सच्चे कृष्ण भक्त महर्षि सुपंच सुदर्शन
Krishna Devotee

Maharishi Supach Sudarshan: ‘शिवलिंग सहस्राणि, शालिग्राम शतानि च। द्वादश कोटि विप्राणाम्, एक:सुदर्शन वैष्णव:।।
भारत संतों और महर्षियों का तपोवन है। नारद, वेदव्यास, वाल्मीकि, तुलसीदास, रविदास, नानक, सुखदेव आदि महर्षियों की अमृतमयीवाणी और विलक्षण प्रतिभा से यह पृथ्वी धन्य है। महर्षि सुपंच सुदर्शन जी द्वापर युग के 3290 ईसा पूर्व के सर्वश्रेष्ठ सत्य स्वरुप कृष्ण भक्त, साहित्य प्रेमी, विवेक युक्त सन्त स्वरूप के अवतार महाभारत काल के ये वैष्णव भक्त थे।

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वे अपने समय के तेजस्वी, ज्ञानी, योग और ब्रह्मज्ञान विभूषित सन्त थे। फाल्गुन कृष्ण की त्रयोदषी को काशीनगर में आप एक सुसंपन्न परिवार में पैदा हुए थे। उनकी शिक्षा सन्त श्री करुणामय आचार्य जी के निर्देशन में हुई। आपके पिता का नाम नरहरि और माता का नाम लक्ष्मी देवी था। उनका वास्तविक नाम श्री सुदर्शन जी था। वह बचपन से ही भक्तिभाव तथा सत्य की खोज में लीन रहते थे। इसलिए कहा गया है कि-
वाल्मीकि, व्यास की तपोभूमि में वह सुंदर। द्वापर युग अवतरित हुए सन्त सुदर्शन रतन अमर।।
भक्तिभाव स्वधर्म कर्म से तिल भर न कभी हटने वाले। गुरु दीक्षा के मूल मंत्र को जीवन भर रटने वाले।।
महर्षि सुदर्शन जी में उत्तर प्रदेश के ही नहीं वरन् बिहार, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल,महाराष्ट्र, राजस्थान, हरियाणा एवं पंजाब आदि प्रदेशों में करोड़ों लोग अपनी आस्था रखते हैं। जिन्हें लोग भिन्न-भिन्न नामों से जैसे-धानुक, धनक, धिरकार, डोम, डुमार, धनकड़, हेला, बहेलिया, महार, जुआठा, पिजड़हा, वाजगी आदि नामों से पुकारा जाता है। इसी भांति धानुक समाज के आदिगुरु महर्षि सन्त सुदर्शन जी को भी सुपंच सूपा, सपूत स्वपंथ आदि जैसे नामों से जाना जाता है।
महाभारत युद्ध में पांडवों की विजय हासिल के बाद जब पांडव अपना राज्य चलाने लगे तो महाराजा युधिष्ठिर को कई तरह के भयानक सपनें दिखाई देने लगे। राजा युधिष्ठिर बड़े चिंतित हो उठे तथा उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण जी से इनका कारण पूछा। श्रीकृष्ण ने राजा युधिष्ठिर से कहा,” हे युधिष्ठिर! तुम्हें महापातक लग गया है। यदि तुम उससे छुटकारा पाना चाहते हो तो महायज्ञ करने का विचार करो तथा सभी ऋषि-मुनियों को भोजन पर आमंत्रित करो। यदि तुम्हारा यज्ञ सफल होगा, तब समस्त पातक समाप्त हो जाएंगे और तुम्हारा हृदय खुद शांत हो जाएगा। यज्ञ पूर्ण हुआ कि नहीं, इसकी पुष्टि के लिए एक आकाशी घ्ंाटा टंगवा दो। जब घंटा अपने आप बजने लगे तो समझो कि यज्ञ पूरा हो गया। राजा युधिष्ठिर ने यज्ञ किया तथा उसमें महर्षि सुदर्शन के अलावा सारे ऋषि- मुनियों को आमंत्रित किया।

यज्ञ शुरू हुआ। आमंत्रित हजारों ऋषि-मुनियों को भोजन कराया गया। जब आकाशी घंटा नहीं बजा तो युधिष्ठिर परेशान हो उठे। उन्होंने दोबारा भगवान श्रीकृष्ण जी से इसका कारण पूछा तो उन्होंने कहा, हे युधिष्ठिर! आपने मेरे सच्चे भक्त सुपंच सुदर्शन जी को नहीं आमंत्रित किया है, इसलिए यह आकाशी घंटा नहीं बजा। जब 25 लाख ब्राह्मण एवं 80 हजार ऋषि-मुनि, आचार्य भोजन कर रहे थे तो उस समय न तो कोई अभिमान रहित ही था, न ही कोई सच्चा भक्त था तथा न ही कोई सच्चा तपस्वी ही था। इसलिए यह यज्ञ सफल न हो सका। यदि तुम यज्ञ को पूरा कराना चाहते हो , तो खुद काशी जाकर महर्षि सुदर्शन जी को सादर अपने साथ लिवा लाओ, तभी तुम्हारा यह यज्ञ पूरा होगा। उसी समय युधिष्ठिर जी ने अपने भाई भीम को महर्षि जी को बुलाने के लिए भेजा। भीम ने महर्षि जी के पास जाकर कहा, हे सुदर्शन! धर्मराज युधिष्ठिर जी ने आपको यज्ञ में भोजन करने के लिए आमंत्रित किया है। आप मेरे साथ अभी चलें। यह सुनकर महर्षि श्री सुदर्शन जी बोले, हे भीम! मैं धर्मराज का सेवक नहीं हंू। यदि उनका काम है तो वे खुद मेरे पास आवे। एवं उनसे कह देना-
‘राजा वैश्या जाति शिकारी, महा अकर्मी विषय विकारी। इनके घर जो भोजन खाए, पुण्य क्षीण होय नरकै जाए।
शोडश दोष-सदा इन संगा, निकट जाए होवे मति भंगा। ता-से कहा उन्हें तुम जाई, हम नहि, भोजन करेंगे भाई।।
अर्थात राजा, वेश्या, शिकारी और विषयी पुरुष के घर भोजन नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसे लोगों के पास 16 दोष सदैव बने रहते हैं। जो ऐसे लोगों के घर भोजन करता है, उसका पुण्य घट जाता है तथा बुद्धि नष्ट हो जाती है।
ऐसा सुनकर अभिमानी भीम ने सोचा कि यह सन्त इस प्रकार की बात कर रहा है। यदि इसे एक गदा मार दूं तो यह कुटी सहित पाताल को चला जाएगा। अन्तर्यामी महर्षि श्री सुदर्शन जी ने यह बात जान ली। वे भीम से दोबारा बोले, हे भीम! मेरी कुटिया के अंदर खूटी पर टंगी सुमिरनी (माला) को उतार कर चलो, हम आ रहे हैं, भीम ने माला उठाने का काफी प्रयास किया, किंतु माला टस से मस नहीं हुई। यह देखकर महर्षि जी ने भीम से कहा कि जब तुम मेरी माला नहीं उठा पाए, तब तुम मुझे गदा मार कर पाताल कैसे पहुंचा देते? महर्षि जी की बात सुनकर भीम बेहद लज्जित हुए। उन्होंने वापस लौटकर राजा युधिष्ठिर को समस्त वृतांत सुनाया एवं कहा कि वह घमंडी सन्त कहता है कि मैं राजा के यहां भोजन नहीं करता। इतना सुनकर भगवान श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा कि, हे धर्मराज! समस्त संसार में महर्षि सुदर्शन जी ही भक्त पुरुष है, जो नि:स्वार्थी और अहंकार रहित हैं। आप खुद जाकर आदरपूर्वक उन्हें लाइए। श्रीकृष्ण जी के परामर्श पर धर्मराज युधिष्ठिर जी खुद काशी गए तथा अतिमन भाव से उन्हें विनम्रतापूर्वक प्रणाम करके सर्वप्रथम अपने अनुज भीम के गर्वापराध की क्षमा मांगी एवं विनय सहित यज्ञ में पधारने का आग्रह किया। ऋषि श्रेष्ठ युधिष्ठिर के प्रेम के आगे अपने नियमों से भी बंधे न रह सके तथा यज्ञ में चलने को राजी हो गए।

प्रबल प्रेम के पाले पड़कर प्रभु को नियम बदलते देखा फिर वे तो प्रभु के भक्त थे, जाते भी क्यों न। राज प्रासाद में पहुंचकर महारानी द्रोपदी के हाथों से बनाए हुए तमाम भांति के जायकेदार भोजन को एक साथ मिलाकर ग्रहण किया। महर्षि सुदर्शन जी, जो समस्त तरह के भोजन के स्वादों से विरक्त थे, समस्त व्यंजनों को एक साथ मिला दिया क्योंकि इन्हें किसी तरह के स्वाद की लालसा ही नहीं थी। जब वे सभी तरह के व्यंजनों को मिलाकर खाने लगे तथा वे तीन ग्रास (कौर) खा चुके थे कि रानी द्रोपदी के मन में घृणा पैदा हुई एवं मन में सोचने लगी कि श्री सुदर्शन अज्ञानी है। भोजन के जायका को वह क्या जाने? श्री सुदर्शन जी द्रोपदी के मन की बात को जानकर अपने हाथों को भोजन से खींच लिया एवं उठ पड़े। महर्षि जी ने तीन ग्रास ही भोजन किया इस कारण आकाश घंटा भी तीन बार बजकर रह गया तथा ज्यादा नहीं बजा। राजा युधिष्ठिर को फिर संदेह हुआ तथा दोबारा श्रीकृष्ण जी से इसका कारण जानना चाहा। तब श्रीकृष्ण जी ने बताया कि रानी द्रोपदी के मन में श्री सुदर्शन को भोजन करते देखकर ग्लानि आई थी, कि यह तरह-तरह के व्यजनों का भोजन करना क्या जाने? मैंने तो तमाम तरह के परम स्वादिष्ट व्यंजन बनाए एवं उनको एक साथ मिलाकर इसने सब स्वाद बिगाड़ दिया। इस वजह सुदर्शन जी ने उनके मन की बात जानकर भोजन करना छोड़ दिया। इसलिए आप उनके चरणों पर गिरकर अपने अपराध के लिए क्षमा मांग कर उन्हें फिर से भोजन करावें।

राजा युधिष्ठिर ने श्री सुदर्शन जी के चरणों पर गिरकर अत्यंत नम्रतापूर्वक कहा-‘महाराज मेरा अपराध क्षमा करें, हम अज्ञान से अंधे हैं, हमारी अज्ञानता पर न जाइए, चलकर दोबारा भोजन कीजिए। सुदर्शन जी राजा की नम्रता पर पुन: दयालु हुए तथा पुन: भोजन किया। भोजन ग्रहण करते ही आकाशी घंटा अपने आप बजने लगा तब जाकर यज्ञ की पूर्णाहुति हुईं समस्त आकाश मंगलमय ध्वनियों और ऋषि-मुनियों की जय-जयकार के नाद से गूंज उठा।
‘सुपंच भक्त भोजन किया, घंटा बजेऊ आकाश। गण-गंधर्व देव में, जै जै होत प्रकाश।।
श्रीकृष्ण जी ने भीम से प्रतिज्ञा की थी मैं सुदर्शन जी की श्रेष्ठता तुम्हारी आंखों से तुम सभी को दिखला दूंगा तथा तभी तुम विश्वास करना। इसी वजह कृष्ण जी ने आज्ञा दी कि आप सभी लोग जो इस समय यहां उपस्थित हैं, पुष्कर जी चलें, आज्ञानुसार सब पुष्कर जी की ओर चल दिए। समस्त लोगों को साथ लेकर राजा युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण जी पुष्कर तीर्थ गए।
श्रीकृष्ण ने यहां पर सवा लाख दीप जलवाए। उन्होंने युधिष्ठिर जी से कहा कि तुम लोग आदमियों की परछाई इस जल से देखो। उन्होंने देखा तो सभी उस जल में अपने प्राकृतिक स्वरूप अर्थात गधे, सुअर, कुत्ता, बैल, हाथी, घोड़े, पशु, हिंसक जीव, कीड़े-मकोड़े आदि के रूप में दिखाई दिए। उनमें से एक भी मनुष्य के रूप में नहीं था। मात्र सुदर्शन जी महाराज इनमें मनुष्य के रूप दिखाई दिए।
श्रीकृष्ण जी सत्य पुरुष के रूप में दिखाई दिए। जब पांडवों ने स्वचक्षुओं से देख लिया कि सुदर्शन के अलावा दूसरा मनुष्य नहीं है, तो उनको सुदर्शन जी की श्रेष्ठता का परिचय भली-भांति मिल गया। पुष्कर जल में सब का प्राकृतिक स्वरूप दिखाई दिया, क्योंकि पुष्कर झील (अजमेर स्थित) सब तीर्थों में श्रेष्ठ है। उसे धरा का नेत्र माना गया है तथा इसी वजह श्रीकृष्ण जी ने यह समस्त कौतुक धरा के नेत्रों द्वारा दिखलाया था।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से महर्षि जी उच्च कोटि के महान सन्त थे।

जिन्होंने अपने तपोबल से अपने पूज्य गुरु की दीक्षा के अनुसार भक्ति भावना से उत्कृष्ट आस्था,आत्म समर्पण हासिल करके राजसूय यज्ञ में अ_ासी हजार ऋषि-मुनियों में सर्वोच्च ओहदा स्थापित किया। इसलिए योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने भी सभा में अपने भक्त् महर्षि सुपंच सुदर्शन की भूरि-भूरि प्रशंसा की। महर्षि जी ने हमें तमाम शिक्षाएं दी हैं जैसे हमें मात्र भगवान से डरना चाहिए इन्सान से नहीं। जो मानव भगवान का डर मानकर आचरण करते हैं वे हरदम निर्भय होते हैं। मनुष्य को बौद्धिक बल, शारीरिक बल, सौंदर्य बल, धन बल का घमंड/अभिमान नहीं करना चाहिए क्योंकि यह क्षणिक होते हैं तथा जल्द समाप्त हो जाते हैं। मनुष्य को किसी को भी उपेक्षित हीन भावना से नहीं देखना चाहिए। मनुष्य को सांसारिक सुखों के पदार्थों के ही भोग में नहीं लगे रहना चाहिए वरन् पारलौकिक आनंद की प्राप्ति का प्रयास करना चाहिए। मनुष्य को परोपकारी मनोवृत्ति का होना चाहिए तथा अपने स्वाभिमान की हर कीमत पर रक्षा करनी चाहिए।