियां तो बच गईं पर कुम्हार के सारे बरतन चकनाचूर हो गए। बरतन टूटने के बाद कुम्हार को भान हुआ कि यदि वो ऊंट को सब्जियां नहीं खाने देता तो उसके बरतन भी नहीं टूटते लेकिन अब पछताना बेकार था। आज यही स्थिति हम सबकी हो चुकी है। हम दूसरों का या सामूहिक नुकसान रोकने के लिए बिलकुल आगे नहीं आते और इसके परिणामस्वरूप हमारा जो प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष नुकसान होता है उसे वहन करने को अभिशप्त हैं। ये संपूर्ण विश्व हमारी सामूहिक संपत्ति ही तो है। इस पृथ्वी पर उपलब्ध सभी प्राकृतिक संसाधनों को बचाना हमारा ही दायित्व है। जो लोग इन्हें नष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं उन्हें रोकना भी हमारा ही दायित्व है।
आज हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि कुछ लोग देश छोड़कर स्थायी रूप से विदेशों में बसने के लिए जा रहे हैं। लेकिन सब लोग ऐसा नहीं कर सकते। यदि हालात और बिगड़े तो क्या होगा? हम क्या करेंगे? वास्तव में हम कुछ नहीं कर पाएंगे और घुट-घुुटकर मर जाएंगे। प्रश्न उठता है कि हम इसमें क्या कर सकते हैं। आज हमारे जीवन का एक मात्र उद्देश्य खूब कमाना और खूब खर्च करना हो गया है। हमें अपने इस उद्देश्य को बदलना होगा। यदि हमने स्वयं को नहीं बदला तो हमारा नहीं तो हमारी अगली पीढ़ियों का घुट-घुटकर मरना निश्चित है। आज भी प्रति वर्ष असंख्य व्यक्ति प्रदूषणजन्य व्याधियों के कारण अकाल मृत्यु का शिकार हो रहे हैं। बीमारियां बढ़ती ही जा रही हैं। हवा हो या पानी सब प्रदूषित हैं। खाद्य पदार्थ विषाक्त होते जा रहे हैं। यदि कहीं कुछ बचा भी है तो वो मिलावट की भेंट चढ़ जाता है। सांस लेना मुश्किल होता जा रहा है।
एक शेर याद आ रहा है कि मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की। आज हमारी स्थिति ठीक वैसी ही हो चुकी है। समस्या का स्थायी उपचार संसाधनों से संभव नहीं। हमें प्रकृति को नष्ट करने के दुष्चक्र को तोड़ना होगा। ये तभी संभव है जब हम अपनी जीवनशैली को परिवर्तित करें। हमें प्रकृति की ओर लौटना होगा। अपनी जीवनशैली को प्राकृतिक बनाना होगा। हमें वाहनों के प्रयोग में कमी लानी होगी। हमें कुछ दूरी के लिए बिना किसी वाहन की मदद के पैदल चलने की आदत डालनी होगी। इससे न केवल पर्यावरण सुधरेगा अपितु हमारा स्वास्थ्य भी अच्छा होगा। हमें अपनी उत्सवधर्मिता पर भी रोक लगानी होगी। हर पर्व को सादगीपूर्ण ढंग से मनाने की आदत विकसित करनी होगी। आज हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि एक अबरबत्ती अथवा धूपबत्ती का जलाना भी निरापद नहीं। कोई त्यौहार कब मातम में बदल जाए कुछ नहीं कहा जा सकता।
आज कुछ भी सुरक्षित नहीं बचा है। खाद्य पदार्थ हों अथवा दवाएं हर चीज में मिलावट की जा रही है। नकली घी-तेल तैयार करके बेचे जा रहे हैं। साबुत मसाले हों या दालें अथवा फल-सब्जियां सब पर हानिकारक रसायनों से पॉलिश की जाती है जिसका कोई औचित्य नहीं। हम नकली चीजें बेचकर दूसरों के जीवन के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं लेकिन साथ ही दूसरों के द्वारा तैयार की गई अन्य नकली चीजों का उपभोग करके स्वयं भी इस दुष्चक्र का शिकार हो रहे हैं। हम गलत तरीकों से पैसा कमाकर खुश तो हो रहे हैं लेकिन इस प्रक्रिया में स्वयं का विनाश भी सुनिश्चित कर रहे हैं। हमें गलत तरीकों से खूब पैसा कमाने और खर्च करने की प्रवृत्ति का त्याग करना ही होगा। हमें अपने हर प्रकार के निरंकुश उपभोग पर अंकुश लगाना होगा। हमें अनिवार्यत: अपरिग्रह का पालन करना होगा।
पिछले ढाई हजार साल से अपरिग्रह पर जोर दिया जा रहा है। उस समय पर्यावरण प्रदूषण जैसी कोई समस्या नहीं थी तो भी अपरिग्रह पर जोर दिया जाता रहा। जिस सुंदर परिवेश अथवा प्रकृति का विकास लाखों वर्षों में हुआ है उसे अक्षुण्ण रखना अनिवार्य था अत: अपरिग्रह अर्थात् आवश्यकता से अधिक वस्तुओं के उपभोग व संग्रह के निषेध को धर्म से जोड़ दिया गया। हमारी परिग्रह वृत्ति के कारण ही आज संपूर्ण विश्व अशांत है। हम एक-दूसरे का शोषण करके व प्रकृति को नष्ट करके अपनी ही हानि कर रहे हैं। हमें प्रकृति को नष्ट करने के दुष्चक्र को तोड़ना होगा। ये तभी संभव है जब हम अपनी जीवनशैली को परिवर्तित करें।
