Manto story in Hindi, manto ki kahani

Manto story in Hindi: जब जोगिंदर सिंह के अफसाने पाठकों द्वारा सराहे जाने लगे तब जोगिंदर सिंह के दिल में यह चाहत जागी कि वह मशहूर लेखकों, आलोचकों और शायरों को अपने घर आने की दावत दे। उसका ख्याल था कि इस तरह उसकी शोहरत में इजाफा होगा।

खुद के बारे में जोगिंदर सिंह के बड़े अच्छे खयाल थे। मशहूर लेखकों और शायरों को अपने घर बुला कर उनकी आवभगत करने के बाद, जब वह अपनी बीवी अमृत कौर के पास बैठता तो कुछ देर के लिए बिल्कुल भूल जाता कि उसका काम डाकखाने में चिट्ठियों की देखभाल करना है।

पटियाला फैशन में रंगी हुई अपनी तीन गजी पगड़ी उतार कर जब वह उसे एक तरफ रख देता तो उसे ऐसा महसूस होता कि उसके लंबे-लंबे काले बालों के नीचे जो छोटा सा सिर छिपा हुआ है, उसमें प्रगतिशील साहित्य कूट-कूट कर भरा है। इस अहसास से उसका दिल, दिमाग और अहं अजीब-सी सुकून से लबरेज हो जाते और अपने बारे में उसका यह यकीन और पक्का हो जाता कि दुनिया में जितने अफसानानिगार और नावलनिगार है वे सबके सब उससे एक बड़े ही मीठे रिश्ते में बंधे हैं।

अलबत्ता जोगिंदर सिंह की पत्नी अमृत कौर की समझ में यह बात न आती थी कि उसका खाविंद जब भी किसी को दावत पर घर बुलाता है तब उससे हर बार यह क्यों कहा करता है, ‘अंबो, यह जो आज चाय पर आ रहे है।’ हिंदुस्तान के बड़े शायर हैं, समझी, बहुत बड़े अदीब। देखो, उनकी आवभगत में कोई कसर बाकी न रहे।’

आने वाला कभी हिंदुस्तान का बहुत बड़ा शायर होता या बहुत बड़ा अफसानानिगार। इससे कम दर्जे के आदमी को वह कभी बुलाता ही न था। इतना ही नहीं, दावत में ऊंची-ऊंची आवाज में जो बातें होती थीं, उनका मतलब वह आज तक नहीं समझ सकी थी। उस बातचीत में तरक्कीपसंद की आम चर्चा होती थी। इस तरक्कीपसंदगी का मतलब भी अमृत कौर की समझ में नहीं आता था। एक बार जब जोगिंद सिंह ने एक बहुत बड़े कहानीकार को चाय पिला कर छुट्टी पाई और अंदर रसोई में आकर बैठा तो अमृत कौर ने पूछा, ‘यह मुई तरक्कीपसंदगी क्या है?’

जोगिंदर ने पगड़ी समेत अपने सिर को हल्के से हिलाया और कहा, ‘तरक्कीपसंदगी…इसका मतलब तुम तुरंत नहीं समझ सकोगी। तरक्कीपसंद उसे कहते हैं, जो तरक्की पसंद करे। हिंदी में तरक्कीपसंद को प्रगतिशील और अंग्रेजी में प्रोग्रेसिव कहते हैं। वे अफसानानिगार जो अफसानों में तरक्की चाहते हों, उनको तरक्कीपसंद अफसानानिगार कहते हैं। इस वक्त हिंदुस्तान में सिर्फ तीन-चार तरक्कीपसंद अफसानानिगार हैं। इनमें मेरा नाम भी शामिल है।’

जोगिंदर सिंह की आदत थी कि वह अंग्रेजी लफ्जों और फिकरों से अपने ख्याल जाहिर किया करता था। उसकी यह आदत पक कर अब उसका मिजाज बन गई थी। इसलिए वह बेझिझक एक ऐसी, मशहूर अंग्रेजी नावलनिगारों के अच्छे-अच्छे चुस्त फिकरों पर टिकी थी। आम बातचीत में वह पचास फीसदी अंग्रेजी शब्दों और अंग्रेजी किताबों से चुने हुए फिकरों का इस्तेमाल करता था। ‘अफलातून’ को वह हमेशा ‘प्लेटा’ कहता था। इसी तरह ‘अरस्तु’ को ‘एरिसटटिल’। डॉक्टर सिग्मंड फ्रायड, शोपेनहावर और नीत्शे की चर्चा वह अपनी हर अहम बातचीत में किया करता था और बीवी से बात करते वक्त वह इस बात का खास ध्यान रखता था कि बातचीत में अंग्रेजी लफ्ज़ और उन फलसफियों के नाम न आने पाएं।

जोगिंदर सिंह से जब उसकी बीवी ने तरक्कीपसंदगी का मतलब समझा तो उसे बड़ी मायूसी हुई, क्योंकि उसका ख्याल था कि तरक्कीपसंदगी कोई बड़ी चीज होगी, जिस पर बड़े-बड़े शायर और अफसानानिगार उसके खाविंद के साथ मिल कर बहस करते रहते हैं। फिर जब उसने यह सोचा कि हिंदुस्तान में सिर्फ तीन-चार तरक्कीपसंद अफसानानिगार हैं तो उसकी आंखों में चमक पैदा हो गई। यह चमक देख कर, एक लंबी-लंबी सी मुस्कुराहट होंठ में कंपकंपाए, ‘अंबो, तुम्हें यह सुनकर खुशी होगी कि हिंदुस्तान का एक बहुत बड़ा आदमी मुझसे मिलने की इच्छा रखता है। उसने मेरे अफसाने पढ़े हैं और बहुत पसंद किए हैं।’

अमृत कौर ने पूछा, ‘यह बड़ा आदमी कोई सचमुच बड़ा आदमी है या आपकी तरह सिर्फ कहानियां लिखने वाला है?’

जोगिंदर सिंह ने जेब से एक लिफाफा निकाला और दूसरे हाथ से उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘कहानीकार तो हैं ही, लेकिन उसकी सबसे बड़ी खूबी, जो उसकी न मिटने वाली शोहरत के पीछे है, कुछ और ही है।

‘क्या खूबी है?’

‘वह एक आवारागर्द है।’

‘आवारागर्द?’

‘हां, वह एक आवारागर्द है, जिसने आवारागर्दी को अपनी जिंदगी का मकसद बना लिया है।….वह सदा घूमता रहता है….कभी कश्मीर की ठंडी घाटियों में होता है और कभी मुल्तान के तपते मैदानों में…..कभी लंका में तो कभी तिब्बत में।’

अमृत कौर की दिलचस्पी बढ़ गई, मगर वह करता क्या है?’

‘गीत इकट्ठे करता है….हिंदुस्तान के हर हिस्से के गीत। पंजाबी, गुजराती, मराठी, पेशावरी, सरहदी, कश्मीरी, मारवाड़ी। हिंदुस्तान में जितनी जबाने बोली जाती हैं, उनके जितने गीत उसको मिलते हैं, इकट्ठे कर लेता है।’

‘इतने गीत इकट्ठे करके क्या करेगा?’

‘किताबें छापता है, मजमून लिखता है ताकि दूसरे भी ये गीत पढ़ सकें। कई रिसालों में उसके मजमून छप चुके हैं। गीत इकट्ठे करना और सलीके से उनको पेश करना कोई मामूली काम नहीं है। वह बड़ा आदमी है अंबो, बहुत बड़ा आदमी। और देखो, उसने मुझे कैसा खत लिखा है।’

यह कहकर जोगिंदर सिंह ने अपनी बीवी को वह खत पढ़ कर सुनाया, जो हरिन्दर नाथ परमार्थी ने उसको अपने गांव से डाकखाने के पते पर भेजा था। उस खत में हरिन्दर नाथ परमार्थी ने बड़ी मीठी भाषा में जोगिन्दर सिंह के अफसानों की तारीफ की थी और लिखा था कि आप हिंदुस्तान के तरक्कीपसंद अफसानानिगार हैं।

यह फिकरा पढ़ कर जोगिंदर सिंह ने कहा, ‘लो देखो, परमार्थी साहब भी लिखते हैं कि मैं तरक्कीपसंद हूं।’

जोगिंदर सिंह ने पूरा खत सुनाने के बाद, एक-दो लम्हे अपनी बीवी की ओर देखा फिर इसका असर मालूम करने के लिए पूछा, ‘क्यों?’

अमृत कौर अपने खाबिंद की तीखी नजर की वजह से कुछ झेंप सी गई और मुस्करा कर कहने लगी, ‘मुझे क्या मालूम। बड़े आदमियों की बातें बड़े आदमी ही समझ सकते हैं।’

जोगिंदर सिंह ने अपनी बीवी की इस अदा पर गौर नहीं किया। वह दरअसल हरिन्दर परमार्थी को अपने घर बुलाने और उसे कुछ दिन ठहराने के बारे में सोच रहा था, ‘अंबो, मैं कहता हूं, परमार्थी साहब को दावत दे दी जाए। क्या खयाल है तुम्हारा….लेकिन मैं सोचता यह हूं कि क्या पता, वह इंकार कर दे। बहुत बड़ा आदमी है। हो सकता है वह हमारी इस दावत को खुशामद समझे।’

ऐसे मौकों पर वह बीवी को अपने साथ शामिल कर लिया करता था ताकि दावत का बोझ दो आदमियों में बंट जाए। इसलिए जब उसने ‘हमारी’ कहा तो अमृत कौर ने, जो अपने खाविंद जोगिंदर सिंह की तरह बेहद भोली थी, हरिन्दर परमार्थी में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी।

हालांकि उसका नाम ही उसके लिए समझ में न आने वाला था। और यह बात भी उसकी समझ से बाहर थी कि एक आवारागर्द, गीत जमा करके, कैसे मालूम बहुत बड़ा आदमी बन सकता है। जब उससे यह कहा गया कि परमार्थी गीत इकट्ठे करता है तो उसे अपने खाविंद की एक बात याद आ गई कि विलायत में लोग तितलियां पकड़ने का काम करते हैं और इस तरह काफी रुपया कमाते हैं। इसलिए उसका ख्याल था कि शायद परमार्थी ने गीत जमा करने का शौक विलायत के किसी आदमी से सीखा होगा। जोगिंदर सिंह ने फिर अपना शक जाहिर किया, ‘हो सकता है वह हमारी इस दावत को खुशामद समझे।’

‘इसमें खुशामद की क्या बात है। और भी तो कई बड़े आदमी आपके पास आते हैं। आप उनको खत लिख दीजिए। मेरा ख्याल है वो आपकी दावत जरूर कबूल कर लेंगे। और फिर उनको भी तो आपसे मिलने की बहुत चाह है। हां, यह तो बताइए क्या उनके बीवी-बच्चे हैं?’

‘बीवी-बच्चे।’ जोमिंदर सिंह उठा। खत का मजमून अंग्रेजी में सोचते हुए उसने कहा, ‘होंगे, जरूर होंगे। हां, हैं। मैंने उसके एक लेख में पढ़ा था, उसकी बीवी भी है और एक बच्ची भी है।’

यह कहकर जोगिंदर सिंह उठा। खत का मजमून उसके दिमाग में पूरा हो चुका था। दूसरे कमरे में जाकर उसने छोटे साइज का वह पैड निकाला जिस पर वह खास-खास आदमियों का खत लिखा करता था, और हरिन्दर परमार्थी के नाम उर्दू में दावतनामा लिखा। यह उस मजमून का तर्जुमा था जो उसने अपनी बीवी से बात करते समय अंग्रेजी में सोचा था।

तीसरे दिन परमार्थी का जवाब आ गया। जोगिंदर सिंह ने घड़कते हुए दिल से लिफाफा खोला। जब उसने पढ़ा कि उसकी दावत मंजूर कर ली गई है तब उसका दिल और भी धड़कने लगा।

उसकी बीवी अमृत कौर धूप में अपने छोटे बच्चे के केशों में दही डाल कर मल रही थी कि जोगिंदर सिंह लिफाफा हाथ में लेकर उसके पास पहुंचा।

‘उन्होंने हमारी दावत कबूल कर ली है। कहते हैं कि वे लाहौर में वैसे भी एक जरूरी काम से आ रहे थे। अपनी नई किताब छपवाना चाहते हैं…..और हां,, उन्होंने तुमको आदाब लिख है।’

अमृत कौर इस ख्याल से बड़ी खुशी हुई कि इतने बड़े आदमी ने, जिसका काम गीत इकट्ठे करना है, उसका आदाब भेजा है। उसने मन ही मन वाहे गुरु का धन्यवाद दिया कि उसका ब्याह ऐसे आदमी से हुआ, जिसको हिंदुस्तान का हर बड़ा आदमी जानता है।

सर्दियों का मौसम था। नवंबर के शुरू के दिन थे। जोगिन्दर सिंह सुबह सात बजे जाग गया और देर तक बिस्तर में आंखें खोले पड़ा रहा। उसकी बीवी अमृत कौर और उसका बच्चा, दोनों लिहाफ में लिपटे हुए, पास वाली चारपाई पर पड़े थे। जोगिंदर सिंह ने सोचना शुरू किया, परमार्थी से मिलकर उसे कितनी खुशी होगी। और खुद परमार्थी को उससे मिल कर यकीनन ही बड़ी खुशी होगी, क्योंकि वह हिंदुस्तान का नौजवान अफसानानिगार और तरक्कीपसंद अदीब है। परमार्थी से वह हर मजमून पर बात करेगा। गीतों पर देहाती बोलियों पर, अफसानों पर और लड़ाई की नई हालत पर। वह उनको बताएगा कि दफ्तर का एक मेहनती क्लर्क होने पर भी वह कैसे अच्छा अफसानानिगार बन गया। क्या यह अजीब सी बात नहीं कि डाकखाने में चिट्ठियों की देखभाल करने वाला आदमी आर्टिस्ट हो।

जोगिंदर सिंह को इस बात पर बड़ा नाज था कि डाकखाने में छह-सात घंटे मजदूरों की तरह काम करने के बाद भी वह इतना वक्त निकाल लेता है कि एक मासिक रिसाले का संपादन करता है और दो-तीन रिसालों के लिए हर महीने एक-एक अफसाना भी लिखता है। दोस्तों को हर महीने जो लंबी-चौड़ी चिट्ठियां लिखी जाती थीं, वे अलग।

देर तक, वह बिस्तर पर लेटा, तसव्वुर ही तसव्वुर में, हरिन्दर परमार्थी ने अपनी पहली मुलाकात की तैयारियां करता रहा। जोगिंदर सिंह ने उसके अफसाने और मजमून पढ़े थे और उसका फोटो भी देखा था। किसी के अफसाने को पढ़ कर और फोटो देखकर, वह आम तौर पर यही महसूस किया करता था कि उसने उस आदमी को अच्छी तरह जान लिया हैं। लेकिन हरिन्दर परमार्थी के मामले में उसको अपने ऊपर यकीन न होता था।

कभी उसका दिल कहता था कि परमार्थी उसके लिए बिल्कुल अजनबी है। उसके अफसानानिगार दिमाग में कभी-कभी परमार्थी एक ऐसे आदमी के रूप में सामने आता था, जिसने कपड़ों के बदले अपने जिस्म पर कागज लपेट रखे हों और जब वह कागजों के बारे में सोचता तो उसे अनारकली की वह दीवार याद आ जाती थी जिस पर सिनेमा के पोस्टर ऊपर-तले, इतनी तादाद में चिपके हुए थे कि एक और दीवार बन गई थी।

जोगिंदर सिंह बिस्तर पर लेटा देर तक सोचता रहा कि अगर वह ऐसा ही आदमी निकला तो उसको समझना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन बाद में जब उसको दूसरों को जल्द समझ लेने की अपनी खूबी का ख्याल आया तो उसकी मुश्किलें आसान हो गई ओर वह उठ कर, परमार्थी के स्वागत की तैयारियों में लग गया।

खतो-किताबत से यह तय हो गया था कि परमार्थी खुद जोगिन्दर सिंह के मकान पर चला आएगा, क्योंकि परमार्थी यह तय न कर सका था कि वह बस से सफर करेगा या रेल से। फिर भी, यह बात तो यकीनी तौर पर तय हो गई थी कि जोगिंदर सिंह सोमवार को डाकखाने से छुट्टी लेकर सारा दिन अपने मेहमान का इंतजार करेगा।

नहा-धोकर और कपड़े बदल कर जोगिंदर सिंह देर तक रसोई में अपनी बीवी के पास बैठा रहा। दोनों ने चाय देर से पी।

इस ख्याल से कि शायद परमार्थी आ जाए। लेकिन जब वह न आया तो उन्होंने केक वगैरह संभाल कर, अलमारी में रख दिए और खुद खाली चाय पीकर मेहमान के इंतजार में बैठ गए।

जोगिंदर सिंह रसोई से उठ कर अपने कमरे में चला गया। आइने के सामने खड़े होकर, जब उसने अपनी दाढ़ी के बालों में लोहे के छोटे-छोटे क्लिप अटकाने शुरू किए ताकि वे नीचे की ओर तह हो जाएं तभी बाहर दरवाजे पर दस्तक हुई।

दाढ़ी को वैसे ही अधूरी हालत में छोड़कर उसने ड्योढ़ी का दरवाजा खोला। जैसा कि उसको मालूम था, सबसे पहले उसकी नजर परमार्थी की घनी, काली दाढ़ी पर पड़ी, जो उसकी अपनी दाढ़ी से बीस गुना बड़ी थी, बल्कि उससे भी कुछ ज्यादा।

परमार्थी के होंठों पर, जो बड़ी-बड़ी मूंछों के अंदर छिपे हुए थे, मुस्कराहट पैदा हुई। उसकी एक आंख जो जरा टेढ़ी थी, ज्यादा टेढ़ी हो गई। उसने बालों की लटों को एक तरफ झुकाकर, अपना हाथ, जो किसी किसान का हाथ मालूम होता था, जोगिंदर सिंह की ओर बढ़ा दिया।

जोगिंदर सिंह ने जब उसके हाथ की मजबूत गिरफ्त महसूस की और उसको परमार्थी का चमड़े का वह थैला नजर आया जो किसी गर्भवती औरत के पेट की तरह फूला हुआ था तो वह बड़ा प्रभावित हुआ और सिर्फ इतना कह सका, ‘परमार्थी जी, आपसे मिल कर मुझे बेहद खुशी हुई।’

परमार्थी को आए अब पंद्रह दिन हो चुके थे। उसके आने के दूसरे दिन ही उसकी बीवी और बच्ची भी आ गई थीं ये दोनों परमार्थी के साथ ही गांव से आई थीं, पर दो दिन के लिए मजंग में, दूर के एक रिश्तेदार के यहां ठहर गई थीं और चूंकि परमार्थी ने उस रिश्तेदार के पास उनका अधिक देर तक ठहरना ठीक नहीं समझा था, इसलिए उन्हें अपने पास बुलवा लिया था।

परमार्थी अपने साथ, सिवा उस फूले हुए बैग के, कुछ न लाया था। सर्दियों के दिन थे, इसलिए दोनों अफसानानिगार एक ही बिस्तर में सोए।

जोगिंदर सिंह का खयाल था कि परमार्थी की बीवी बिस्तर ले आएगी, पर जब वह सिर्फ एक कंबल लाई जो उन मां-बेटी के लिए भी नाकाफी था, तो जोगिंदर सिंह ने पहले की तरह, परमार्थी के पास एक ही लिहाफ में सोते रहने का फैसला कर लिया और अपने इस फैसले पर फख्न भी महसूस किया।

पहले चार दिन बड़ी दिलचस्प बातों में बीते। परमार्थी से अपने अफसानों की तारीफ सुनकर जोगिंदर सिंह बहुत खुश रहा। उसने अपना एक अफसाना जो अभी छपा न था, परमार्थी को सुनाया। परमार्थी ने उसकी बड़ी तारीफ की। दो अधूरे अफसाने भी सुनाए जिनके बारे में परमार्थी ने अच्छी राय जाहिर की। तरक्कीपसंद अदब पर बहस-मुबाहिसा भी होता रहा।

दूसरे अफसानानिगारों के अफसानों की खामियां निकाली गई। नई और पुरानी शायरी का मुकाबला किया गया। किस्सा मुख्तसर यह कि ये चार दिन अच्छी तरह कटे ओर हरिन्दर परमार्थी की शख्सियत से जोगिंदर सिंह बहुत प्रभावित हुआ। उसकी बातचीत का ढंग, जिसमें एक ही समय में बचपना और बुढ़ापा झलकता था, जोगिंदर को बहुत पसंद आया। उसकी लंबी दाढ़ी, जो उसकी अपनी दाढ़ी से बीस गुना अधिक बड़ी थी, उसके ख्यालों पर छा गई और बालों की लंबी-लंबी लटें जिनमें देहाती गीतों की रवानी थी, हर समय उसकी आंखों के सामने रहने लगी।

डाकखाने में चिट्ठियों की देखभाल करने के दौरान भी, परमार्थी के सिर की वे काली-काली लंबी लटें उससे भुलाए न बनती।

चार दिन में परमार्थी ने जोगिंदर सिंह को मोह लिया। वह उसका भक्त हो गया। उसकी टेढ़ी आंख में भी उसको खूबसूरती नजर आने लगी, बल्कि एक बार तो उसने सोचा अगर उसकी आंख में टेढ़ापन न होता तो उसके चेहरे पर यह महात्मापन कभी न पैदा होता।

परमार्थी के मोटे-मोटे होंठ जब उसकी घनी मूंछों के पीछे हिलते तो जोगिंदर ऐसा महसूस करता कि झाड़ियों में परिन्दे चहक रहे हैं। परमार्थी हौले-हौले बोलता था और बोलते-बोलते, जब वह अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरता तो जोगिंदर के दिल को बड़ी राहत मिलती। उसे ऐसा होता गोया उसके अपने दिल पर प्यार से हाथ फेरा जा रहा है। चार दिन तक जोगिंदर ऐसी फिजा में रहा जिसको अगर वह अपने किसी अफसाने में भी बयान करना चाहता तो न कर पाता।

अपनी बीवी के बारे में वह सोचता, ‘जब परमार्थी चला जाएगा और सब ठीक हो जाएगा तो मेरी शादी नए सिरे से होगी….मेरी वह पुरानी जिंदगी, जिसको टाट की तरह से लोग इस्तेमाल कर रहे हैं, लौट आएगी…..मैं फिर अपनी बीवी के साथ सो सकूंगा…और…’

इसके आगे, जब जोगिंदर सिंह सोचता तो उसकी आंखों में आंसू आ जाते और उसके गले में कोई कड़वी-सी चीज फंस जाती।

उसका जी चाहता कि दौड़ा-दौड़ा अंदर जाए और अमृत कौर को, जो कभी उसकी बीवी हुआ करती थी, अपने गले से लगा ले और रोना शुरू कर दे। पर ऐसा करने की उसमें हिम्मत नहीं थी, क्योंकि वह एक तरक्कीपसंद अफसानानिगार था।

कभी-कभी जोगिंदर सिंह के दिल में यह खयाल, दूध के उबाल की तरह उठता कि तरक्कीपसंदगी की यह रजाई, जो उसने ओढ़ रखी है, उतार फेंके और चिल्लाना शुरू कर दे, ‘परमार्थी, तरक्कीपसंदगी की ऐसी की तैसी। तुम और तुम्हारे इकट्ठे किए हुए गीत बकवास हैं। मुझे अपनी बीवी चाहिए…तुम्हारी सारी ख्वाहिशें तो गीतों में जज्ब हो चुकी हैं, मगर मैं अभी नौजवान हूं…मेरी हालत पर रहम करो…जरा सोचो तो, मैं, जो एक मिनट अपनी बीवी के बिना नहीं कर सकता, पच्चीस दिनों से तुम्हारे साथ, एक ही रजाई में सो रहा हूं…क्या यह जुल्म नहीं?’

जोगिंदर सिंह बस खौल कर रह जाता। परमार्थी उसकी हालत देखकर, हर शाम एक नया अफसाना उसे सुना देता और उसके साथ रजाई में सो जाता।

जब एक महीना बीत गया तो जोगिंदर सिंह के सब्र का बांध टूट गया। मौका पाकर, बाथरूम में वह अपनी बीवी से मिला। धड़कते हुए दिल के साथ, इस डर के मारे परमार्थी की बीवी न आ जाए, उसने जल्दी से उसे यूं चूमा जैसे डाकखाने में चिट्ठियों पर मोहर लगाई जाती है और कहा, ‘आज रात तुम जागती रहना। मैं परमार्थी से यह कह कर बाहर जा रहा हूं कि रात के ढाई बजे वापस आऊंगा। लेकिन मैं जल्दी आ जाऊंगा, बारह बजे…पूरे बारह बजे। मैं हौले-हौले दस्तक दूंगा। तुम चुपके से दरवाजा खोल देना और फिर हम….डयोढ़ी बिल्कुल अलग-थलग है। लेकिन तुम एहतियात के तौर पर वह दरवाजा, जो बाथरूम की तरफ खुलता है, बंद कर देना।’

बीवी को अच्छी तरह समझा कर, जोगिंदर सिंह परमार्थी से मिला और उससे विदा लेकर चला गया।

बारह बजने में चार सर्द घंटे बाकी थे, जिनमें से दो साइकिल पर इधर-उधर घूम कर बिताए, उसके बाद अगले दो घंटे बिताने के लिए वह अपने मकान के पास मैदान में बैठ गया और महसूस करने लगा कि वह रूमानी हो गया है। जब उसने सर्द रात की अंधियारी खामोशी का खयाल किया तो उसे एक जानी-पहचानी चीज मालूम हुई। ऊपर, ठिठुरे हुए आसमान पर, तारे चमक रहे थे, जैसे पानी की मोटी-मोटी बूंदें जम कर मोती बन गई हों। कभी-कभी रेलवे इंजन की चीख खामोशी को छेड़ देती और जोगिंदर सिंह का अफसानानिगार दिमाग यह सोचता कि खामोशी बर्फ का बहुत बड़ा ढेला है और सीटी की आवाज वह कील है जो उसकी छाती में धंस गई है।

बहुत देर तक जोगिंदर एक नए किस्म के रूमान को अपने दिल और दिमाग में फैलाता रहा और रात की अंधियारी खूबसूरतियों को गिनता रहा। अचानक इन खयालों से चौंक कर उसने घड़ी में वक्त देखा तो बारह बजने में दो मिनट बाकी थे।

उठ कर उसने घर का रुख किया और दरवाजे पर हौले से दस्तक दी। पांच सेकेंड बीत गए। दरवाजा नहीं खुला।

एक बार फिर उसने दस्तक दीं

दरवाजा खुला। जोगिंदर सिंह ने हौले से कहा, ‘अम्बो!’

इसके बाद जब नजरें उठा कर देखा तो अपने सामने अमृत कौर की जगह परमार्थी को खड़ा हुआ पाया। अंधेरे में जोगिंदर सिंह को ऐसा महसूस हुआ कि परमार्थी की दाढ़ी इतनी लंबी हो गई है कि जमीन को छू रही है।

फिर उसको परमार्थी की आवाज सुनाई दी, ‘तुम जल्दी आ गए…चलो यह भी अच्छा हुआ…मैंने अभी-अभी एक कहानी खत्म की है…आओ सुनो।’