कोरोना के बाद से अधिकांश पेरेंट्स एक परेशानी का सामना कर रहे हैं और वो है बच्चे का देरी से बोलना या फिर साफ न बोल पाना। कोविड काल के दौरान जिन बच्चों का जन्म हुआ, उनमें यह समस्या ज्यादा देखने को मिल रही है। क्योंकि वे लोगों से ज्यादा मिल नहीं पाए। पहले जो बच्चे नौ से दस माह में बोलना शुरू कर रहे थे, वे अब डेढ़ से दो साल में भी साफ बोलना शुरू नहीं कर पा रहे हैं। वहीं पांच से छह साल के बच्चे भी स्पष्ट बोलने में परेशानी महसूस कर रहे हैं।
नन्हीं उम्र से ही बच्चे समझने लगते हैं आवाज

क्या आपने कभी महसूस किया है कि जैसे ही आप किसी एक माह के बच्चे को आवाज लगाते हैं या फिर उसके नाम से उसे पुकारते हैं तो वो तुरंत आपकी ओर देखता है। जी हां, बार-बार सुनने से वो आपकी आवाज पहचानने लगता है। दरअसल, बच्चे जब 24 दिन के होते हैं, तब वे आवाज पहचानने लगते हैं। इतना ही नहीं पांच माह का बच्चा म्यूजिक पर भी रिएक्ट करने लगता है। इसलिए बचपन में आप बच्चे से जितनी बात करेंगे, उसके कानों में जितने नए और अच्छे शब्द डालेंगे, उतना ही उसका भाषाई विकास होगा।
क्या है बच्चों के देरी से बोलने का कारण

हर बच्चे का शारीरिक और मानसिक विकास अलग अलग होता है, यही कारण है कि कुछ बच्चे जल्दी तो कुछ देर से बोलना सीखते हैं। सामान्य रूप से एक वर्ष के बाद बच्चे आसान शब्द बोलना शुरू कर देते हैं। इसी के साथ कभी कभी देरी से बोलने या साफ न बोल पाने के पीछे स्वास्थ्य समस्या या अनुवांशिक कारण भी हो सकते हैं। लेकिन अब सामान्य तौर पर बच्चे देरी से बोल रहे हैं। मनोचिकित्सकों के अनुसार इसके लिए कई दूसरे फेक्टर भी जिम्मेदार हैं। आजकल एकल परिवार का चलन है, ऐसे में दिनभर माता-पिता अपने कामों में बिजी रहते हैं और बच्चे के साथ बहुत ज्यादा समय नहीं बिता पाते। पहले संयुक्त परिवार होते थे, जिसमें बहुत से लोग रहते थे और सभी बच्चे को अपना टाइम देते थे, उससे बात करते थे। ऐसे में बच्चा नया शब्द सुनता था और बोलने की कोशिश करता था। अब ये प्रक्रिया कम हो गई है। इसलिए जरूरी है कि आप बच्चे को समय दें और काम करते करते भी बीच बीच में उससे बातें करें।
स्क्रीन टाइम नहीं, अपना टाइम दें

आजकल छोटे-छोटे बच्चों के हाथों में आप मोबाइल आराम से देख सकते हैं। इससे बच्चे चुप तो रहते हैं, लेकिन बहुत कुछ नया सीख नहीं पाते। टीवी और मोबाइल पर आने वाले वीडियो को देखकर बच्चे वैसा ही बोलने की कोशिश करने लगते हैं। मनोचिकित्सकों के अनुसार कई बच्चे कार्टून कैरेक्टर के जैसे बोलने लगते हैं, तुतलाने लगते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि वे सब कुछ स्क्रीन से सीख रहे हैं। ऐसे में जरूरी है कि जब बच्चा कुछ गलत बोले तो आप उसे ठीक करें और सही शब्द का उच्चारण उससे बार-बार करवाएं। विशेषज्ञों के अनुसार दो साल तक के बच्चों की भाषा आपको और आपके परिचितों को 50 से 75 प्रतिशत तक समझ में आनी चाहिए। वहीं तीन साल के बच्चे की 75 से लेकर 100 प्रतिशत बात दूसरों के समझ में आनी चाहिए। चार साल के बच्चे की भाषा बिल्कुल साफ होनी चाहिए।
ऐसे बोलना सिखाएं अपने जिगर के टुकड़ों को

यह बात हम सभी जानते हैं कि बच्चे की सीख की नींव मजबूत होनी चाहिए। अगर आप चाहती हैं कि आपका बच्चा जल्दी और साफ बोले तो उसके बड़े होने का इंतजार न करें। जन्म के दो सप्ताह बाद से ही उसकी ट्रेनिंग शुरू कर दें। दो सप्ताह के बाद से नौ माह का होने तक उसे डेली बुक्स के कुछ पन्ने पढ़कर सुनाएं। आपको यह सुनने में भले ही अजीब लगे, लेकिन इससे आपके बच्चे का भाषाई विकास जल्दी और मजबूत होगा। वह शब्द जल्दी समझने लगेगा और बोलने भी लगेगा।
स्टडी से साबित हुआ किताबों का असर

मार्शल यूनिवर्सिटी में एडवर्ड्स स्कूल ऑफ मेडिसिन की स्टडी में यह बात सामने आई है कि बच्चों के दिमाग पर बुक्स का बचपन से ही सकारात्मक असर पड़ता है। स्टडी के अनुसार डेली बुक के कुछ पेज पढ़कर सुनाने से 12 माह और उससे कम उम्र के बच्चों में बोलने की समझ विकसित होने लगती है। अमेरिकन बोर्ड ऑफ फैमिली मेडिसिन के जर्नल में प्रकाशित इस स्टडी में शामिल कुछ पैरेंट्स को 20 बुक्स का सेट दिया गया। इसमें विशेष रूप से भाषा के विकास और पिक्चर वाली बुक्स शामिल थीं। सभी पेरेंट्स ने हर दो वीक में वेलनेस चेकअप के दौरान बच्चों की सीखने की क्षमता का टेस्ट करने की भी सहमति दी। पेरेंट्स ने रोज अपने बच्चे को बुक के दो पेज पढ़कर सुनाए। इसके एक साल बाद चौंकाने वाले परिणाम आए। ऐसे बच्चों की सीखने की क्षमता उन बच्चों के मुकाबले ज्यादा थी, जिन्हें कोई भी बुक पढ़कर नहीं सुनाई जाती थी।
बुक्स चेंज करना भी जरूरी

स्टडी में ये भी पता चला कि रोज एक ही बुक पढ़कर सुनाने का उतना फायदा नहीं होता, जितना बार-बार बुक चेंज करने का होता है। इससे बच्चे ज्यादा शब्द सीखते हैं। उसकी ब्रेन पावर बढ़ने के साथ ही उसके लैंग्वेज स्किल भी अच्छे होते हैं। इतना ही नहीं यह स्पेशल टाइम बच्चे और पैरेंट्स के बीच के रिश्ते को और भी मजबूत बना देता है।
किताबें ही नहीं लोरियां भी दिखाएंगी असर

विशेषज्ञों का कहना है कि बच्चे के मानसिक और शारीरिक विकास के लिए बच्चे के साथ माता-पिता का वक्त बिताना और खेलना जरूरी है। बोलना भी इसी से जुड़ा है। शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. सुनील गुप्ता का कहना है कि किताबें ही नहीं बच्चों में भाषाई विकास के लिए लोरियां भी बहुत काम की होती हैं। पहले दादी, नानी, मां सभी बच्चे को रात के समय लोरियां सुनाकर ही सुलाती थीं। इससे न सिर्फ उन्हें अच्छी, गहरी नींद आती थी, बल्कि बच्चा कई नए शब्दों से भी परिचित होता था। लेकिन अब यह चलन बंद हो गया। ऐसे में बच्चे नए शब्द सुन नहीं पाते, तो वो उन्हें बोलेंगे कैसे। जरूरत है बच्चों को क्वालिटी समय देने की। हर माता-पिता को समझना चाहिए कि बच्चों को मोबाइल की नहीं आपकी जरूरत है।
