Samudra Manthan: हमारे वेदों और पुराणों में समुद्र मंथन प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन मिलता है। लेकिन ये मंथन केवल तत्कालीन समय में ही प्रासंगिक नहीं था अपितु आज भी इसका व्यापक महत्त्व है। लेख से जानें कि किस प्रकार हमारा संपूर्ण जीवन भी एक प्रकार का मंथन है।
समुद्र मंथन की पौराणिक कथा से तो हम सब परिचित ही हैं। लेकिन प्रतीक रूप में देखें तो समुद्र मंथन तो एक सनातन क्रिया है। मानव सभ्यता के प्रारंभ से लेकर अब तक यह क्रिया निरंतर होती आई है। व्यक्ति
के संदर्भ में भी और मानव समाज के संदर्भ में भी। समुद्र है ज्ञान का प्रतीक, जो अथाह है, अपार है। इसके मंथन से मूल्यवान उपलब्धि और क्षमताओं के रत्न मिलते हैं। मंथन का अर्थ है, अध्ययन, चिंतन, मनन और (ज्ञान का) सृजन। मंथन किसी द्रव को चक्राकार घुमाने की क्रिया है। ज्ञान जल को भी चक्राकार रूप से मथना पड़ता है। पहले मोटी-मोटी बातें जानी जाती हैं, फिर अॢजत जानकारी के परिप्रेक्ष्य में पहले सीखी हुई बातों का पुनरावलोकन किया जाता है। यदि आवश्यक हुआ तो पूर्व अॢजत धारणाओं में संशोधन किया जाता है। विज्ञान के अध्ययन पर तो यह बात विशेष रूप से लागू होती है।
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मंदराचल की कथा
समुद्र मंथन के लिए मंदराचल (मंदार गिरी) को मथानी बनाने का वर्णन है। पर्वत प्रतीक है विशालता का, ऊंचाई का और अचल बने रहने का। ज्ञान सिंधु मथने के लिए बड़ी इच्छा शक्ति, उच्च आकांक्षा, और अडिग निष्ठा की जरूरत होती है। इन गुणों को पर्वताकार लगन कह सकते हैं। अब देखिए, रस्सी के रूप में वासुकि (सर्प) का उपयोग। सर्प लंबा और कष्ट साहय होता है तथा कुंडली का आकार धारण करता है। यह प्रतीक है उस दीर्घ कष्टसाहक प्रयत्न का जिसे अटल निष्ठा के इर्द-गिर्द लपेटकर ज्ञान सिंधु का मंथन करना पड़ता है। प्रयत्न को कुंडली की भांति चक्राकार रूप से नियोजित करना पड़ता है ताकि उसकी पकड़ ढीली न पड़े। कथा में मंदराचल को कच्छप (कछुए की पीठ पर टिकाने का वर्णन है। पीठ कठोर (दृढ़) होती है। कछुआ समुद्र के किनारे रहता है, वहीं का जीव है। यहां आशय है अनुभव (ज्ञान सिंधु की तटवर्ती भूमि) से उत्पन्न उन सुस्थापित (सुदृढ़) सिद्धांतों और प्रमेयों से जो स्वयं ज्ञान का भाग है, उसी में निहित है। इनका वाहक सद्गुरु होता है। गुरु पर ही अपनी अटल निष्ठा टिकाकर उसे अध्ययन (मंथन) का आधार बनाना पड़ता है।
देवताओं और असुरों ने मिलकर किया मंथन
समुद्र मंथन देवता और असुर दोनों मिलकर करते हैं। आशय दैवी और आसुरी वृत्तियों से है। मनुष्य में यह दोनों विद्यमान हैं तथा ज्ञान मंथन के लिए दोनों की आवश्यकता होती है। दैवी गुण हैं- त्याग, निस्पृहता, आस्था, साधना, सत्यान्वेषण, विनम्रता, सौहार्द्र आदि। आसुरी गुण हैं- निशा- जागरण, घोर श्रम, कुछ हद तक हठधॢमता, तीव्र लालसा, उन्माद की सीमा तक (अध्ययन में) लिप्तता, स्वयं और स्वजनों के प्रति अन्याय, काया का उत्पीड़न, तथ्यों का संग्रह, तांत्रिक अभियोजन, अपव्यय, दुस्साहस इत्यादि। जीव विज्ञान के अध्ययन में तो जीव हिंसा भी करनी पड़ती है। इन दोनों प्रकार के गुणों में उचित तालमेल की जरूरत होती है। ताकि जब एक प्रकार की प्रवृत्तियों को बढ़ाने की जरूरत हो तो दूसरे प्रकार की वृत्तियां कुछ ढीली पड़ जाएं। (जैसा कि मंथन में होता है)।
प्रयत्नरूपी सर्प के दो सिरे वे कारण हैं जिनसे प्रयत्न छूट सकता है। एक ओर है भौतिक कठिनाइयां, विपत्तियां, असफलता जनित हताशा इत्यादि। इनका प्रतीक सर्प का मुख है। इसे पकड़े रहने के लिए दुस्साहस, हठधॢमता, उत्कट इच्छा और उन्माद जैसे दानवीय गुण चाहिए। इसलिए कथा में सर्प का मुंह दानव पकड़ते हैं। दूसरी ओर सांसारिक सुखों और पलायनवादिता का फिसलन (पूंछ है), जहां से प्रयत्न छूटता है। इसे पकड़े रहने के लिए निस्पृहता (भोगों) से त्याग जैसे गुण चाहिए। अत: पूंछ देवता पकड़ते हैं।
ज्ञान सिंधु के मंथन से उपलब्धियों के जो रत्न मिलते हैं, उन्हें 14 श्रेणियों में रखा जा सकता है।
1.लक्ष्मी- समृद्धि एवं संपन्नता (भौतिक और मानसिक)। शास्त्रों में विद्या को धन कहा गया है। मानव सभ्यता के संदर्भ में देखेें तो जैसे-जैसे ज्ञान-विज्ञान की उन्नति हुई है, मानव समाज अधिक संपन्न हुआ है। उसका जीवन स्तर ऊपर उठा है।
2. कौस्तुभ मणि- अलंकरण का प्रतीक। विद्या मनुष्य का आभूषण है। पाश्चात्य विद्वान बेकन ने भी कहा है कि ‘अध्ययन से व्यक्ति अलंकृत होता है (स्टडीज सर्व फॉर ऑनमिंट)।
3. कल्पवृक्ष- भांति-भांति के सुख। दूसरे अर्थ में देखें तो ज्ञान-विज्ञान की अनेक शाखाएं-प्रशाखाएं जिनसे वांछित फल मिलते हैं। ज्ञान मंथन से नई-नई विद्याएं पनपती हैं, विकसित होती हैं और फल देती हैं। इसलिए इसे कल्पवृक्ष कहा गया है।
4. वारुणी- अभिमान का दंभ रूपी नशा। बहुधा मनुष्य को अपने ज्ञान पर अभिमान होने लगता है, जिसके कारण वह विवेक खो सकता है। अत: यह दुर्गुण वारुणी (शराब) है।
5. धन्वंतरि (वैद्यराज)- रुग्ण मनोवृत्तियों को सुधारने का गुण। ज्ञान मंथन से रुग्ण मानसिकता ठीक होती है और सद्गुण (स्वास्थ्य) लाभ होता है। मानव समाज के संदर्भ में इसे चिकित्सा विज्ञान के रूप में देखा जा सकता है। जैसे-जैसे वैज्ञानिक उन्नति हुई है, चिकित्सा के क्षेत्र में नए-नए आयाम जुड़े हैं। असाध्य रोगों की चिकित्सा भी विकसित हुई है और हो रही है।
6. चंद्रमा- सौम्य प्रकाश (विवेक) का प्रतीक है। विद्या को प्रकाश की उपमा दी जाती है। यह प्रकाश प्रकृति के रहस्य देख पाने की दृष्टि देता है।
7.कामधेनु- मनचाहा काम करने की क्षमता। कामधेनु से जब चाहो, जितना चाहो, उतना दूध दुहा जा सकता है। ज्ञान मंथन से मनुष्य में वह क्षमता आ जाती है कि वह मनचाहा कर्म कर सकता है।
8. ऐरावत- इंद्र का हाथी। मान-सम्मान, प्रतिष्ठा और ऊंचे पद का प्रतीक। ऋषियों और गुरुओं का स्थान शासक से भी ऊंचा होता है। ब्रह्मïॢष पद के सामने विश्वामित्र ने राजॢष पद को नीचा समझा था।
9. रंभादिक अप्सराएं- ललित कलाएं। कलाएं मनुष्य का मनोरंजन करती हैं, सौंदर्य की पूॢत हैं, स्वॢगक आनंद देती हैं। ज्ञान से ही कलाएं उत्पन्न होती हैं, विकसित होती हैं और उनमें निखार आता है।
10. उच्चैश्रवा अश्व- सात मुंह वाला घोड़ा बल, शक्ति और शौर्य का प्रतीक है। ज्ञान मंथन से बुद्धिबल, आत्मबल, तपोबल, मनोबल, नैतिक बल, भौतिक बल और चरित्र बल आदि सप्त प्रकार के बल पुष्ट होते हैं। इन्हें सात मुख वाला अश्व समझना चाहिए।
11. कालकूट विष- घातक शक्तियां (जैसे परमाणु बम इत्यादि)। दूसरों को हानि पहुंचाने की क्षमता। इन पर समाज कल्याण की भावना (शिव तत्त्व) द्वारा नियंत्रण रखना चाहिए। कालकूट विष का शिव द्वारा पान किए जाने का यही अर्थ है।
12. शार्ड्.गधर- भगवान विष्णु का धनुष। विष्णु सृष्टि का पालन, संचालन करते हैं। उनका धनुष उस क्षमता का प्रतीक है जो मनुष्य या मानव समाज की सुरक्षा हेतु कार्य करती है। इससे किसी भी अनिष्टकारी तत्त्व (शत्रु का निराकरण) किया जा सकता है।
13.पांचजन्य शंख- नाद एवं उद्घोषणा का प्रतीक। वह प्रसिद्धि और प्रामाणिकता जिससे विद्वत समाज में किसी विद्वान की बात सुनी जाती है। ऐसी उपलब्धि बहुत बाद में मिल पाती है।
14. अमृत- वह उपलब्धि या कालजयी रचना, कृति या आविष्कार जिससे व्यक्ति का नाम अमर हो जाता है या जिससे समाज को अमृत तुल्य जीवन मिलता है। यह ज्ञान मंथन की चरम उपलब्धि है। इसलिए यह समुद्र मंथन में सबसे बाद में निकलता है। भरा हुआ अमृत कुंभ पूर्णता का प्रतीक है। जिस पात्र (व्यक्ति) में यह अमृत होता है वह मानो हर दृष्टि से परिपूर्ण है।
अमृत तुल्य ज्ञान का उपयोग देवता (दैवी गुण) अपने संवर्धन हेतु करना चाहते हैं और दानव (आसुरी गुण) अपने उद्देश्य की पूॢत के लिए। इसके लिए दोनों में छीना-झपटी होती है परन्तु विजय अंतत: देवताओं की होती है। देवता अमृत कुंभ को लेकर भागते हैं तो पृथ्वी पर चार स्थानों (कुंभ तीर्थों) पर अमृत छलकता है। तात्पर्य है कि ज्ञान का अमृत लाभ चार प्रकार के स्थानों पर मनुष्य को प्राप्त होता है। (हो सकता है)। एक दक्षिणापथ (दक्षिण पंथी रचनात्मकता) में जहां देवत्त्व की गोदावरी बहती है। इसका प्रतीक नासिक है। दूसरे, विशुद्ध ज्ञान के उन केंद्रों पर जहां तेज (क्षिप्र) गति से ज्ञान की अविरल धारा (क्षिप्रा) बहती है। अर्थात् जहां सक्रिय शोध कार्य होता है ऐसे शोध संस्थानों पर। इसका प्रतीक है उज्जैन। तीसरे जहां ज्ञान की शाखाओं (विधाओं) का त्रिवेणी संगम होता है। इसका प्रतीक है तीर्थराज प्रयाग। चौथे वहां, जहां ज्ञान गंगा बौद्धिक ऊंचाइयों (हिमालय) से उतरकर जन साधारण के कल्याण के लिए उपयोग के धरातल (मैदान) पर प्रकट होती है। इसका प्रतीक है हरिद्वार। यह चारों कुंभ तीर्थ हैं।
जाहिर है कि इन चारों स्थानों पर ज्ञान का प्रवाहमान होना आवश्यक है। ज्ञान तभी सार्थक होता है जब उसमें गति बनी रहती है। रुका हुआ झील रूपी ज्ञान, भले ही वह मानसरोवर जैसा विशाल और पवित्र क्यों न हो, अमृत लाभ नहीं देता।
