इन्होंने समय-समय पर अपनी धारदार लेखनी से देश-दुनिया के रोमांचक, सामाजिक सरोकार के अनछुए पहलुओं को उजागर किया है। सामाजिक ताने-बाने के इर्द-गिर्द घूमती इनकी लेखनी स्याह, दंगा और वैशाली के बाद अब ‘बलवा’ के रूप में सभी के सामने प्रस्तुत है। बलवा श्री मुख्तार अब्बास नकवी के द्वारा रचित एक ऐसा उपन्यास है जो कि नब्बे के दशक के बगावतों और उसके पीछे के बाहुबलियों की कहानी बयां करता है। इस कहानी के जरिये समाज के उस कड़वे पहलू को उजागर किया है जिसमें धर्म के नाम पर ठेकेदारी करने वाले ये मौलवी और पण्डित ही अपने स्वार्थ सिद्धि हेतु दंगे करवाते देर नहीं लगाते। धर्म की आड़ में आम जन को भ्रमित कर समाज को दो हिस्सों में बांटना इनका पेशा बन जाता है और मासूम जनता इन धर्म के ठेकेदारों के काले सच से अंजान आपस में लडऩे में मशगूल हो जाती है। यह कहानी आपको यह सोचने पर मजबूर कर देगी कि वास्तव में धर्म के नाम पर, धर्म की आड़ में खेला गया यह खूनी खेल हमें ले कहां जा रहा है? साथ ही हकीकत में इन बलवों के पीछे की जड़ में दोहरे चरित्र वाले ये लोग हैं कौन? धर्म के नाम पर खेला गया यह खेल उन चार युवाओं को अपनों के ही खिलाफ बगावत के रास्ते चलने को मजबूर कर देता है। हैरत की बात यह है कि जहां एक ओर झूठ के सहारे ये पण्डित और मौलवी अपने सियासती दावों को पूरा करने में लगे हैं वहीं मासूम जनता इन चालबाजों के मंसूबों से बेखबर उन्हें अपना धर्मअनुयायी बनाने में लगी है। सौ पन्नों में इस ज्वलंत मुद्दे को एक कहानी का रूप दे देना वाकई लेखक के लेखन कौशल की काबिलियत है। चूंकि शुरुआत से ही इनकी पृष्ठभूमि सामाजिक सरोकारों से जुड़ी रही है इसलिए कहीं ना कहीं इनके लेखन में भी समाज के अन्दर व्याप्त संघर्षों की कहानी परिलक्षित होती है। कहानी की शुरुआत कुछ यूं होती है कि जहां एक तरफ धर्म के ठेकेदार मौलाना मुश्ताक व पण्डित संकठा प्रसाद अपने स्वार्थ की चाह को पूरा करने हेतु समाज में हिंसा-खून खराबा और आतंक का षड्यन्त्र करते हैं तो वहीं दूसरी ओर पुनीतमुशीर जैसे नौजवान अमन और इन्साफ के लिए अकेले संघर्ष करते नजर आते हैं। गजाला, मौलाना मुश्ताक की खुद की इकलौती औलाद अपने ही पिता से बगावत कर पुनीत के साथ अमन के आस की अलख जरूर जगाती है, पर समाज उनका साथ नहीं देता। कैसे पूरा शहर ही दंगों की चपेट में आ अपने अस्तित्व को खोने की कगार पर आ जाता है। गर्भवती महिलाएं, बच्चे, शहीद हुए सैनिकों की अबला पत्नियां चारों तरफ त्राहिमाम चित्कार क्रन्दन जलता शहर, धर्म के नाम पर फैलाई गई नफरत की आग के आगे पूरा शहर जलने को मजबूर हो जाता है कुछ ऐसी है ये स्वार्थपरस्ती की बलवा। घोर विडंबना यह है कि मासूम जनता अपने मसीहाओं को ही अपना दुश्मन मानने पर अड़ी रहती है साथ ही अपने गुनहगारों को अपना देवता जिसकी उपज की नींव बनता है बलवा।भाषाई स्तर पर पुस्तक उम्दा है कहीं पर भी जरूरत से ज्यादा लाग-लपेट ना होने की वजह से कहानी रोचक और पठनीय हो जाती है। पुस्तक में जो कहानी का कसाव है, जिस बेहतरीन ढंग से समाज के इस ज्वलंत मुद्दे को गढ़ा गया है जो कल्पना रची गई है, जो पात्र चित्रित किए गए हैं वह कहीं और के नहीं हमारे आस-पास के ही हैं। हमारी रोजमर्रा की जिंदगी से ली गई ये कहानी काल्पनिक होते हुए भी हमें वास्तविकता से जोड़ती है। कहानी के आखिरी हिस्सों में जोगिंदर सिंह जैसे काल्पनिक पात्रों के जरिए लेखक ने मानव मूल्यों की वेदना उनके संघर्षों, आजीवन किए गलत कार्यों के लिए आत्मिक पश्चाताप को भी बड़े ही मानवीय ढंग से चित्रित किया है। इस कहानी में इतने नकारात्मक पहलुओं के बीच भी चार ऐसे युवा हैं, जो अमन की उम्मीद को संजोने में अपनी जान लगा देते हैं। कहानी का एक बहुत बड़ा हिस्सा हमें यह बताता है कि हम कैसे अपने ही अंदर पनपने वाली कमियों के अधीन हो जाते हैं और देश में ‘बलवा’ जैसी स्थिति उत्पन्न क र देते हैं। महिलाओं के एक बहुत मजबूत पक्ष को भी इन्होंने अपनी इस कहानी के माध्यम से पाठकों के बीच में रखने की कोशिश की है। बहुत मुश्किल होता है गलत को जानकर उसे गलत कहना। उस गलत के खिलाफ अपनों के ही खिलाफ बगावत पर उतर जाना। शालिनी और गजाला ऐसा काल्पनिक चरित्र है इस कहानी में जो आखिरी दम तक साहस के साथ गलत के खिलाफ संघर्ष करते नजर आते हैं। महिला सशक्तिकरण के जो खूबसूरती भरे आयाम उन्होनें अपनी कहानी में गढ़े हैं वह सचमुच ही प्रशंसनीय है। इतने कम शब्दों में इतनी जोरदार पटकथा, समाज के अंदर व्याप्त कुरीतियों को जानने के लिए मुख्तार साहब की यह पुस्तक निसंदेह ही पठनीय है।