निवारण की गृहस्थी बिलकुल साधारण ढंग की थी, उसमें काव्यरस नाममात्र को भी नहीं था। जीवन में इस रस की कोई आवश्यकता है, ऐसी बात उसके मन में कभी आई भी नहीं। जैसे परिचित पुरानी चप्पल-जोड़ी में दोनों पैर आराम से निश्चित भाव से प्रवेश करते हैं, उसी तरह इस पुरानी दुनिया में निवारण अपने चिराभ्यस्त स्थान को अधिकार किए रहता है, उस संबंध में भूलकर भी किसी प्रकार की चिन्ता, तर्क या तत्त्वालोचन नहीं करता।
निवारण सवेरे-सवेरे गली के किनारे, घर के द्वार पर खुली देह बैठे अत्यंत निश्चिन्त भाव से हुक़्क़ा लिए तंबाक़ू पीता रहता। रास्ते से लोगों का आना-जाना, गाड़ी-घोड़े की आवाज ही, वैष्णव भिखारियों का गान, बेकार शीशी-बोतल ख़रीदनेवालों की हाँक चलती रहती; ये सारे चलायमान दृश्य मन को हल्के भाव से ढँके रखते और जिस दिन कच्ची अमिया या तपसी मछलीवाला आता, उस दिन बहुत मोल-भाव कर कुछ विशेष रूप से खान-पान का आयोजन होता। उसके बाद यथासमय तेल लगाकर स्नान करके भोजन के बाद रस्सी पर लटकती चपकन पहन चिलम भर तंबाक़ू पीता रहता और एक बीड़ा पान मुँह में रखकर दफ्तर की ओर चल पड़ता। दफ़्तर से लौटकर शाम के समय पड़ोसी रामलोचन घोष के घर प्रशांत गंभीर भाव से शाम बिताता और भोजन के बाद रात को शयन-कक्ष में स्त्री हरसुंदरी के साथ मुलाक़ात होती।
वहाँ मित्र के लड़के के विवाह पर आइबड़-भात1 भेजना, नई-नई नौकरानी की ढिठाई, छेंछकी2 में विशेष छौंक की उपयोगिता संबंधी जो सब छोटी-मोटी समालोचनाएँ होतीं, उसे आज तक किसी कवि ने छंदोबद्ध नहीं किया और इसलिए निवारण के मन में कभी कोई खीज पैदा नहीं हुई।
इसी बीच फागुन के महीने में हरसुंदरी को कष्टदायक पीड़ा शुरू हुई। ज्वर किसी प्रकार से छूटता नहीं। डॉक्टर जितनी ही कुनैन देते, बाधा प्राप्त प्रबल स्रोत के समान ज्वर भी उतना ही ऊपर चढ़ता जाता। ऐसी बीस दिन, बाईस दिन, चालीस दिन तक व्याधि चली।
निवारण का दफ़्तर बंद था। वह रामलोचन की सांध्यकालीन सभा में बहुत दिनों से गया नहीं था। क्या करे, कुछ समझ में नहीं आता। एक बार शयनकक्ष में जाकर रोगिणी का हाल मालूम कर आता, तो एक बार बाहर बरामदे में बैठकर चिन्तित बैठा तंबाक़ू पीता। दोनों वक़्त डॉक्टर-वैद्य बदलता और जो जैसा कहता, वही दवा परीक्षा कर देखना चाहता।
प्रेमपूर्वक इस अव्यवस्थित शुश्रुषा के बावजूद चालीस दिन बाद हरसुंदरी रोगमुक्त हुई। लेकिन इतनी दुबली और कमज़ोर हो गई कि शरीर जैसे बहुत देर से अत्यंत क्षीण स्वर में हूँ कह उत्तर मात्र देता।
जब वसंतकाल में दक्षिण की हवा का बहना शुरू हो गया, तब उष्ण निशीथ के चंद्रालोक ने भी सुहागनों के उन्मुक्त शयन-कक्ष में निःशब्द पद संचार का प्रवेशाधिकार प्राप्त किया।
हरसुंदरी के कमरे के नीचे ही, पड़ोसी के पिछवाड़े का बग़ीचा है। वह कोई ख़ास सुहाना या रमणीय स्थान है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। किसी समय किसी ने शौक़ से दो-चार पत्ताबहार के पौधे लगा दिए थे, तब से उस ओर किसी ने विशेष ध्यान नहीं दिया। सूखी डाल के मचान पर कुम्हड़े की बेल चढ़ रही थी; पुराने बेर की झाड़ी के नीचे भारी झंखाड़ था; रसोईघर के बग़ल में दीवार टूटकर कुछ ईंटें जमा हो पड़ी थीं और उसी के साथ जले पत्थर के कोयले और राख दिनोंदिन स्तूपाकृत होते जा रहे थे।
किन्तु, वातायन के नीचे लेटे इस बग़ीचे की ओर ताकती हुई हरसुंदरी प्रति क्षण जो आनंद-रसपान करने लगी, अपने तुच्छ जीवन में ऐसा और कभी भी नहीं कर पाई थी। ग्रीष्मकाल में स्रोतावेग मंद हो छोटी ग्राम नदी जब बालू शय्या पर शीर्ण हो आती, तब जैसे अत्यंत स्वच्छता प्राप्त करती, तब जैसे प्रभात का सूर्यलोक उसकी जलहटी तक कंपित होता रहता, वायु स्पर्श उसके सर्वांग को पुलकित कर देता और आकाश के तारे उसके स्फटिक दर्पण के ऊपर सुख-स्मृति के समान अति सुस्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित होते, वैसे ही हरसुंदरी के क्षीण जीवन तंतु के ऊपर आनंदमयी प्रकृति की प्रत्येक उँगली जैसे स्पर्श करने लगी और फिर अंतर में जो संगीत तरंगित होने लगा, उस भाव को ठीक पूर्णतया समझ न पाई।
इसी समय जब उसके पति पास ही बैठकर पूछते, कैसी हो? तब उसकी आँखों में जैसे जल छलक आता। रोग शीर्ण मुख पर उसकी दोनों आँखें बहुत बड़ी लगतीं, वे बड़ी-बड़ी प्रेमार्द्र और आभार से झुकी आँखें पति के मुख की ओर उठतीं, शीर्ण हाथों से पति का हाथ पकड़ चुप पड़ी रहती, उसके पति के अंतर में भी जाने कहाँ से एक नई अपरिचित आनंद रश्मि प्रवेश करती।
इस प्रकार कुछ दिन बीते। एक दिन रात में टूटे प्राचीर के उपरिवर्ती नन्हे पीपल के काँपते शाखंतराल से एक बड़ा-सा चाँद उदित हो रहा था और संध्याकालीन उमस विलुप्त हो अचानक एक निशाचर वातास जाग्रत हो उठी। ऐसे में निवारण के बालों में उँगली फेरते-फेरते हरसुदंरी बोली, हम लोगों के कोई बाल-बच्चा तो हुआ नहीं, तुम दूसरा विवाह करो।
हरसुंदरी कुछ दिनों से यह बात सोच रही थी। मन में जब एक प्रबल आनंद या वृहत् प्रेम का संचार होता है, तब मनुष्य सोचता है, मैं सब कुछ कर सकता हूँ। तब अचानक आत्म-विसर्जन की एक इच्छा बलवती हो उठती है। स्रोत का उच्छ्वास जैसे कठिन तट पर अपने को वेग से मूर्च्छित करता है, वैसे ही प्रेम का आवेग, आनंद का उच्छ्वास, एक महत् त्याग, एक वृहत् दुःख के ऊपर अपने को जैसे निक्षेप करना चाहता है।
ऐसी ही दशा में अत्यंत पुलकित चित्त से एक दिन हरसुंदरी ने निश्चय किया, अपने पति के लिए मैं बहुत बड़ा कुछ करूँगी। पर हाय, जितनी साध है, उतनी सामर्थ्य किसके पास है। हाथ के पास क्या है, क्या दिया जा सकता है? ऐश्वर्य नहीं, बुद्धि नहीं, क्षमता नहीं, मात्र एक प्राण है, वह भी यदि कहीं देने को है तो अभी दे डालूँ, किन्तु उसका भी क्या मूल्य?
और अगर पति को दुग्ध फेन के समान शुभ्र, नवीत के समान कोमल, शिशु कंदर्प के समान सुंदर एक स्नेह पुतली संतान दे सकती! किन्तु प्राणपण इच्छा से भरकर भी तो वह होने का नहीं। तब मन में आया, पति का दूसरा विवाह कराना होगा। सोचा, स्त्रियाँ इसके लिए इतनी कातर क्यों होती हैं, यह काम तो कुछ भी कठिन नहीं। पति से जो प्यार करता है, सौत से प्यार करना उसके लिए ऐसा क्या असाध्य है, यह सोचकर उसकी छाती फूल उठी।
पहले-पहल जब यह प्रस्ताव निवारण ने सुना तो हँसकर उड़ा दिया, दूसरी और तीसरी बार भी उसकी अनसुनी कर दी। पति की यह असहमति और अनिच्छा देख हरसुंदरी की आस्था और प्रसन्नता जितनी ही बढ़ी, उतनी ही उसकी प्रतिज्ञा दृढ़ होने लगी।
इधर निवारण ने जितनी बार यह अनुरोध सुना, उतनी ही बार इसकी असंभाव्यता उसके मन से दूर होती गई और घर के द्वार पर बैठे तंबाक़ू पीते-पीते संतान-परिवृत्त घर का सुखमय चित्र उसके मन में उज्जवल हो उठने लगा।
एक दिन स्वयं ही प्रसंग चलाते हुए उसने कहा, अब इस बुढ़ापे में एक बच्ची से विवाह करके मैं उसकी देखभाल नहीं कर सकूँगा।
हरसुंदरी ने कहा, उसके लिए तुम्हें चिन्ता नहीं करनी होगी। पालने का भार मेरे ऊपर रहा। कहते-कहते इस संतानहीना रमणी के मन में एक किशोर वयस्का, सुकुमारी, लज्जाशीला, मातृप्रेम से सद्यविच्युता नववधू की मुखच्छवि उदित हुई और हृदय स्नेह से विगलित हो गया।
निवारण ने कहा, मुझे दफ़्तर जाना है, काम है, फिर तुम हो, उस पर किसी बच्ची की ज़िद सुनने का अवसर मेरे पास नहीं है।
हरसुंदरी ने बार-बार कहा, उसके लिए ज़रा-सा भी समय नष्ट करना नहीं होगा। और अंत में मज़ाक़ करते हुए बोली, अच्छा जी, तब देखूँगी कहाँ रहता है तुम्हारा काम, कहाँ रहती हूँ मैं और कहाँ रहते हो तुम!
निवारण ने इस बात का उत्तर तक देना आवश्यक नहीं समझा, सज़ा के तौर पर हँसकर हरसुंदरी के कपोल पर तर्जनी से आघात किया। यह तो हुई भूमिका।
नाक में बुलाक डाले और आँखों में आँसू भरे एक छोटी-सी लड़की के साथ निवारण का विवाह हुआ। उसका नाम था शैलबाला।
निवारण ने सोचा, नाम बड़ा है और चेहरा भी लावण्य भरा है। उसका भाव, उसका चेहरा, उसकी चाल-ढाल कुछ विशेष मनोयोग से देखने की इच्छा होती है, पर वह किसी भी तरह पूरी नहीं हो पाती। उल्टे ऐसा भाव दिखाना पड़ता है कि अरे यह रत्ती भर की लड़की, इसे लेकर तो बड़ी मुसीबत में फँस गया, किसी तरह जान बचाकर मेरे वयसोचित कर्तव्य-क्षेत्र में जा पड़ने पर जैसे परित्राण मिल सकता है।
हरसुंदरी निवारण के इस विषम विपदग्रस्त भाव को देखकर मन-ही-मन बड़े आमोद का अनुभव करती। कभी-कभी एकाध दिन उसके हाथ को ज़ोर से पकड़कर कहती, अरे भागते कहाँ हो। इत्ती छोटी-सी लड़की है, वह तो तुम्हे खा नहीं जाएगी।
निवारण दूरी हड़बड़ी का भाव दिखाते हुए कहता, अरे रुको भी, मुझे एक ज़रूरी काम है। कहते हुए जैसे भागने का रास्ता न पा रहा हो। हरसुंदरी हँसकर द्वार रोककर कहती, आज आँखों में धूल नहीं झोंक सकोगे।
अंत में निवारण नितांत निरुपाय हो कातर भाव से बैठ जाता।
हरसुंदरी उसके कान में कहती, अरे, परायी लड़की को घर में लाकर उसकी ऐसी अवज्ञा नहीं करनी चाहिए।
कहते हुए शैलबाला को पकड़कर निवारण के बाईं ओर बैठा देती और ज़बरदस्ती घूँघट खोल और ठोड़ी पकड़कर उसके आनत मुख को ऊपर उठाकर निवारण से कहती, अहा, क्या चाँद-सा मुखड़ा है, देखो तो सही।
या किसी दिन दोनों को कमरे में बैठाकर काम के बहाने उठ जाती और बाहर से धम्म से दरवाज़ा लगा देती। निवारण निश्चय ही जानता, दो कौतूहली आँखें किसी-किसी सूराख से संलग्न हुई पड़ी हैं; अत्यंत उदासीन भाव से दूसरी ओर करवट ले सोने की चेष्टा करता, शैलबाला घूँघट खींचे सिकुड़ी-सी मुख फेरे एक कोने में दुबकी बैठी रहती।
अंत में हारकर हरसुंदरी ने कोशिश छोड़ दी, लेकिन वह बहुत ज़्यादा दुःखी नहीं हुई।
हरसुंदरी ने जब कोशिश छोड़ दी, तब स्वयं निवारण ने कोशिश शुरू की। इसमें बड़ा कौतूहल भरा रहस्य है। हीरे का एक टुकड़ा पाने पर उसे अनेक प्रकार से अनेक ओर से घुमा-फिराकर देखने की इच्छा होती है और यह एक छोटा सुंदर-सा मनुष्य मन‒बड़ा अपूर्व है। इसे कितने प्रकार से स्पर्श कर, दुलार कर, अंतराल से, सामने से, बग़ल से देखना पड़ता है। कभी एक बार कान के बुंदे को हिलाकर, कभी ज़रा घूँघट उठाकर, कभी बिजली के समान सहसा सचकित-सा, कभी नक्षत्र के समान देर-देर तक अपलक नव-नव सौन्दर्य की सीमा का संधान करना पड़ता है।
मैकमोरान कंपनी के बड़े बाबू श्री निवारणचंद्र के भाग्य में ऐसी अनुभव प्राप्ति इसके पहले कभी नहीं हुई थी। उसने जब प्रथम विवाह किया था, तब बालक था; जब यौवन को प्राप्त हुआ, तब स्त्री उसके लिए चिरपरिचित थी। विवाहित जीवन चिराभ्यस्त था। हरसुंदरी को वह अवश्य ही प्यार करता, किन्तु कभी भी उसके मन में क्रमिक प्रेम का सचेत संचार नहीं हुआ।
बिलकुल पके आम में ही जिस कीड़े ने जन्म लिया हो, जिसको किसी भी घड़ी रस को खोजना नहीं पड़ा हो, थोड़-थोड़ा रसास्वादन नहीं करना पड़ा हो, उसे एक बार वसंतकाल में विकसित पुष्पवन में छोड़कर देखें‒विकासोन्मुख गुलाब के साथ खुले मुख के पास बार-बार चक्कर लगाने का कितना आग्रही होता है, ज़रा-सा जो सौरभ पाता, ज़रा-सा जो मधुर आस्वाद प्राप्त करता, उसी में क्या नशा आता!
निवारण पहले-पहल कभी तो गाउन पहनी हुई काँच की गुड़िया, कभी एक शीशी एसेन्स, मिठाई या कभी कोई चॉकलेट ख़रीदकर शैलबाला को अकेले में दे जाता। इस तरह कुछ ज़रा-सी घनिष्ठता का सूत्रपात होता। अंत में किसी एक दिन हरसुंदरी ने गृहकार्य से मिले अवकाश के समय दरवाज़े के छिद्र से देखा, निवारण और शैलबाला कीड़ियों से दस-पचीसी खेल रहे हैं।
बुढ़ापे में भी यह कौन-सा खेल है! सवेरे निवारण भोजनादि के बाद दफ़्तर के लिए निकला, पर दफ़्तर न जाकर अंतःपुर में प्रवेश किया। इस प्रवर्चना की क्या आवश्यकता थी? सहसा एक जलती वज्रशलाका द्वारा न जाने किसने हरसुंदरी की आँखें खोल दीं, उस प्रखर ताप में आँखों का जल वाष्प होकर सूख गया।
हरसुंदरी ने मन-ही-मन कहा, मैं ही उसे घर में लाई, मैंने ही उसका मिलन कराया, फिर मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों, जैसे कि मैं उनके सुख का काँटा हूँ।
हरसुंदरी शैलबाला को गृहकार्य सिखाती। एक दिन निवारण ने मुख खोलकर कहा, बच्ची है बेचारी। उससे तुम बहुत अधिक काम ले रही हो, उसका शरीर उतना झेल नहीं पाता।
एक बड़ा तीखा-सा उत्तर हरसुंदरी के मुँह पर आया; किन्तु वह कुछ बोली नहीं, चुप रह गई।
तब से वह बहू को घर के कामों में हाथ नहीं लगाने देती; खाना पकाना, देखभाल सब काम स्वयं करती। ऐसा हुआ कि शैलबाला अब ज़रा भी काम नहीं करती, हरसुंदरी दासी की तरह उसकी सेवा करती और पति विदूषक के समान मनोरंजन करता। घर-गृहस्थी का काम करना, दूसरे का ध्यान रखना भी जीवन का कर्तव्य है, यह शिक्षा ही उसे नहीं मिली।
हरसुंदरी दासी के समान चुपचाप काम करने लगी। इसमें उसे बड़े भारी गर्व का अनुभव होता। उसमें न्यनता और दीनता नहीं। उसने कहा, तुम दोनों बच्चे की तरह मिल-जुलकर खेलो, गृहस्थी का सब भार मैंने लिया।
हाय, आज कहाँ है वह बल, जिस बल पर हरसुंदरी ने सोचा था कि वह पति के लिए जीवन-पर्यन्त अपने प्रेम के अधिकार का आधा हिस्सा निःशंक छोड़ दे सकती है। सहसा किसी पूर्णिमा रात्रि में जीवन में जब ज्वार आता है, तब दोनों किनारे प्लावित कर मनुष्य सोचता है, मेरी कहीं सीमा नहीं। उस समय जो एक विराट प्रतिज्ञा कर बैठता है, जीवन के सुदीर्घ भाटे के समय, उस प्रतिज्ञा की रक्षा के लिए उसके संपूर्ण प्राणों में खिंचाव पड़ता है। अचानक ऐश्वर्य के दिनों में लेखनी के एक झटके से जो दान-पत्र लिखा जाता है, चिर दारिद्रय के दिनों में पल-पल तिल-तिलकर उसे चुकाना पड़ता है। तब समझ में आता है, मनुष्य बड़ा ही दुर्बल, उसका हृदय बड़ा दुर्बल, उसकी क्षमता बड़ी ही सामान्य है।
दीर्घ रोगावसान से क्षीण रक्तहीन पांडु कलेवर में हरसुंदरी उस दिन शुक्ल द्वितीया के चाँद के समान एक हल्की-सी रेखा मात्र थी; गृहस्थी में नितांत बेजान-सी उतरा रही थी। उसे लगा, मुझ जैसे कुछ भी नहीं के न होने पर भी चलेगा। धीरे-धीरे उसका शरीर बली हो उठा, खून का तेज़ बढ़ने लगा, तब हरसुंदरी के मन में जाने कहाँ से ढेर सारे मनोभाव आ उपस्थित हुए, उन्होंने ऊँचे स्वर में कहा, तुम तो त्याग-पत्र लिखकर बैठी हो, पर हम अपना अधिकार नहीं छोड़ेंगे।
हरसुंदरी ने जिस दिन पहली बार अपनी स्थिति को अच्छी तरह समझ लिया, उसी दिन निवारण और शैलबाला को अपना शयन-कक्ष सौंप अलग कमरे में अकेली जाकर सोने लगी।
आठ वर्ष की उम्र में, वासर रात्रि में जिस शय्या को त्याग दिया। दीपक बुझाकर यह सधवा-रमणी असह्म हृदय भार लेकर जब अपनी नई वैधव्य शय्या पर आ गिरी थी, तब गली के दूसरे छोर पर एक शौक़ीन युवक विहागरागिनी में मालिनी गान गा रहा था और दूसरा तबले पर संगत कर रहा था। श्रोतावृंद सम पर हाय….हाय….स्वर में चिल्ला पड़ते थे।
उसका वह गाना उस निस्तब्ध चाँदनी रात में बगल के कमरे में सुनने में अच्छा ही लग रहा था। तब बालिका शैलबाला की उनींदी आँखें ऊँघ रही थीं और निवारण उसके कानों के पास मुँह रखकर धीरे-धीरे पुकार रहा था, सखी।
इसी बीच निवारण ने बंकिम बाबू का चंद्रशेखर पढ़ लिया था और दो-एक आधुनिक कवियों का काव्य भी शैलबाला को पढ़कर सुनाया था।
निवारण के जीवन के पिछले हिस्से में जो एक यौवन-उत्स बराबर दबा हुआ था, आघात पाकर सहसा असमय ही उच्छ्वसित हो उठा। कोई भी उसके लिए तैयार नहीं था, इस कारण अकस्मात् उसकी बुद्धि तथा विवके और घर-गृहस्थी का सारा बंदोबस्त उलट-पलट हो गया। वह बेचारा कभी नहीं जानता था मनुष्य के भीतर में सारे उपद्रवकारी पदार्थ रहते हैं, ऐसी दुर्दान्त दुरंत शक्तियाँ जो सारा हिसाब-किताब और शृंखला-सामंजस्य नष्ट-भ्रष्ट कर देती हैं।
केवल निवारण ही नहीं, हरसुंदरी को भी एक नई वेदना का परिचय मिला। किसकी आकांक्षा और किसके लिए यह दुःसह यंत्रणा। मन इस समय जो कुछ चाहता है, कभी पहले तो यह चाह नहीं थी, कभी तो उसको पाया भी नहीं था। जब भद्र भाव से निवारण नियमित दफ्तर जाता, जब सोने के पहले थोड़ी देर के लिए ग्वाले का हिसाब, चीज़ों की महँगाई और औपचारिक कर्तव्य विषयक आलोचनाएँ होतीं, तब तो इस अंतर विप्लव की कोई शुरुआत तक नहीं थी। वह प्रेम अवश्य करता, पर उसमें कोई औद्धत्य, कोई उत्ताप नहीं था। वह प्रेम मात्र अप्रज्वलित ईंधन के समान था।
आज उसे अनुभव हुआ, जीवन की सफलता से कोई उसे जैसे चिरकाल से वंचित करता आ रहा है। उसका हृदय जैसे चिरदिन से उपवासी बना हुआ है। उसका यह नारी जीवन घोर दारिद्रय में ही बीतता रहा है। उसने केवल हाट-बाज़ार, पान-मसाला, साग-सब्ज़ी के झंझटों को लेकर ही सत्ताईस अमूल्य वर्षों को दासीवृत्ति में ही व्यतीत किया और आज जीवन के मध्यपथ पर आकर देखा कि उसके ही शयन-कक्ष की बग़ल में एक छिपे महा-महैश्चर्य भंडार का ताला खोल एक छोटी-सी बालिका एकबारगी राज-राजेश्वरी बन बैठी है। वह दासी अवश्य है, किन्तु साथ-ही-साथ नारी रानी भी है। किन्तु सारा हिस्सा बाँटकार एक नारी दासी बनी और एक नारी रानी बनी; इससे दासी का गौरव तो गया ही, रानी का सुख भी न रहा।
इसी कारण शैलबाला ने भी नारी जीवन के यथार्थ सुख का स्वाद नहीं पाया। उसने इतना अविच्छिन्न दुलार पाया, जिससे प्रेम करने का पल-मात्र अवसर नहीं मिला। समुद्र की ओर प्रवाहित हो, समुद्र में आत्मविसर्जन कर, शायद नदी की एक महत् चरितार्थता है; किन्तु समुद्र यदि ज्वार के खिंचाव से आकृष्ट हो लगातार नदी की ओर ही उन्मुख हुआ रहे, तब नदी केवल अपने में ही स्वयं स्फीत होती रह सकती है। गृहस्थी अपना सारा प्यार-दुलार ले रात-दिन शैलबाला की ओर अग्रसर होती रही, इससे शैलबाला का आत्मप्रेम अत्यंत उत्तुंग होकर चढ़ने लगा। गृहस्थी के प्रति उसका प्रेम पनप नहीं पाया। उसने जाना, मेरे लिए ही सब कुछ है और मैं किसी के लिए नहीं। इस स्थिति में पर्याप्त अहंकार भर है, किन्तु संतोष जैसा कुछ भी नहीं।
एक दिन घनघोर घटा छा गई। इतना अँधेरा हो आया कि कमरे के भीतर काम-काज करना मुश्किल हो गया। बाहर ज़ोरों की बारिश हो रही थी। बेर के पेड़ के तले तलागुलमों का जंगल जल में लगभग डूब गया था और प्राचीर के पर्श्ववर्ती नाले से मटमैला जलस्रोत कलकल ध्वनि से बह चला था। हरसुंदरी अपने नए शयन-कक्ष के निर्जन अंधकार में खिड़की के पास चुपचाप बैठी थी।
इसी समय निवारण ने चोरों के समान धीरे-धीरे द्वार से प्रवेश किया। वह यह समझ नहीं पाया कि लौट जाए या आगे बढ़े। हरसुंदरी ने देखा, पर कुछ बोली नहीं।
तब निवारण ने सहसा एकदम तीर वेग से हरसुंदरी के पास जाकर एक ही साँस में कहा, दो-चार गहनों की ज़रूरत आ पड़ी है। तुम जानती तो हो कि बहुत क़र्ज़ चढ़ गया है, क़र्जदार बड़ा अपमान कर रहे हैं‒थोड़ा-बहुत बंधक रखना होगा‒जल्दी छुड़ा लूँगा।
हरसुंदरी ने कोई उत्तर नहीं दिया, निवारण चोर के समान खड़ा रहा। आख़िर में फिर बोला, तो क्या आज नहीं होगा।
हरसुंदरी ने कहा, नहीं।
कमरे में प्रवेश करना जितना कठिन था, तत्काल बाहर निकलना भी उतना ही कठिन था। निवरण ने कुछ इधर-उधर ताकते हिचकिचाते हुए कहा, तब क्या जाकर कहीं और कोशिश करके देखूँ कहते हुए वहाँ से चला गया।
कहाँ ऋण चुकाना है और कहाँ गहने बंधक रखना होगा, हरसुंदरी यह सब समझ चुकी थी। नववधू ने पिछली रात अपने इस मतिभ्रष्ट पालतू पुरुष को बड़े तीखे स्वर में कहा था, दीदी के पास संदूक भरकर गहने हैं और मैं एकाध भी नहीं पा-पहन सकती?
निवारण के चले जाने पर हरसुंदरी ने धीरे-धीरे उठकर लोहे के संदूक को खोल एक-एक करके सारे गहनों को बाहर निकाला। शैलबाला को बुलाकर पहले अपने विवाह की बनारसी साड़ी उसे पहनाई, फिर उसे सिर से पैर तक एक-एक कर गहनों से लाद दिया। अच्छी तरह जूड़ा बाँधकर दीया जलाकर देखा, बालिका का मुख बड़ा ही मधुर दीख पड़ा‒अभी-अभी पके सुगंधित फल के समान सुडौल रसपूर्ण। शैलबाला जब झन्-झन् शब्द करती हुई चली गई, वह शब्द देर तक हरसुंदरी की शिराओं के रक्त के बीच रिन-झिन कर बजने लगा। मन-ही-मन बोली, आज भला किस बात में तेरी-मेरी तुलना। लेकिन एक समय था, जब मेरी भी यही उम्र थी, मैं भी तो ऐसी ही यौवन की शेष रेखा तक उभर उठी थी, पर मुझे यह बात किसी ने क्यों नहीं जताई थी। कब वह दिन आया और कब वह दिन चला गया, इसकी एक बार सूचना भी नहीं मिली। लेकिन किस गर्व से, किस गौरव से और कौन-सी तरंग उठाती शैलबाला चलती।
हरसुंदरी जब मात्र घर-गृहस्थी ही जानती थी, तब ये गहने उसके लिए कितने मूल्यवान थे? तब क्या अबोध के समान यह सब ऐसे क्षण भर में ही हाथ सेलुटा सकती थी। आज घर-गृहस्थी के अतिरिक्त दूसरे किसी एक बड़े का परिचय मिला है; अब इन गहनों की क़ीमत और भविष्य का हिसाब सब कुछ तुच्छ हो गया है।
और शैलबाला हीरे-जवाहरात के ज़ेवरात झिलमिलाते हुए शयन-कक्ष में चली गई, एक बार पलभर के लिए भी सोचा नहीं कि हरसुंदरी ने उसे कितना कुछ दिया है। उसने यही जाना था कि चारों ओर की सारी सेवा, सारी संपदा, सारे सौभाग्य स्वाभाविक नियम से उसी में आकर परिसमाप्त होंगे; क्योंकि वह शैलबाला थी, वह सखी थी।
ऐसे भी लोग होते हैं, जो स्वप्नावस्था में निर्भीक भाव से अत्यंत दुर्गम पथ पर से चले जाते हैं, पलभर के लिए भी चिन्ता नहीं करते। बहुत से जाग्रत मनुष्यों की भी वैसी ही चिर स्वप्नावस्था उपस्थित होती है; कुछ भी होश नहीं रहता, विपद के संकीर्ण पथ पर निश्चिन्त मन से अग्रसर होते रहते हैं, अंत में दारुण सर्वनाश के सम्मुख हो जाग्रत हो उठते हैं।
हमारे मैकमोरान कंपनी के बड़े बाबू की भी वैसी ही दशा है। शैलबाला उनके जीवन के बीच एक प्रबल आर्व के समान चक्कर काटने लगी और बहुत दूर से विविध महार्घ पदार्थ आकृष्ट हो उसमें विलुप्त होने लगे। मात्र निवारण का मनुष्यत्व और मासिक वेतन, हरसुंदरी का सुख-सौभाग्य और वस्त्रालंकार ही नहीं; साथ-ही-साथ मैकमोरान कंपनी के नक़द ख़जाने से भी चोरी-छिपे माँग बढ़ने लगी और वहाँ से भी एक-दो थैलियाँ अदृश्य होने लगीं। निवारण निश्चय करता, अगले महीने के वेतन से धीरे-धीरे क़र्ज़ चुका देगा लेकिन अगले महीने का वेतन हाथ में आते ही उस आवर्त से ऐसा खिंचाव आता कि अंत में दो आने का सिक्का तक पलभर में चमचमाते तड़ित वेग से अंतर्हित हो जाता।
अंत में वह एक दिन पकड़ा गया। वंशनुक्रम की नौकरी थी। साहब बहुत स्नेह करते थे‒ख़ज़ाना भरने के लिए मात्र दो दिन का समय दिया।
उसने धीरे-धीरे कैसे ढाई हज़ार रुपयों का ग़बन किया है, यह निवारण ख़ुद भी नहीं समझ सका। वह एकदम पागल की तरह हरसुंदरी के पास पहुँचा और बोला, सर्वनाश हो गया है।
हरसुंदरी सब कुछ सुनकर एकदम पीली पड़ गई। निवारण ने कहा, जल्दी गहने निकालो।
हरसुंदरी बोली, वह तो मैंने सब छोटी बहू को दे दिए हैं।
निवारण बिलकुल शिशु-सा अधीर हो कहने लगा, क्यों दिया छोटी बहू को? किसने तुमसे उसे देने को कहा था?
हरसुंदरी बोली, इससे क्या हानि हुई? वह पानी में तो नहीं बहाया है।
भीरु निवारण ने कातर स्वर में कहा, यदि तुम किसी बहाने उसके पास से निकाल सको। पर मेरे सिर की क़सम, जो बताया कि मैंने माँगा है या किसलिए माँगा है।
तब हरसुंदरी मर्मान्तक खीज और घृणा से भरकर बोल उठी, यह क्या तुम्हारी बहानेबाज़ी या लाड़-दुलार करने का समय है। चलो। कहकर पति को साथ लेकर छोटी बहू के कमरे में गई।
छोटी बहू कुछ समझी नहीं। उसने हर बार इतना ही कहा, यह सब मैं क्या जानूँ?
गृहस्थी की किसी चिन्ता से उसे चिन्तित होना होगा, ऐसी कोई बात क्या उसके साथ हुई थी। सब अपनी-अपनी चिन्ता करेंगे और सभी मिलक शैलबाला के आराम की चिन्ता करेंगे। अकस्मात् इसका व्यतिक्रम हुआ, यह कैसा घरे अन्याय है। तब निवारण शैलबाला के पैर पकड़कर रो पड़ा। शैलबाला केवल यही कहती रही, यह मैं क्या जानूँ, मैं अपनी चीजें भला क्यों देने लगी?
निवारण ने देखा, वह दुबली-सी छोटी सुंदरी सुकुमारी बालिका लोहे के संदूक़ से भी कठिन है। हरसुंदरी संकट के समय पति की यह दुर्बलता देख घृणा से जर्जरित हो उठी। वह शैलबाला से ज़बरदस्ती चाबी छीनने लगी। शैलबाला ने फ़ौरन चाबी का गुच्छा दीवार के उस पार तालाब में फेंक दिया।
हरसुंदरी ने हतबुद्धि हो पति से कहा, तो फिर ताला तोड़ दो।
शैलबाला बड़े ही शांत भाव से बोली, तब मैं गले में फाँसी लगाकर मरूँगी।
निवारण ने कहा, मैं एक जगह और कोशिश करके देखता हूँ। कहते हुए अस्तव्यस्त-सा घर से बाहर चला गया।
निवारण दो घंटे में ही अपना पैतृक घर ढाई हज़ार रुपए में बेच आया।
बहुत मुश्किलों से हाथ की हथकड़ी तो बची, पर नौकरी चली गई। चल-अचल संपत्ति में केवल दो पत्नियाँ रह गईं। उसमें से क्लेशकातर बालिका पत्नी गर्भवती हो बिलकुल अचल ही हो पड़ी थी। गली के नुक्कड़ पर एक छोटे सीले हुए घर में इस छोटे परिवार ने आश्रय लिया।
छोटी बहू के असंतोष और दुःख का कोई ओर-छोर नहीं। वह किसी भी तरह समझ नहीं पाती कि यह उसके पति के बूते की बात नहीं। क्षमता नहीं थी तो विवाह क्यों किया था?
ऊपर के तल्ले में मात्र दो कमरे। एक कमरे में निवारण और शैलबाला का शयन-कक्ष था और दूसरे कमरे में हरसुंदरी रहती थी। शैलबाला असंतोष ज़ाहिर करती कहती, मैं रात-दिन सोने के कमरे ही में बंद नहीं रह सकती।
निवारण झूठा आश्वासन देकर कहता, मैं एक दूसरे अच्छे घर की खोज में हूँ, जल्दी ही यह घर बदल लूँगा।
शैलबाला कहती, क्यों, यह बग़ल में तो दूसरा एक कमरा पड़ा है।
शैलबाला ने अपने पहले के पड़ोसियों की ओर कभी मुँह उठाकर देखा तक नहीं था। निवारण की वर्तमान दुर्व्यवस्था से दुःखी होकर वे एक दिन मिलने आईं; शैलबाला कमरे में साँकल लगाकर बैठी रही, किसी भी तरह द्वार नहीं खोला। उनके चले जाने पर क्रोध किया, रोई, उपद्रव अकसर होने लगे। आख़िर में शैलबाला शारीरिक संकट की अवस्था में भयानक पीड़ा ग्रस्त हुई, यहाँ तक कि गर्भपात होने तक की नौबत आ गई।
निवारण ने हरसुंदरी के दोनों हाथ पकड़कर कहा, तुम शैल को बचाओ।
हरसुंदरी रात-दिन की परवाह किए बिना शैलबाला की सेवा करने लगी। तिल-भर की चूक होने पर शैल उससे कटु वाक्य कहती, लेकिन वह एक का भी उत्तर न देती।
शैल किसी भी तरह साबूदाना खाना नहीं चाहती थी, कटोरी समेत फेंक देती, बुख़ार में कच्चे आम की चटनी से भात खाना चाहती। न पाने पर ग़ुस्सा हो जाती और रो-रोकर कोहराम मचा देती। हरसुंदरी उसे मेरी रानी, मेरी बहन, मेरी दीदी…कहकर शिशु के समान बहलाने की चेष्टा करती।
पर शैलबाला बची नहीं। गृहस्थी का सारा लाड़-प्यार ले चरम असुख और असंतोष में बालिका का छोटा असंपूर्ण व्यर्थ जीवन असमय ही नष्ट हो गया।
निवारण को पहले तो बड़ा भारी आघात पहुँचा, पर दूसरे ही क्षण उसने पाया कि उसका एक बड़ा बंधन टूट गया। शोक के बीच ही सहसा उसने एक मुक्ति के आनंद का अनुभव किया। सहसा लगा, इतने दिन उसकी छाती पर एक दुःस्वप्न सवार था। होश आने पर क्षण में ही उसे अपना जीवन अतिशय लघु जान पड़ा। माधवी लता की तरह यह जो कोमल नवीनपाश छिन्न-भिन्न हो गया, क्या वही उसकी दुलारी शैलबाला थी। सहसा गहरी उसाँस भरकर देखा नहीं, यह उसकी उद्बंधन रज्जु थी।
और, उसकी चिर जीवनसंगिनी हरसुंदरी? वही तो उसकी सारी गृहस्थी की अकेली अधिकारिणी बन उसके जीवन के समस्त सुख-दुःख के स्मृति-मंदिर के बीच बैठी है‒लेकिन फिर भी बीच में एक दरार है। ठीक जैसे एक छोटी-सी चमकीली सुंदर और निष्ठुर कटार ने आकर एक कलेजे के दाहिने और बाएँ हिस्से के बीच वेदनापूर्ण विदारण रेखा खींच दी हो।
एक गहरी रात में जब सारा शहर सोया हुआ था, तब निवारण ने धीरे-धीरे हरसुंदरी के निभृत शयन-कक्ष में प्रवेश किया। नीरव भाव से प्राचीन परिपाटी के अनुसार वह उस पुरानी शय्या के दाहिनी ओर सोता रहा था। इस बार भी अपने उसी चिर अधिकार से लेकिन एक चोर की तरह उसने अंदर पैर बढ़ाया।
हरसुंदरी कुछ न बोली, न निवारण ने ही एक शब्द बोला। कहां वे पहले जैसे पास-पास शयन करते रहे, अब भी वैसे ही पास-पास लेटे रहते, किन्तु उनके ठीक बीचोबीच एक मृत बालिका लेटी रही, उसे कोई लाँघ न सका।
- संस्कृत अव्यदान्न, विवाह के पूर्व वर या वधू के पितृगृह में अन्नग्रहण रूप संस्कार।
- महीन टुकड़ों में कटी तेल में तलकर थोड़े-से जल में सिद्ध तरकारी विशेष।
