हमारे जनजीवन में पर्वों का प्राचीन काल से ही खास महत्व रहा है। इन्हीं पर्वों के माध्यम से लोगों की सोई हुई चेतना पुनः जाग उठती है तथा हमारे अंदर एक नवीन चेतना, शक्ति और साहस का संचरण होता है। भारतीय लोक जीवन के इन्हीं पर्वों में भाई-बहन के स्नेह का परिचायक और कच्चे धागों का पवित्र बंधन ‘रक्षा बंधन’ या ‘राखी’ का अपना ही एक विशेष महत्व है।

श्रावण मास में मनाई जाने की वजह से इसे ‘श्रावणी मास’ में मनाई जाने की वजह से इसे ‘श्रावणी’ भी कहते हैं। एक तरफ जहां यह स्नेह तथा उत्साह का पर्व है। वहीं दूसरी तरफ यह बलिदान,शक्ति,साहस,विजय तथा प्रतिज्ञा का भी त्योहार है।

पुराणों में रक्षाबंधन 

रक्षा बंधन पर्व की ऐतिहासिकता अत्यंत पुरातन है। ऐसी कहानी पुराणों में मिलती है कि देवता तथा दानवों में बारह सालों तक भंयकर युद्ध होता रहा। इतना लंबा वक्त गुजर जाने पर भी हार-जीत का निर्णय नहीं हो पा रहा था तब देवताओं के गुरू बृहस्पति जी ने देवताओं को रक्षा सूत्र बंधवाने का परामर्श दिया। देवराज इन्द्र जब देवासुर संग्राम में जा रहे थे, तो उनकी पत्नी शची ने पूरे विधि-विधान से विजय की कामना करते हुए इन्द्र तथा सारे देवताओं की कलाई में रक्षा सूत्र बांधा और कहा –

येन राजा बर्लिबद्धो दानवेन्द्रो महाबलषु।

तेन् त्वाम प्रतिबघ्नानि रक्षेम चल मा चल।

रक्षा सूत्र से सारे देवता रक्षित हो गए। रक्षित हो जाने पर देवों ने दुगुने साहस से युद्ध किया एवं विजयश्री पाई। इस युद्ध में देवताओं की रक्षा के लिए देवताओं की ओर से युद्ध के लिए पृथ्वी से भी अनेक तेजस्वी राजा गए थे। उन्होंने जब रक्षा मंत्र, रक्षा विधान और रक्षा बंधन की बड़ाई देखी तो वे बृहस्पति से निवेदन कर इसे पृथ्वी पर ले आए तथा प्रारंभ में आसुरी ताकतों से आक्रमण में विजय हासिल करने के लिए इस मंत्र विधान का प्रयोग करने लगे।

यज्ञों में रक्षा सूत्र

पुरातनकाल में यज्ञ के मौके पर हाजिर लोगों की कलाइयों में एक सूत्र बांधा जाता था। यह सूत्र यज्ञ में उपस्थिति का सूचक माना जाता था, साथ ही यज्ञ से प्राप्त उर्जा का आधार भी था। इन्हीं सूत्रों के माध्यम से व्यंचित की रक्षा की कामना की जाती थी।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

कर्णवती ने हुमायूं को भेजी राखी 

मध्यकाल में रक्षा की भावना का दोहरा आशय माना जाने लगा। प्रथम जिस व्यक्ति से रक्षा बंधन किया जाए, कल्याण कामना तथा दूसरे रक्षा बंधन करने या रक्षा सूत्र भेजने वाले की सहायता। मुगल शासनकाल में तमाम स्त्रियों ने आक्रमणकारियों से बचाव के लिए बहादुर व्यक्तियों को रक्षासूत्र भेजे तथा उन्होंने स्त्रियाें की रक्षा की। इनमें चितौड़ की महारानी कर्णवती की घटना खासतौर से उल्लेखनीय है। उन्होनें हुमायूं को राखी भेजकर गुजरात के बादशाह जफर के विरूद्ध सहायता मांगी थी। हुमायूं ने राखी का पूरा आदर किया तथा महारानी कर्णवती को अपनी बहन मानकर उसकी सहायता के लिए शीघ्र चितौड़ पहुंच गए थे।

हुमांयू के पश्चात दूसरे बादशाह भी रक्षा बंधन की उपयोगिता को स्वीकारते रहे तथा अपनी प्रजा के साथ उमंग से इसको मनाते रहे। परिणामस्वरूप रक्षा बंधन का त्यौहार साम्प्रदायिक सौहार्द्र का प्रतीक बन गया। बादशाह शाह आलम सानी के दरबार में रक्षा-बंधन के पर्व को खास ओहदा मिला।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

राखी की बदलती परिभाषाएं

रक्षा बंधन का पर्व श्रावण पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। इसका स्वरूप् दिन प्रतिदिन बदलता जा रहा है। कभी यज्ञ में सभी को सूत्र बांधा जाता है। कभी पत्नी पति को रक्षा सूत्र बांधता तो कभी बहन भाई को। आज बहन द्वारा भाई को राखी बांधने की परंपरा सर्वत्र प्रचलित है। इस दिन बहनें अपने भाइयों को राखियां बांधती है। इस त्योहार पर बहनों के भीतर अदम्य साहस और प्रसन्नता का नजारा देखने को मिलता है। बहनें इस त्योहार पर सवेरे पूजा अर्चना करके भगवान से भाई की दीर्घायु सुखद और निरोगी जीवन की कामना करती है। इसके बाद अपने भाइयों के दाहिने हाथ की कलाइयों में पवित्र स्नेह का बंधन बांधती है। तथा अपने हाथों से भाई का मुंह मीठा करती हैं।

यह उत्सव हालांकि भारतवर्ष का ही नहीं शनैः शनैः सारे संसार का त्योहार बनता जा रहा है। ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में बहने अपने भाइयों के पास जाकर रक्षा सूत्र बांधता है। या भाई बहन के घर जाकर राखी बांधती है या भाई बहन के घर जाकर राखी बंधवाता है। यह आयोजन सवेरे से लेकर पूरे दिन चलता रहता है। इस दिन तो ऐसा लगता है। जैसे संपूर्ण वातावरण ही भाई-बहन के स्नेह बंधन के रूप में बंध गया हो।

इस प्रकार असीम प्रेम और अनुराग का परिचायक यह पर्व भारतवर्ष की सुखद संस्कति का वह बिरवा है, जिसकी खुशबू सारे जहां को महक से भर देती है। भाई-बहन के अमर प्रेम की खुशबू पूरे वातावरण में तैर जाती है और गूंज उठता है संगीत निराला ‘भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना’

 

(साभार – साधनापथ)

 

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