Parentage Form: अर्चन की परम्परा पुरातन काल से हमारे समाज में चली आ रही है। जिन माता-पिता की कृपा से यह सुंदर शरीर हासिल हुआ है और जिन्होंने हमारा लालन-पालन कर हमें जीवन में स्थापित किया है और उत्तराधिकार में हमें अपनी श्रम संचित सम्पत्ति प्रदान की उनका पुण्य स्मरण करना धर्म ही नहीं, वरन हमारा नैतिक व सामाजिक कर्तव्य है।
Also read: “समाज का कड़वा सच बयां करती बलवा”
ग्रंथों के मुताबिक पितृ पूजा प्रति वर्ष निश्चित समय पर करने का विधान है जब हम पूर्वजों को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर और उनके गुणगान कर उनकेप्रति अपना आभार प्रकट करते हैं। 16 दिन का यह पितृ पक्ष काल भाद्रपद मास की पूर्णिमा को मरण तिथि होती है। उसी तिथि को पूर्वजों का पुण्य स्मरण कर उनके गुणों की बड़ाई और उनके प्रति विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है। हमारा यह विश्वास है कि इस प्रकार की पूजा से वर्ष भर हमारे पितरों को तृप्ति होती है। श्राद्ध करने वालों के अंदर भी दिव्य गुणों का विकास होता है। उन्हें पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होकर धन-धान्य, सुख, शांति तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। श्राद्ध करना हमारी संस्कृति का एक अभिन्न कार्य है जो धर्म परिवर्तन करने पर भी बना रहता है। नागालैंड के जो नागा ईसाई हो गए हैं लेकिन वे भी पितरों का पूजन करते हैं।
नागा अपने पूर्वजों के रहने के स्थान पर 12 फुट लम्बा, चार फुट चौड़ा पत्थर रखते हैं। चढ़ावा चढ़ाते हैं और प्रार्थना करते हैं। उनका विश्वास है कि इस पत्थर में शक्ति आ जाती है पितृ पक्ष की प्रथा किसी न किसी रूप में विश्व में करीब समस्त धर्मों व सम्प्रदाओं में प्रचलित है। मुसलमानों में ‘शब्बेरात’ और ईसाइयों में ‘डेड डे मनाया जाता है। महापुरुषों की पुण्य तिथियों पर उन्हें श्रद्धांजलि देने की प्रथा को सारे देश मनाते हैं। उनके गुणों का गान होता है। यह हिंदुओं की पितृ पूजा का ही संक्षिप्त रूप है।
अमेरिका- अमेरिका के कैलिफोर्निया निवासी रेड इंडियंस में भी श्राद्ध की प्रथा है। प्रतिवर्ष फरवरी मास में वह मृतात्मा त्योहार मनाया जाता है। इस अवसर पर गांव के कुछ व्यक्ति कुछ दिनों तक उपवास करते हैं। त्योहार के दिन वे अपने शरीर पर रंग और पक्षी के पैर लगाकर नाचते-गाते हैं। रात्रि को हाथों में मशाल लेकर जंगल में जाते हैं और चक्कर काटकर वापर आकर गांव में उन व्यक्तियों के घर जाते हैं जिनके घर में पिछले तीन साल के अंदर मृत्यु हुई हैै। उन्हें देखते ही उस घर के व्यक्ति खूब रोते-पीटते हैं। उनका विश्वास है कि जंगल से आए लोगों में उस घर के मृतकों की आत्मा आ जाती है।
जापान- जापान में श्राद्ध प्रथा को दीपोत्सव के नाम से जाना जाता है। जापानियों की ऐसी आस्था है कि मृतकों की आत्माएं वर्ष में एक बार मृत्युलोक में उतरती हैं। उनका यह विश्वास है कि उन आत्माओं को मार्ग दिखाने के लिए प्रकाश की जरूरत होती है। इसलिए कब्रों के पास विभिन्न रंगों की लालटेन लटकाई जाती है। घरों के आसपास और बगीचों में भी लालटेन व मोमबत्तियां जलाकर रोशनी की जाती है। एक प्रकार से समस्त नगर ही रोशनी से जगमगा उठता है। सांयकाल परिवार के सारे लोग सम्मिलित होकर एक विराट जुलूस के रूप में नगर के बाहर उस निर्धारित स्थान पर जाते हैं जहां मृतकों की आत्माओं को अपने घर आने का निमंत्रण देते हंै। लोग घर वापस आने पर मेज पर विभिन्न प्रकार के भोजन लगाते हैं। वहां घर के व्यक्तियों के अलावा अपने परिवार के मृतकों की आत्माओं के लिए भी स्थान रखते हैं। भोजन समाप्त कर लोग अपने पास-पड़ोसियों के घर मृतकों की आत्माओं से मिलने जुलने जाते हैं।
सारी रात इसी तरह घूमते बीत जाती है। उत्सव काल समाप्त होने पर फिर लोग जुलूस बनाकर और रोशनी लेकर मृतकों की आत्माओं को विदा करने उसी स्थान पर जाते हैं। जहां उनका स्वागत किया था। यह निश्चित करने के लिए कि कहीं कोई आत्मा मोहवश रह तो नहीं गई। घर के चारों कोनों में छड़ी चलाते हैं और छतों पर ढेले फेंकते हैं कि जिससे वह आत्मा वापस चली जाए। कुछ स्थानों पर यह भी रिवाज है कि भोजन सामग्री छोटी-छोटी नावों में रखकर मृतकों की आत्माओं के लिए समुद्र में या नदी में छोड़ते हैं।
श्रीलंका- श्रीलंका में यह उत्सव 31 अक्टूबर को मनाया जाता है। उन दिन कब्रें साफ-सुथरी की जाती है तथा गेंदे के फूल व नारंगी की कलियों के हार उन पर चढ़ए जाते हैं। जमीन पर कोयला बिछाकर लाख से अनेक प्रकार की चित्रकारी की जाती है।

2 नवंबर को आत्माओं को सोल केक (दूध चावल की बनी रोटी) कब्रों पर अर्पित की जाती है। जो व्यक्ति उस दिन घर से बाहर होता है वह भी यथासंभव आकर अपने सगे-संबंधियों की भूखी आत्माओं को उनकी कब्र पर सोल केक अर्पित करता है। अगले दिन कब्रों पर 8 बजे सुबह पूजा-पाठ होता है।
जिसमें मृतकों की आत्माओं की सद्ïगति की प्रार्थना की जाती है। उन दिन प्रत्येक गृहस्थि भोजन का एक थाल या प्लेट गिरजाघर की वेदी पर रखता है। उनका विश्वास है कि इस तरह रखा हुआ भोजन मृतकों की आत्माओं को संतुष्टï करता है।
बर्मा- म्यांमार (बर्मा) में मृतकों की आत्माओं का पर्व अगस्त के अंत तथा सितंबर के प्रारंभ में मनाया जाता है। पर्व के दिन मेज पर खाने की सामग्री सजा दी जाती है और नए वस्त्र दीवारों पर टांग दिए जाते हैं फिर घंटा बजता है और उसके बजने पर एकत्रित लोग शोकाकुल हो जाते हैं। दूसरे दिन समस्त खाद्य पदार्थ उठाकर फेंक दिए जाते हैं।
अफ्रीका- अफ्रीका की अनेक जातियां भी अपने पितरों को श्राद्ध करती है। डायना जाति के लोग अप्रैल मास में और बेतिया व कुनामा जातियों के लोग नवंबर में यह पर्व मनाते हैं। जौ की मदिरा का एक-एक प्याला प्रत्येक मृत व्यक्ति के नाम का एक निश्चित स्थान पर रख दिया जाता है। दो दिन तक पितरों के अर्पण के बाद घर के सब व्यक्ति उसे प्रसाद के रूप में पीते हंै। इसके बाद कुछ परिवार एक जगह एकत्रित होकर नाचते तथा गाते हैं।
सुब्बा- सुब्बा नामक टापू में भी वर्ष के प्रारंभ में पितरों का उत्सव मनाया जाता है। लोग निश्चित तिथि पर एक स्थान पर एकत्रित होकर सिर धुन-धुन कर रोते हैं। वहां से लौटकर अपने-अपने घर के सामने एक पशु या पक्षी का बलिदान कर उसके मांस के टुकड़े चावल के पिंड में पितरों को अर्पित करते हंै। कुछ समय बाद ये चीजें लोगों के खाने के लिए बांट दी जाती है। उस दिन रात भर गाते-बजाते उत्सव मनाते हैं। उनका विश्वास है कि उनके मृतकों की आत्माएं उस दिन उस उत्सव में सम्मिलित होती हैं। प्रात: काल होते ही लोग जुलूस के रूप में कुछ दूर तक जाते हैं। और इस प्रकार पितरों की आत्माओं को विदा कर श्राद्ध की विधि समाप्त होती है।
उत्तरी ध्रुव- उत्तरी ध्रुव के निवासी एस्किमों में नवंबर मास के अंतिम दिनों में पितरों का यह पर्व मनाया जाता है। गांव के उस मैदान में जहां मृत व्यक्ति बैठा करता था दीपक जलाते हैं। मृत पुरुषों की कब्र पर लाख की एक रकाबी रख दी जाती है। उनकी आस्था है कि मृत व्यक्ति की आत्मा उस दिन वहां आती है। किसी जीवित व्यक्ति को जो मृत व्यक्ति नाम का हो उसे खिलाया पिलाया जाता है और उसे कपड़े आदि का दान दिया जाता है।
चीन- चीन के देशवासी भी पितृ पूजा का पर्व मनाते हैं। पुराने मिश्र की मृत पूजा अब ‘ओरासिरस’ नाम से विख्यात है। अरबी सभ्यता भी सप्तवर्गों की मान्यता रखती है।
श्राद्ध करने वालों के अंदर भी दिव्य गुणों का विकास होता है। उन्हें पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होकर धन-धान्य, सुख, शांति तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। श्राद्ध करना हमारी संस्कृति का एक अभिन्न कार्य है।
