नन्ही गोगो के इम्तिहान पास आ गए, तो वह सब कुछ छोड़कर पढ़ाई-लिखाई में लग गई। अब तो रात-दिन वह अपने होमवर्क की कॉपी लिए कभी उस पर गिनती लिख रही होती, कभी पहाड़े, कभी क, ख, ग, और कभी एबी-सी-डी-ई।
मम्मी को यह बड़ा अजीब लगता कि नन्ही गोगो पढ़ाई-लिखाई में इतनी सीरियस हो गई, इतनी ज्यादा सीरियस कि पढ़ाई के अलावा बाकी सारी चीजें भूल ही गई। मम्मी जो कुछ बनाकर देतीं, झटपट खा लेती और फिर से पढ़ाई में लग जाती। उसने सोच लिया था, इस बार मुझे अपनी क्लास में अव्वल आकर दिखाना है, ताकि लोग कहें, ‘देखो, नन्ही गोगो कितनी होशियार है। इस बार इसका एक भी नंबर नहीं कटा। पूरे में पूरे नंबर आए हैं।’
पर जिस समय गोगो नीटू को पढ़ाती, उस समय उसके चहरे पर जरूर हँसी रहती थी। क्योंकि नीटू को हँस-हँसकर न पढ़ाएगी, तो भला उसे क्या मजा आएगा?
आखिर दस दिन बाद गोगो के इम्तिहान खत्म हो गए। अब तो फुर्सत थी—छुट्टियाँ ही छुट्टियाँ…!
गोगो जमकर उछली, कूदी और नाची। एक दिन सुबह उसके लॉन में तितली आई। पीली, सुंदर, तितली। गोगो उसके पीछे दौड़ी और तितली ने उसे खूब छकाया।
फिर एक दिन की बात, अच्छी-अच्छी धूप खिली थी। नन्ही गोगो के पास उसकी सहेली मीनू आई। बोली, “चल गोगो, गेंद खेलें।”
मीनू के पास सुंदर-सी हरे रंग की गेद थी। गोगो झट उसके साथ खेलने चल दी। झूला पार्क में जाकर दोनों देर तक खेलती रहीं। गेंद टप्पा खाकर कभी इधर जाती, कभी उधर। दोनों सहेलियाँ उसे पकड़ने दौड़तीं। जिसके हाथ वह गेंद आ जाती, उसका एक नंबर बढ़ जाता। कभी गोगो जीतती तो कभी हारती, पर हारने पर गोगो का मन उदास हो जाता। उसे हारने की आदत जो नहीं थी।
आखिर खेलते-खेलते मीनू के चार प्वाइंट ज्यादा हो गए। नन्ही गोगो कुछ उदास हो गई। उसकी आँखों में मोती जैसे आँसू झिलमिला उठे।
इस पर मीनू बोली, “गोगो-गोगो, यह तो अच्छी बात नहीं है। अब हार गई हो तो रो रही हो। तब तो मैं ही झूठी-मूठी हार जाती हूँ, ताकि तुम हँसो—हँसती रहो।”
नन्ही गोगो ने झट आँसू पोंछ लिए। बोली, “मैं रो कहाँ रही हूँ?”
“और क्या, रो ही तो रही हो!” मीनू बोली, “इसका मतलब तो यह है कि तुम चाहती हो, खाली तुम जीतो, कोई और नहीं। अब मैं समझ गई, सब चाहे तुम्हें कुछ भी कहें, मगर तुम तुनकमिजाज हो।”
अब तो गोगो का जोर का रोना छूट गया।
इस पर मीनू ने चुप कराने की बजाय उसका और मजाक उड़ाया। अपनी हरी गेंद लेकर हँसते-हँसते बोली, “अच्छा गोगो, अब तू बैठकर आराम से रो, मैं तो अपने घर जाती हूँ।”
सुनकर गोगो का मन दुखी हो गया। इतनी चोट तो आज तक उसे किसी ने नहीं पहुँचाई थी।
नन्ही गोगो कुछ देर उदास-सी झूला पार्क में बैठी रही। फिर चुपचाप अपने घर की ओर जाने लगी।
आज बड़े दिनों में बाद वह खुद को एकदम अकेला महसूस कर रही थी। गोगो इतनी उदास थी कि उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। यहाँ तक कि झूला झूलने की इच्छा नहीं हुई।
घर जाते हुए भी रास्ते में वह बस मीनू की हरी गेंद के बारे में सोच रही थी। मन ही मन कह रही थी, ‘देखो कितना घमंड है मीनू को अपनी गेंद का! मैं भी आज पापा से कहकर अपने लिए नई गेंद मँगवाऊँगी।’
‘पर हाँ, यह बात तो मीनू की ठीक है कि मुझे अपनी हार पर रोना नहीं चाहिए था। खेल में जीत-हार तो चलती ही रहती है। इसमें भला रोना कैसा! यह मेरी गलती है। मुझे मीनू के आगे सॉरी फील करना चाहिए।’
गोगो यह सोचती हुई जा रही थी, कि अचानक चलते-चलते वह चौंक गई। उसे लगा, रास्ते में कोई उसे देखकर हँस रहा है।
उसका ध्यान खुद-ब-खुद अपने पैरों के पास गया। वहाँ एक मकई का दाना था, बहुत बड़ा-सा मकई का दाना। एकदम सुनहरा-सुनहरा। वह गोगो को देखकर हँस रहा था। उसकी हँसी इतनी प्यारी और इतनी भोली थी कि गोगो चलते-चलते रुक गई।
कुछ देर गोगो खड़ी-खड़ी उस गोलमटोल, भोले-भाले मगर शरारती मकई के दाने को देखती रही। फिर बोली, “अरे-अरे, तुम हँस क्यों रहे हो मकई के दाने?”
इस पर मकई का दाना और भी जोरों से हँसा—खुदर-खुदर…खुदर खुदर!
नन्ही गोगो को बड़ी हैरानी हुई। बोली, “ओ रे ओ मकई के दाने! तुमने बताया नहीं कि तुम हँस क्यों रहे हो…?”
“क्योंकि तुम बुद्धू हो, बुद्धू—बिल्कुल बुद्धू!” मकई का दाना फिर हँसा। फिर थोड़ा सीरियस होकर बोला, “तुम तो इतनी बुद्धू हो गोगो कि जरा-सी बात पर रो देती हो। अगर तुम्हारी सहेली मीनू ने मजाक उड़ाया तो इसका मतलब यह तो नहीं कि सारे के सारे लोग बुरे हैं। आओ चलो, मेरे साथ खेलो।”
“तुम्हारे साथ…?” गोगो की उदासी एकदम खत्म हो गई। उसे इतनी हैरानी हुई कि मारे खुशी के वह हँसने लगी। फिर बोली, “ओ रे ओ, मकई के दाने! भला तुम्हारे साथ मैं क्या खेलूँ?”
“अरे, मैं दौड़ तो लगा ही सकता हूँ…! तुम क्या मुझे कम समझती हो? खूब तेज दौड़ता हूँ मैं, खूब तेज। आओ, दौड़ो मेरे साथ।” मकई का दाना खिलखिलाकर बोला और झटपट उसने दौड़ लगा दी।
साथ ही साथ गोगो भी दौड़ पड़ी।
दोनों दौड़ते रहे…दौड़ते रहे देर तक। देर तक मगन होकर खेलते रहे। गोगो पहली बार इतनी तेज, इतनी तेज, दौड़ी थी कि एकदम पसीने-पसीने होकर हाँफ रही थी। पर उसे अच्छा भी लग रहा था। बड़े दिनों बाद वह अपने कमरे से निकलकर पार्क की खुली हवा में आई थी।
उसने एक बार फिर मकई के दाने की ओर देखा। वह अब भी उतनी ही शरारत से हँस रहा था और पार्क में बिल्कुल मीनू की हरी गेंद की तरह टप्पे खा रहा था। मजे में उछल और कूद रहा था।
मकई के दाने के ये अजीबोगरीब करतब देखकर गोगो इतनी खुश हुई कि जोर-जोर से तालियाँ बजाकर हँसने लगी।
कुछ देर बाद गोगो की मम्मी उसे ढूँढ़ते हुए झूला पार्क में आ गईं। वे कुछ परेशान-सी थीं।
असल में अभी कुछ देर पहले उनका ध्यान गया कि गोगो तो घर में कहीं नजर नहीं आ रही! उन्होंने कुछ देर घर में ऊपर-नीचे देखा था। एक-एक कमरा खँगाल लिया। फिर भी नहीं मिली तो सोचा, शायद झूला पार्क में खेलने आ गई होगी।
वाकई झूला पार्क में गोगो थी। खूब खुश थी और मकई के दाने के पीछे-पीछे दौड़ती हुई, उसके करतब देखती, तालियाँ बजाकर हँस रही थी।
मम्मी आईं तो मकई का दाना न जाने कहाँ लुक-छिप गया। मम्मी ने देखा, गोगो खूब खुशी से तालियाँ बजा रही है। नाच-गा रही है। और उसके चेहरे पर बड़ी लाली और रौनक है।
मम्मी ने बड़े प्यार से गोगो का माथा चूम लिया। बोलीं, “आज बड़े दिनों बाद तुझे इतना खुश देख रही हूँ। आज क्या बात है गोगो?”
“मम्मी-मम्मी, वो…मकई का दाना!” गोगो के मुँह से निकला।
“कौन-सा…कौन-सा मकई का दाना? क्या कह रही है तू?” मम्मी ने हैरानी से गोगो की ओर देखकर पूछा।
“अरे, वाकई…!” नन्ही गोगो ने हैरानी से देखा, मकई का दाना तो कहीं था ही नहीं। एकदम गायब हो गया था।
गोगो ने घर चलते हुए मम्मी को मकई के दाने का किस्सा सुनाया, तो मम्मी हँसकर बोलीं, “ओह, मैं समझ गई, तू जरूर कोई कहानी सुना रही है। वरना मकई का दाना भी कहीं गेंद की तरह उछलता-कूदता, नाचना और दौड़ता है!”
गोगो बिल्कुल समझ नहीं पा रही थी कि वह कैसे मम्मी को बताए कि मम्मी-मम्मी, वाकई मकई का दाना था और अभी-अभी मेरे साथ खूब जोरों से दौड़-भाग रहा था और खेल रहा था। तभी तो आज मैं खुश हूँ, इतनी खुश…इतनी खुश…कि क्या कहूँ!
उसने सोचा, अगली बार मकई का दाना आया, तो वह उसे मम्मी से जरूर मिलवाएगी।
ये उपन्यास ‘बच्चों के 7 रोचक उपन्यास’ किताब से ली गई है, इसकी और उपन्यास पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Bachchon Ke Saat Rochak Upanyaas (बच्चों के 7 रोचक उपन्यास)
