हिन्दी आज भी पूरे देश की भाषा क्यों नहीं?
hindi aaj bhi poore desh ki bhasha kyon nahi

Hindi Language: भारत के राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में एक ओर जहां क्रान्तिकारियों के शहादत के जज्बे ने जन मानस के हृदय को उद्वेलित किया और महात्मा गांधी के शांति एवं अहिंसा के नारों ने सत्याग्रह की आंधी के साथ उनमें शक्ति संचार किया, वहीं सुभद्रा कुमारी चौहान, मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर जैसे हिन्दी कवियों की वाणी ने जन मानस को अंग्रेजों के विरुद्ध साहस के साथ खड़ा होने में विशेष भूमिका निभाई। स्वतंत्रता से पूर्व जिस हिन्दी ने इतनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा कर अंग्रेजी को पददलित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी वही हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा घोषित होने के बावजूद क्यों पूरे देश की भाषा नहीं बन पाई।

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क्यों अंग्रेजी ने फिर से अपना झंडा बुलन्द कर लिया? क्यों हिन्दी बोलने वाले लोगों को अंगे्रजी के मुकाबले हेय दृष्टि से देखा जाता है? क्यों हिन्दी की रोटी खाने वाले भी अंग्रेजी बोलने में गर्व महसूस करते हैं और आखिर प्रशासनिक या व्यक्तिगत स्तर पर क्या कदम उठाये जाये कि हिन्दी को उसका वास्तविक स्वरूप एवं स्तर प्राप्त हो।

हिन्दी आज हाशिये पर खड़ी है और यह स्थिति निश्चित रूप से चिन्ताजनक है। यदि हिन्दी को उसका स्तर देना है तो छात्रों में उसके प्रति आकर्षण पैदा करना होगा। बृहद स्तर पर हिन्दी में सर्वोच्च अंक लाने वालों को पुरस्कार (हाई स्कूल स्तर से ऊपर) एक अच्छा तरीका हो सकता है और इसके लिए यदि सामाजिक संस्थाएं सामने आयें तो बेहतर होगा। वैसे इसका एक उज्जवल पक्ष यह भी है कि इधर विदेशी छात्रों में हिन्दी के प्रति रुझान बढ़ा है। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान जैसे राष्ट्रीय संस्थानों में पूरे विश्व से छात्र हिन्दी पढ़़ने आ रहे हैं। लेकिन संभवत: हमारे देशवासियों को ही इसकी जानकारी नहीं है।

हिन्दी को यदि इसका वास्तविक दर्जा दिलाना है तो बुक कल्चर फिर से शुरू करना होगा और वह भी किशोरों में सत्तर के दशक में हिन्द पॉकेट बुक ने एक रुपया सीरिज निकाल कर रीडर्स का एक बड़ा वर्ग खड़ा कर दिया था ऐसी शुरुआत फिर से होनी चाहिये।

यदि वास्तव में हिन्दी को उसका स्थान दिलवाना है तो शिक्षा में किसी भी स्तर पर शिखा का माध्यम केवल और केवल हिन्दी होना चाहिये यदि माध्यम हिंदी होगा तो स्वाभाविक रूप से उस विषय पर पुस्तक भी हिन्दी में प्रकाशित होगी। हां अंग्रेजी को एक भाषा की तरह पढ़ाया ही जाना चाहिये।
इसके साथ ही दुकानों के साइनबोर्ड अनिवार्य रूप से हिन्दी में ही होने चाहिये हां हिन्दी के साथ या अंग्रेजी या अन्य भाषा (उर्दू या अन्य भाषा) में भी हो तो कोई बात नहीं। इसके अतिरिक्त कक्षा 5 तक केवल हिन्दी ही पढ़़ाई जानी चाहिये क्योंकि 80 प्रतिशत लोगों के घर अंग्रेजी नहीं बोली जाती अब यदि बच्चा स्कूल में पहले स्टेज से ही अंगे्रजी सीखता है तो घर में बोली जाने वाली भाषा और स्कूल में सिखाई जाने वाली भाषा में उसका कोमल मस्तिष्क उलझ कर ही रह जाता है।

हिन्दी क्या भारतीय संस्कृति तक के सब से बड़े विरोधी तो कान्वेन्ट स्कूल हैं जहां अंग्रेजी, अंग्रेजियत और विदेशी पैटर्न को सिखाने पर ही सारा जोर दिया जाता है। वहां हिन्दी को अनिवार्य कर देना चाहिये। आखिर जापान में भी सभी लोग अपनी मात्र भाषा जापानी बोलते हैं तो भारत में हिन्दी क्यों नहीं? इसके अतिरिक्त बैंकों में सारा कामकाज हिन्दी में होना चाहिये। आज कम्प्यूटरीकरण के बाद तो पास बुक या बैंक स्टेटमेन्ट की अंग्रेजी पढ़ना टेढ़ी खीर हो गया है। फिर बैंक के ग्राहक भी तो अधिकांशत: हिन्दी ही जानते हैं।

देश की सांस्कृतिक चेतना के वाहक लोकगीत एवं शास्त्रीय संगीत है। खेद है कि स्वतंत्रता के बाद उभरे साहित्यकारों एवं संगीतकारों में पता नहीं क्यंू दूरियां बढ़ती चली गयीं इस कारण साहित्य (विशेषकर गीत) संगीत से दूर होता चला गया जबकि स्वतंत्रता पूर्व गीतकारों ने हिन्दी के वर्चस्व को कायम रखने में अत्यंत महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। हिन्दी को समर्थ बनाना है तो इसे शास्त्रीय रागों में पागना होना स्वरों में कालजयी सामर्थ्य है। एक-एक हजार वर्ष पूर्व रचे गीत शास्त्रीय रागों में ढलकर न केवल जिन्दा है वरन् उनकी प्रभाव क्षमता भी अक्षुण्य है। जब शास्त्रीयता में पगकर हिन्दी की सामर्थ्य बढ़ेगी तो उसके तेज के आगे यह सारी बाधायें स्वयं ही नष्ट हो जायेंगी लेकिन इसके लिये साधना के लिये संकल्प लेने वाले हिन्दी साहित्यकारों को पहल करनी होगी।

हिन्दी को अगर संपूर्ण राष्ट्र में सचमुच प्रतिष्ठा दिलानी है तो हिन्दी भाषी प्रदेशों को अन्य भाषी प्रदेशों की भाषा को व्यवहारिक सम्मान देना होगा। कुछ ऐसा फार्मूला लागू होना चाहिये कि हिन्दी भाषी प्रदेश का प्रत्येक छात्र अंग्रेजी सीखे या न सीखे किन्तु कम से कम प्राथमिक स्तर पर दक्षिण की एक भाषा अवश्य सीखें। यदि एक पीढ़ी भी इस व्यवहारिक फार्मूले पर चली तो यकीनन दक्षिण भारत में भी हिन्दी को यथोचित सम्मान मिलेगा और यह व्यवहारिक रूप से संपूर्ण राष्ट्र की भाषा बन जायेगी।

हिन्दी को अगर संपूर्ण राष्ट्र में सचमुच प्रतिष्ठा दिलानी है तो हिन्दी भाषी प्रदेशों को अन्य भाषी प्रदेशों की भाषा को व्यवहारिक सम्मान देना होगा। कुछ ऐसा फार्मूला लागू होना चाहिये कि हिन्दी भाषी प्रदेश का प्रत्येक छात्र अंग्रेजी सीखे या न सीखे किन्तु कम से कम प्राथमिक स्तर पर दक्षिण की एक भाषा अवश्य सीखें।