व्हाट्सऐप , व्हाट्सऐप जब देखो तब व्हाट्सऐप, जब से ये व्हाट्सऐप आया मेरे मम्मी-पापा ने मुझसे अपना ध्यान हटाया । सारा दिन व्हाट्सऐप पर चैटिंग और वीडियो कालिंग…..यू नो डिअर पेरेंट्स आई ऍम नॉट सो डिमांडिंग….. स्कूल के एनुअल फंक्शन में जब 3 साल के रूद्राक्ष ने ये लाइन्स बोलीं तब वहां बैठे सारे पेरेंट्स सोच में पड़ गए । लेकिन ये सच है कहीं न कहीं स्मार्टफोन और सोशल मीडिया ने पेरेंट्स और बच्चों के बीच एक लाइन क्रिएट कर दी है। जिसके एक तरफ है माता-पिता का सोशल मीडिया और स्मार्टफोन के प्रति बढ़ता हुआ रुझान और दूसरी तरफ है मासूम बच्चों का धीरे-धीरे पीछे छूटता बचपन ।  बचपन एक ऐसी अवस्था जब बच्चे को सबसे ज्यादा अपने पेरेंट्स की ज़रुरत होती है। कोई भी मुसीबत की आहट  मात्र से बच्चा मां  के आँचल में छिपना चाहता है  लेकिन वही बचपन स्मार्टफोन और सोशल मीडिया की आड़ में छिपता चला जा रहा है। 
 आजकल पेरेंट्स की प्रायरिटी बच्चे न होकर फ़ोन बन गया है। संकल्प ने जब पापा से बोला कि पापा मेरे साथ कोई गेम खेलो तब पापा ने उसकी बात अनसुनी कर दी और फेसबुक के अपडेट्स और व्हाट्सएप के स्टेटस चेक करते रहे। मासूम संकल्प कौतुहल से भरा हुआ पापा से लगातार बोलता रहा और पापा उसकी बात को नज़रअंदाज़ करते रहे। ये एक संकल्प की कहानी नहीं है न जाने कितने संकल्प हैं जो अपने माता- पिता के साथ  थोड़ा सा समय बिताना चाहते हैं लेकिन पेरेंट्स अपनी फिज़ूल सी स्मार्टफोन की लत से पीछा ही नहीं छुड़ा पाते। जाने-अंजाने पेरेंट्स और बच्चों के बीच की दूरियां बढ़ती जाती हैं और बच्चों का बचपन पंख लगाकर उड़ जाता है। 
पेरेंट्स बच्चों के साथ क्रिकेट,फ़ुटबाल जैसे गेम्स खेलने की जगह मोबाइल पर पब जी खेलते रहते हैं। 
बच्चों के होमवर्क पर ध्यान न देकर इस बात पर ध्यान देना ज़्यादा पसंद करते हैं कि नयी मूवी कब रिलीज़ हो रही है, फेसबुक पर उनके फ्रेंड्स ने कौन सी नयी पिक्चर अपलोड की है और मोबाइल का कोई नया ऐप तो नहीं लांच हुआ है। 
पेरेंट्स के साथ बच्चों की दूरियों का सबसे बड़ा उदाहरण उस समय सामने आता है जब बच्चे का बर्थ डे तक उन्हें तब याद आता है जब फेसबुक पर नोटिफिकेशन आता है।